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Wednesday, June 11, 2025

कड़ाही में लगी सब्जी


हर भारतीय घर में कड़ाही होती है। सामान्यतौर पर उसमें या तो सब्जी बनाई जाती है, या उसमें पूरियां तली जाती हैं। पचास के आसपास के लोगों का उस कड़ाही के लिए विशेष मोह होता है। इस उम्र में प्रायः आदमी वो करना चाहता है, जो उसने बचपन में किया हो। इसे आज की भाषा में नॉस्टेलजिया कहते हैं। इस कड़ाही में पूरियां तली जाएं, तो मन खुश हो जाता है। भले ही स्वास्थ्यगत निषेधाज्ञा लागू होने से दो ही मिलें, पर संतोष तो हो ही जाता है। दूसरा इसमें बनी सब्जी निकालने के बाद उस कढ़ाई में लगे मसाले का मोह। आज भी ललचाता है। 
एक समय वो था, जब हम इसे व्यर्थ मानते थे। सब्जी खाओ, कड़ाही चाटने से क्या। ऊपर से बहनों का घर, अम्मा और बुआ कहतींं, कड़ाही में खाओगे तो शादी में पानी बरसेगा। हम सब सहम जाते, कड़ाही सरका देते। बाबूजी कहते, लाओ हमें दो, अब हमारी तो शादी हो ही गई है। हमें क्या चिंता। हम खी खी हंसते, और इस तरह वो कड़ाही उनकी हो जाती। वो उसमें एक रोटी घिसते फिर दाल डालकर पूरा मसाला बाहर कर लेते। हमारी लालच भरी नजरें मसाला सनी रोटी को ललचा रहीं होती, वो भांप जाते कहते, अरे ले ले, न गिरेगा पानी। 
अभी एक मीम आया था, जिसमें कोई कह रहा था, कि भगवान का दिया सबकुछ है घर में, पर पता नहीं कहां रखा है। बस कुछ ऐसा ही था हमारा बड़ा घर, बड़ा परिवार। शायद ही कोई दिन होता, जब घर में खाने पर कोई मेहमान न हो। कभी कभी तो कोई मिलने आता, अम्मा उसे कह देतीं, खाना खाकर जाना। हम भाई बहन बड़े हुए, कड़ाही से बाबूजी के प्रेम की बात शायद हमारे दिमाग में धुंधली भी हो। लेकिन जब चीजें जोड़ते हैं तो उसकी असली कहानी सामने आती। 
बड़ा परिवार, आन-जान लेकिन कमाई एक, वो भी सीमित। उन दिनों सबसे अधिक खाने, फिर पढ़ाई और पहनने पर खर्च होता। असल में बाबूजी पहले खाना खाते, कड़ाही का बहाना लेकर अक्सर अपनी थाली की सब्जी को यूं ही छोड़ दिया करते। सबसे बाद में अम्मा खाना खातीं, जाहिर है हर दिन उनके लिए सब्जी बचती ही नहीं थी, वो सारी सब्जी सबको मना मना खिलाती। ले लो रोटी कैसे खाएगा, दाल चावल में सब्जी मिलाकर खा ले, मजा आ जाएगा। बाबूजी सब देखते, बाद में अपनी थाली अम्मा को सरका देते कहते, अरे ये सब्जी तुम ले लो, मुझे कड़ाही दो।
वो सिर्फ कड़ाही में लगी सब्जी नहीं थी, एक प्यार था, समर्पण था। एक ऐसा भाव जिसको समझने के लिए खुद के अंदर से, पूरी ताकत लगाकर मैं को निकालना होगा। आज की पीढ़ी जो अपने प्रेम विवाह, शादी से पहले घुलने मिलने के बाद भी एक दूसरे के प्रति लगाव पैदा नहीं कर पा रही। एक वो दौर था, जब न तो पति आकर्षक होने की कोशिश में डोले बनाता था, न निकलती तोंद को रोकता, झड़ते बालों को उम्र का तकाजा मान इग्नोर कर देता। वो महिलाएं जो सजने संवरने के नाम पर तेल, कंघी, चोटी कर लेती। दिनभर जुटे रहकर भी जिम्मेदारियों से न कतरातीं। लब्बोलुआब ये कि कुछ भी तो न था, सीमित आमदनी, सीमित संसाधन और सीमित अपेक्षाएं । बस थीं तो असीमित खुशियां, असीमित प्यार, असीमित लगाव एक दूसरे से, सब से। समस्याएँ भीषण थीं, लेकिन सब अपने हाल में खुश थे, उनके पास अपने साथी से प्रेम की लाखों वजह थीं, गुस्से की सैकड़ों लेकिन नफरत की एक भी नहीं। बस यही भाव अपने बच्चों को दे सकें तो न कोई राजा होगा न कोई सोनम । 

अभी हाल में एक जून को इंटरनेशनल पेरेंटिंग डे था और पंद्रह जून को फादर्स डे है। 

बाकी जो है सो तो है ही।

जय जय....

हम दोनों एक बार मस्जिद गए थे, सो ऊपरवाले की इजाज़त से सेल्फी ले ली।



(प्रकाशन करना चाहें तो बस एक बार बता दें। कंटेंट कॉपी न करें। यहीं लिख दें या फेसबुक पर मैसेज कर दें।)

6 comments:

Anonymous said...

बिल्कुल सही,घर घर की कढ़ाई

manisha sanjeev said...

तर्कसंगत

sanjeev persai said...

धन्यवाद आपका

sanjeev persai said...

धन्यवाद आपका

संजीव शर्मा/Sanjeev Sharma said...

बढ़िया भावनात्मक पीड़ा..नई पीढ़ी इस सुख, समर्पण और सम्मोहन को समझ ही नहीं सकती

sanjeev persai said...

आभार आपका शर्मा जी