अपने आसपास देखो, क्या ऐसा कुछ है? शहर से बारिश का पानी निकालने के नाले हैं जिनको अतिक्रमण खा रहा है। नालों में रहवासी से दुकानदार सब इस आशा में कचरा डाल रहे हैं, कि एक दिन बारिश आएगी और सब बह जाएगा। नालियों में कचरा ठूंस कर बंद करने में हम शान समझते हैं। बमुश्किल शहरों में सीवेज लाइन डाली जा रही है, लेकिन अभागे उनको तोड़ देते हैं। मेनहोल के ढक्कन लगाते ही गायब हो रहे हैं। भोपाल की लिंक रोड, अटल पथ, वीआईपी रोड पर सुंदर बेंच लगाई, लोग उनको तोड़ दिए या उठाकर चल दिए। बाजारों में कचरा न फैले सो सुंदर से कचरे के बिंस लगे, लोगों ने उनमें आग लगा दी। पूरे शहरों गमलों में शानदार पौधे लगे, बड़े बड़े कार वाले धन्नासेठ उनको कार में धर ले गए। पत्थर की बेंच लगीं, बदमाशों ने उनको तोड़ दिया। शहरों में लगे लाइट, खंभे तक या तो तोड़ दिए जाते हैं, या निकालकर ले जाते हैं।
हमारे बीच में कुछ लोग ऐसी हल्की सोच रखते हैं, फिर हम अपने शहर और देश की तुलना यूरोप और अमरीका के देशों से करते हैं।
असल में विकास के दौर में हमें सिर्फ चिंता करने का काम मिला है। इसे भी हम महज खानापूर्ति जैसे कर रहे हैं। शहर घर जैसा होता है, उसे धीरे धीरे बेहतर बनाना होता है, लेकिन अगर घर के लोग ही घर में चोरी, ठगी, राहजनी, तोड़फोड़ करें, तो फिर क्या कहें..
अब शहरों की चिंता से आगे एक ऐसे भागीदारी और निगरानी के सिस्टम की जरूरत है, जिसमें शहरों के लोग ही अपने शहर को बेहतर बनाने और लोगों की सोच बदलने की दिशा में आगे आएं।
जय जय..
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