Total Pageviews

Friday, July 25, 2025

पोंगापंथी विकास और आम नागरिक

सुदूर एक शहर रामपुर, जैसा नाम वैसी ही प्रकृति के लोग। शांत, संतुष्ट और आपस में भरोसा करने वाले। एक दिन सरकार ने सोचा, यह छोटा शहर है, आसपास घना जंगल है, पांच साथ बड़े जलाशय हैं, दक्षिण में शहर से दो किलोमीटर दूर नर्मदा बह रही है। शहर में कुछ ऐतिहासिक महत्व की साइट भी हैं। कुल मिलाकर पर्यटन की दृष्टि से सभी संसाधन मौजूद हैं। तो क्यों न इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाए।
क्यों नहीं, अच्छा ही तो है। पर इसका स्वरूप कैसा होगा, यह तय करना भूल गए। फिर क्या था, व्यापारी सक्रिय हो गए। सबसे पहले शहर और जंगल, जलाशयों से लगी जमीनें खरीद, होटल और रिसोर्ट बनने लगे। बाजार सजने लगा, बढ़ने लगा। धीरे धीरे पर्यटक भी आए, व्यापारी छाए और शांत, संतोषी कस्बा शोर, कांक्रीट और बेचैनी से भर गया। पैसे का प्रवाह बढ़ा लेकिन अब हर कोई भाग रहा है। सब कुछ पर्यटन बाजार के मुताबिक हो रहा है। जंगल खत्म होने लगे, जलाशय और नदी गंदले पानी और सीवेज से भरने लगे, हरियाली की जगह कांक्रीट ने ले ली। 
यह किया किसने? नेहरू के समय समाजवादी चिंतकों ने एक विचार दिया था। जिसके अनुसार किसी शहर के विकास में सिर्फ उसी शहर के लोगों की भागीदारी होना चाहिए। शायद इसी सोच के साथ कश्मीर को बाहरी हस्तक्षेप से दूर रखा गया हो। इसके मूल में यह भावना है कि स्थानीय लोग अपने गांव, शहर का सत्यानाश नहीं करेंगे। करेंगे भी तो, कोई न कोई उनको रोक देगा। लेकिन बाहर से सिर्फ लाभ की गरज से आने वाले लोगों से क्या उम्मीद की जाए? 
एक बार एक मछुआरे से बात हो रहीथी, छह पीढ़ी से इसी काम में हैं। उन्होंने बताया हम पहले बड़े छेद के जाल बनाते थे, सो संतुलन बना था।  आजकल नए चाइनीज जाल आए हैं, जो सस्ते होते हैं। लेकिन इनके छेद छोटे हैं, सो उनमें छोटी मछली भी फंस जाती है। इससे नदियों जलाशयों में मछलियां कम हो रहीं हैं। लोग लालच में छोटी मछलियां, कछुए, सीपी, केकड़े और दूसरे जलजीव तक निकाल जलाशयों को मार रहे हैं। 
सबसे बड़ी मार जमीनों पर पड़ी हैं, व्यावसायिक महत्त्व की जमीनों से शुरू हुआ सिलसिला अब गली, मोहल्लों को बाजार में बदल रहा है। इसीलिए पर्यटन महत्त्व के शहरों में आम जीवन दूभर हो रहा है। एक पर्यटक या फ्लोटिंग लोग एक दिन में 20-25 लीटर गंदा पानी और 4-5 किलो कचरा औसतन छोड़ देता है। क्या शहर में इसके निस्तारण की व्यवस्था है? धार्मिक महत्व के ऐसे छोटे शहर हैं जहां लाख पचास हजार लोग रोज आ रहे हैं। ये सारा मलमूत्र और कचरा कहां जा रहा है? दूसरी ओर बाजार, संख्या बढ़ाने के लिए दबाव बना रहा है। 
विषय यह है कि जो मसल्स बढ़ाने वाले स्टेरॉइड बेचता है वह अपनी औलाद को नहीं देता। क्योंकि वो उसके दुष्प्रभाव भी जानता है, लेकिन उसे यह बेचने में कोई बुराई नहीं लगती, क्योंकि यह कानूनी रूप से सही है। बस यही बात है, कि विकास कानूनी रूप से हो रहा है, लेकिन क्या इसमें कोई सीमा निर्धारित है। क्या पर्यटन या व्यापार बढ़ाने के लिए शहर का नागरिक जीवन खत्म किया जा सकता है? हमको इस विकास का पोंगापंथी पढ़ाने  वाले देशों में खूब हरियाली, सफाई, सुरक्षा के साथ पर्यावरण संरक्षण हो रहा है, हमारे धन्नासेठों के पास अपने बाग, बगीचे, जंगल, नदी, तालाब और समुंदर हैं l आम लोगों के पास क्या बचेगा ? 
इसकी जिम्मेदारी भी तो किसी को लेना होगा।
संजीव परसाई
Sanjeev Persai


No comments: