एक गांव लोपड़िया, करीब दो सौ घर। गांव के लोगों ने मिलकर एक गोचर बनाया। गोचर वो, जहां गांव के मवेशी जाकर चर सकें, बैठे रहें। शर्त ये कि इस गोचर से गांव का कोई भी व्यक्ति एक तिनका भी नहीं लेगा।
आज सुबह से गांव में हलचल थी। गांव के लोग आज बंदी पर निकल रहे थे। बंदी एक प्रथा है, जिसे हर साल बड़े जोश के साथ निभाया जाता है। जिसमें एक बड़ा कांसे का पात्र, जिसमें एक नली फंसी होती। इस पात्र में दूध, गोमूत्र और पवित्र पार्वती नदी का जल मिलाया जाता। फिर गांव का मुखिया इस पात्र को अपने सिर पर लेकर पूरे गोचर के चारों ओर घूमता। इस धार से गोचर के चारों ओर पानी की एक लाइन बन जाती। यह लाइन तो दो पांच मिनट में सूख जाती, लेकिन गांव के लोग इसे बाड़ से भी ज्यादा पक्का मानते।
पहले गोचर का विरोध करने वाले कम न थे, लेकिन श्रृद्धा जुड़ी और सब एक हो गए l
अनुशासन की स्थिति यह कि गिरे पेड़, टूटी टहनियां, फल, फूल, पत्ते तक कोई न उठाता। यहां तक कि इसके चारों ओर मिट्टी के टीलेनुमा दीवार बना दी, सो बरसा हुआ पानी भी यहीं समा जाता। इस गोचर और उससे जुड़े अनुशासन से गांव का ये फायदा हुआ कि मवेशियों के साल भर के चारे की व्यवस्था स्थाई हो गई, मवेशियों के बैठने, गोबर, गोमूत्र, पत्ते, वनस्पति, फल फूल के मिलने से इस गोचर की भूमि अत्यधिक उपजाऊ हो गई। मिट्टी इतनी हवादार हो गई कि पानी सीधा जमीन में समाने लगा, फायदा ये हुआ कि गांव के सभी अस्सी कुएं रिचार्ज हो गए, इनमें अब साल भर पानी होता। इतना पानी कि लोग अपने खेतों में इस पानी का उपयोग साल भर करते। नियम था कि इस गोचर में सिर्फ गांव के ही मवेशी बैठेंगे। वो भी सिर्फ इसीलिए कि हर गांव अपने लिए एक गोचर बनाए। असल में पर्यावरण को भगवान का दर्ज़ा देने से इसका संरक्षण आसान हो गया l
अब हालात बदल चुके हैं, लोग भी। गोचर की भूमि पर दबंग कब्जा करने लगे। लोग, पेड़ काट ले जाते, घास पात ढो ले जाते, बेचने लगे, झुग्गियां बना लीं। कुल मिलाकर वो सब हुआ, जो न होना चाहिए था। अब गांव में हालत ये है कि चहुओर सार्वजनिक संसाधनों की खुली लूट मची है।
आज यह किस्सा किसी सपने की तरह है, भूमि कब्जाने से लेकर, नाले, नदियों, तालाबों, कछारों, बालू, जंगल से लेकर मिनरल्स आदि की लूट जारी है। यहां तक कि पब्लिक स्पेस को भी किसी न किसी तरह कब्जाने को नित नई जुगत लगाई जाती है l
शहर और गांवों में पब्लिक स्पेस की व्यवस्था हर प्लान का हिस्सा होती है। लेकिन प्रायः ये किसी की पैसे की हवस मिटाने के काम आते हैं। इसका अहसास तब होता है, जब हम एक लंबा समय गुजार चुके होते हैं। सो अपने आसपास के पब्लिक स्पेस पर नजर रखें, उनको खुला रखें, अतिक्रमण न हो, निगरानी रखें साथ ही अनुशासन के साथ उपयोग करें।
बाकी जो है, सो तो है ही
जय जय
संजीव परसाई
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