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कल्लन मियाँ बहुत दिन बाद दिखे, मैंने ही पकड़ लिया , “कहाँ घूम रिये हो खाँ, न कोई खैर न खबर ऐसी क्या बेरुखी ?”
मियाँ खी-खी करके हंस दिए, “अरे नहीं पंडित , वो थोड़ा काम में मशरुफ़ थे, फिर वालिदा का इलाज चल रिया है बंसल में, तो वहाँ आने जाने का रोज का काम है।”
मैं कुछ आगे जोड़ता, उसके पहले वो ही बोल पड़े, “मियाँ, तुम्हारे तीन हजार भी दे देंगे, खुदा कसम करोड़ों लेकर वापस कर दिये अपन ने, चिंता न करना तुमको साढ़े तीन हजार देंगे। ये एक भोपाली का वादा है।”
कल्लन मियाँ ने साँस लेने के लिए जैसे ही विराम लिया मैंने अपनी बात फँसा दी,
“मियाँ इतना टुच्चा समझ रखा है क्या तो पाँच सौ रुपए के लिए तुमको टोकूँ । अरे तीन हजार तो तुम दोगे ही पर पाँच सौ रुपए में दस बीस कम भी दोगे तो भी न टोकूँ । मियाँ भोपाल के पटियों पर एक पुस्तक लिख रहा हूँ, क्या कहते हो?”
“खुद छाप के खुद ही पढ़ लेना मियाँ , यहाँ तो आजकल खुदा पाक की नमाजें नहीं पढ़ रए हैं कमजर्फ, तुम्हारी पटिएबाजी कौन पड़ेगा। जिन कमीनों को कोर्स की बुक पढ़ने में कंटाला छुटता है वो दिनभर फेसबुक पढ़ते हैं। चलो फिर भी ये बताओ क्या किसी ने बोला है ये लिखने के लिए या अपने मन से ही मान लिया?”
“मियाँ, ये छिछोरपन है, किताबें तो हमारे अब्बू ने लिखीं थीं हर महीने चार किताबें लिखते, वो छपवाते नहीं थे, तुम्हारी तरह कागज खराब नहीं करते थे।”
मैंने कहा – “मियाँ कल्लन, थोड़े तो समझदारी की बात करो, किताब तो पढे लिखे लोगों के लिए होती है।”
“देखो मियाँ , अब पढ़ने लिखने कि बात तो हमसे करो मत, हमारे मामू ओक्स्फ़ोल्ड से पढ़के आए थे, जुमेराती की गली में बैठके लहँगे बेच रहे हैं। सारी समझदारी नाड़ों में अटकी पड़ी है।”
“पर बेचोगे कैसे ? वैरायटी वालों के यहाँ तो हजारों किताबें पड़ी हैं, उनकी डस्ट झड़ाने के लिए उनने चार कर्मचारी रखे हैं।”
कल्लन मियाँ बोले “मियाँ एक किताब मेरे पास भी रखी है, सेंट्रल लाइब्रेरी से चुरा के लाया था। आपको दूंगा, आपके काम आएगी ।”
मैंने पूछ लिया ऐसा क्या है उस किताब में तो कहल्लगे “मियाँ किताब का नाम है 20 दिन में लेखक कैसे बने? पढ़ लेना अगर दो चार किताब लिख लो तो लेखक का तो पता नहीं, अच्छे कबाड़ी जरूर बन जाओगे।”
कल्लन जैसे लोग आपके जीवन में होना जरूरी है, वो आपको आपकी हैसियत का अंदाजा लगातार कराते रहते हैं। बोले “वैसे तुम रेलवे वाले स्टाल पर रख देना, जो ट्रेन लेट से बोर होंगे वो पढ़ लेंगे। थोड़ी मोटी किताब बनाओ तो तकिये के नाम पर बिक जाएगी।”
अब मेरे सब्र का आखिरी किनारा आ चुका था, “मियाँ तुम तो बहुत ही हताश करने वाली बातें कर रहे हो । पढ़ने लिखने की बात हो रही है थोड़ी अकल तो लगा लो।”
कल्लन मियाँ बोले – “देखो मियाँ लाग लपेट अपने को आती नहीं है, तुम्हारे भले के लिए बोल रहे हैं। फिर भी तुम्हें छपास इतनी ज़ोर से लगी है तो छपवा लो, फिर आ जाना । बिकवा देंगे तुम्हारी भी किताब । अभी चलते हैं। कहकर अपने स्कूटर पर किक मारने लगे”
मैंने लपककर फिर हाथ पकड़ लिया ।
“कैसे बिकवाओगे बताकर जाओ ?”
“अरे मियाँ , अपना जुम्मान आजकल पीरगेट पर सब्जी का ठेला लगता है उसके बाजू में धर देंगे, ढेरी लगा के, सब्जी के साथ किताब फ्री की स्कीम भी लगा देंगे।”
अब मुझे बुरा लग चुका था, सो मैंने गुस्सा होकर कहा, “देख लिया कल्लन मियाँ आपको , मेरी किताब सब्जी के साथ बिकवाओगे?”
कल्लन मियाँ स्कूटर आगे बढ़ाते बढ़ाते बोले – “देखो मियाँ पीरगेट पे कबाड़ी फारेन राइटर की किताबें तुलवाकर बेच रहे हैं, भोपाल के लेखकों की इज्जत करते हैं, इसीलिए सब्जी की दुकान पे बिकवाने की बात कर रिये हैं। बाकी मियाँ , जैसी आपकी मर्जी आप तो ऑनलाइन बेचो और काम्प्लेमेंट्री कापी घर-घर जाकर बाँटो । वही आपके लिए सही रहेगा।”
जय जय!!
Sanjeev Persai
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