"हमारा नाम सूरमा भोपाली ऐसेइ नइ है।" शोले फिल्म के इस डायलॉग ने भोपाली किस्सागोई की पहचान जो दुनिया भर में कराई है, उसी मिज़ाज से बाबस्ता है, भाई संजीव परसाई की नई किताब "भोपाल टॉकीज"
भोपाल एकमात्र ऐसा शहर है। जितना आप इसके अंदर घुसेंगे। उतना ही यह आपके अंदर घुसता चला जाएगा। फिर यह आपकी बोलचाल में ।आपके मिजाज में। आपके लिबास में और आपके हिसाब में दिखने लगेगा।
इसीलिए संजीव भाई ने अपनी किताब में खुद ही लिख दिया है कि, आपके हाथ में जो किताब है। असल में यह भोपाल शहर का उधार है। हालांकि शहर ने कभी तकाजा नहीं किया । पर उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को निभाते हुए इस शहर का कर्ज शब्दों से उतारने का प्रयास किया है।
भोपाल को सबने अपने-अपने हिसाब से देखा है। राजा भोज का भोपाल अलग है। रानी कमलापति का भोपाल अलग है। केफ़ भोपाली का भोपाल अलग है। उद्धवदास मेहता का भोपाल अलग है। बशीर बद्र का भोपाल अलग है। डॉ शंकर दयाल शर्मा का भोपाल अलग है। एक शहर को देखने के कितने नजरिया हो सकते हैं, यह तो देखने वाले की नजर पर निर्भर करता है।
अगर चौक से देखा जाएगा तो भोपाल अलग दिखेगा। न्यू मार्केट से देखा जाएगा तो अलग दिखेगा। बैरागढ़ का भोपाल अलग है। तो भेल क्षेत्र का भोपाल अलग है। इतिहास का भोपाल अलग है, किस्सों का भोपाल अलग है, हकीकत तो यह है जो यहाँ रह रहा है, उसके हिस्से का भोपाल अलग है।
पर संजीव भाई ने अपनी किताब में उन सब नजरियों को एक एंगल पर लाने का प्रयास किया है। इस किताब की शब्द यात्रा करके भोपाल के तमाम नजरियों को समझा जा सकता है। यह भोपाल नवाबों का नहीं ,कमलापति का शहर है। राजा भोज का शहर है। लेकिन इस शहर की निजामत कई सालो तक नवाबों और बेगमों ने भी की है, इस बात की तारीखी पैरवी इस किताब में है।
संजीव परसाई जी , संजीव शर्मा जी, मनोज अग्रवाल जी के साथ मेरा 30 साल पुराना संबंध है। इस दौरान हम सबने मिलकर भोपाल को खूब जिया हैं। नए शहर में आशियाना होने के बाद भी पुराने शहर की गलियों में, पटियों पर, सदर मंजिल के सीडियो पर , लक्ष्मी टॉकीज की गलियों में, ताजुल मस्जिदों की सीढ़िया पर बैठकर शहर के मिजाज को जानने का लगातार प्रयास किया।
हम शहर के होते चले गए और शहर हमारे अंदर बस्ता चला गया। धीरे-धीरे हमारी जुबान में भी वह शब्द जगह बनाने लगे, जो भोपाली किस्सागोई के खास जुमले थे।
कहने को तो हर बात सामान्य है, पर बात करने का तरीका ही किस्सागोई का उस्ताद बनता है। संजीव भाई की इस किताब में इतिहास है, किस्से हैं, जानकारी है, राजनीति है, रणनीति है, भोपाली लफ़बाजी है। पर सबमें किस्सागोई का तरीका एक जैसा है।
इसलिए ऐतिहासिक घटनाएं भी आपको पढ़ने में रुचिकर लगेगी। सामान्य घटना को रुचिकर बनाने का काम ही आपकी किस्सागोई पर निर्भर करता है। मशहूर शायर वसीम बरेलवी का शेर है।
कौन सी बात, कब कैसे कही जाती है,
यह तरीका हो तो, हर बात सुनी जाती है।
संजीव भाई ने अपनी किताब को चार हिस्सों में तक़सीम है। आजादी के पहले के ऐतिहासिक तारीखों को पहले भाग में सहेजने की कोशिश की है। वहीं दूसरे भाग में आजादी के बाद की घटनाओं प्रस्तुत किया गया है। तीसरे हिस्से में भोपाली बतोलेबाजी और चौथे हिस्से में भोपाल की वर्तमान स्थिति को बखूबी बयां किया है।
मैं तो में इतना ही कह सकता हूं, हर शहर के पास अपनी संस्कृति होती है। अपनी जुबान होती है। अपनी पहचान होती है । अगर उसकी इस पहचान से बाकी जानकारी को जोड़ दिया जाए, तो संजीव परसाई की यह किताब बनती है। जिस किसी को भोपाल को जानना है। समझना है। देखना है। अपने पास संदर्भ के लिए सुरक्षित रखना है । उनके लिए यह किताब एक बेहतर दस्तावेज है।
संजीव परसाई द्वारा लिखित किताब के कई वाक़िए हम दोनों के साथ ही गुजरे हैं। भोपाल की सड़कों पर न जाने कितने सूरमा भोपाली घूम रहे हैं । जिनके पास खुद की अपनी कई कहानियां है। कुछ तो इस किताब के माध्यम से आप तक पहुंच रही हैं। कुछ अभी भी शहर की फिजाओं में घूम रही है। उम्मीद है संजीव परसाई जल्दी ही उनको सहेज कर भी सबके सामने प्रस्तुत करेंगे।
मुझे प्रसन्नता है कि संजीव परसाई में लीक से हटकर लेखन शैली को अपनाया है। यह पुस्तक ना होकर एक दस्तावेज बन गया है। पाठकों के लिए यह एक रूचिकर और संग्रहणीय पुस्तक होगी। मैं निजी तौर पर प्रसन्न हूं और श्री संजीव परसाई की दृष्टि एवं प्रयास की सराहना करता हूं ।
मेरी ओर से अशेष मंगलकामनाओं के साथ सभी से निवेदन है कि इस किताब के झरोखे से एक बार भोपाल को देखने की कोशिश जरूर करें।
संजय सक्सेना
#भोपाल_टॉकीज
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