Wednesday, March 20, 2019

रंगों का लोकतंत्र


(संजीव परसाई) भारत के लोकतंत्र को अनेकता में एकता का लोकतंत्र कहा जाता है। यहां अनेकता का अर्थ अनेक रंगों से है। सभी राजनीतिक दलों ने लोकतंत्र को अपने अपने रंग में रंग दिया है। दृश्य यह है कि देश का लोकतंत्र उघाडे़ बदन बीच सड़क में उकडू बैठा हुआ है और सारे दल अपने रंगों की बाल्टी लेकर उसपर हमला करने को तैयार हैं।
केसरिया, हरा, लाल, पीला, सफेद सबने अपनी अपनी सुविधा से इन रंगों को अपने लिए चुन लिया है। बाजार भी इन रंगों से अटा पड़ा है, होली हो या न हो ये रंग हमारे जीवन और लोकतांत्रिक संस्कृति में रमते जा रहे हैं। चुनावों में रंगों का प्रयोग भर भर कर होगा, जिससे वोटर अपने अपने पसंदीदा रंग को चुन सकें और अपने पसंद के रंग को अपने जीवन का हिस्सा बना लें। इस प्रकार मूलतः न तो यह सिद्धांतों का चुनाव है, न वादों के पूरा होने का, न कारगुजारियों पर चर्चा का। यह तो बस रंगों की मार्केटिंग का चुनाव है। नेता वोटर्स को अपने अपने रंग में रंगने को बेताब हैं। जो अपने रंग में ज्यादा लोगों को रंग सका वो जीता हुआ मान लिया जाएगा। उसे अगले पांच साल देश को अपने पसंदीदा रंग में रंगने का अधिकार संविधान से मिल जाएगा।
सारे नेता चिंतित हैं, कि इस होली कौन अपने रंग से वोटर्स को रंग सकेगा। सोशल मीडिया पर अपने रंग की बाल्टी लेकर प्यादों को खड़ा कर दिया गया है। ये प्यादे हर आने जाने वाले पर अपना रंग गुब्बारों में भर भर कर फेंक रहे हैं। जो विरोध दर्ज करे उसपर मल फेंक कर भाग रहे हैं। उसे हुरियारों की तर्ज पर गालियों की बौछार कर रहे हैं। बेचारा वोटर क्या करे, सो वो सोशल मीडिया की सड़क पर निस्पृह भाव से खड़ा होकर सभी दलों को अपने पर सारे रंगों को डालने की मौन व असहज सहमति दे देता है। वे निदृयता से उसके साथ होली खेल रहे हैं, उसे नोंच रहे हैं। अपने घर जाकर उन रंगों को घिस घिस कर निकाल रहा है। कुछ चालू वोटर भी हैं जो अपने घर से ही वैसलीन, क्रीम या तेल लगाकर निकल रहे हैं, कोई भी कोई रंग डाले उनपर चढ़ता ही नहीं है। वो सिर्फ रंगों की शिक्षा, रंगों के रोजगार, रंगों से स्वास्थ्य और गरीबी के रंगों के बारे में सोचते हैं। वे फालतू और घटिया रंगों को अपने पर चढ़ने देते हैं न ही किसी खास रंग की होली में शामिल होते हैं। हालांकि कुछ फुरसतिए जरूर हैं जो न सिर्फ रंगों की इस भचाभच में शामिल होते हैं बल्कि वे रंग में डूबकर नाचते हैं और इतराते हैं। कुछ समाचार चैनलों ने भी रंगों के लोकतंत्र की स्थापना में अपना योगदान देने का प्रण लिया है। हालांकि उनका योगदान उनको मिलने वाले गुलाबी रंग के नोटों तक ही सीमित है। वे अपनी सफलता को मिलने वाले नोट की ढेरी की उंचाई से आंकते हैं। उनका बिल्कुल सीधा फंडा है, जिसके पास गुलाबी रंग की ढे़री जितनी बड़ी होगी उसका चैनल उतना ही कलरफुल होगा, और उसकी होली उतनी ही शानदार। रंगों के प्रचार में घिसे-पिटे, हारे-थके अभिनेताओं की भी खासी भूमिका है। इन्हें भी सबसे अधिक गुलाबी रंग ही प्रभावित करता है। ये गुलाबी रंग लेकर किसी भी रंग का टवीट कर रहे हैं। जिनके आज नामलेवा नहीं बचे हैं उनके फैन क्लब सोशल मीडिया की वैतरणी में उतरा रहे हैं, और हल्के और घटिया रंग लेकर वे अपने तथाकथित फैन को रंगने के लिए बैठे हुए हैं। सारे दल इस होली पर अपने रंग को सबसे बढ़िया दिखा रहे हैं। नेताजी फागुनलाल कहते हैं कि हमारा रंग सबसे अच्छा और पक्का है, पिछले 60 सालों से आपने जो रंग लगा रखा था वो घटिया था। इसके जवाब में दूसरे कहते हैं कि हमारा रंग आसान है, जल्दी से चढ़ता है उतरने में कष्ट नहीं देता। फागुनलाल का रंग एक बार चढ़ गया तो चमड़ी लेकर ही निकलेगा। वोटर कह रहा है कि रंग भी डाल लेना कर्मजलो पहले एकाध गुझिया तो पेट में जाने दो। सारे उसपर चीख रहे हैं, अबे भुखमरे तुझे खाने की पड़ी है। अभी तो रंगों का ही मामला नहीं सुलझा है।
लोकतंत्र के इस बाजार में घटिया रंगों की भरमार है। जिनका एक बार शरीर पर लगना नासूर पालने जैसा है। नेताओं ने अपने रंगों को अच्छा दिखाने और वोटरों के अंग अंग रंगने के लिए वादों की पिचकारी भी साथ में ही देने का चलन बना लिया है। भूख और बेरोजगारी से हताश वोटर वादों की पिचकारी में रंग भरकर खुदपर ही डाले चला जा रहा है। इन रंगों में सराबोर होने से टीस कम होती है। उधर लोकतंत्र खुद के तीन रंग तलाश कर रहा है जिसमें रंगकर वो इस देश को एकाकार कर सकता था। पेड़ पर छिपकर बैठा संविधान काला रंग लेकर इन बदमाश हुरियारों को सबक सिखाने के लिए मौका देख रहा है।

(cartoon - Sabhaar Oneindia)

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