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Monday, June 23, 2025

हत्याओं की नुमाइश

पिछले महीने एक वीडियो आया था। जिसमें दिखाया गया था कि इजराइल द्वारा गजा में ध्वस्त किए गए इलाकों को इसराइली जनता के लिए पर्यटन स्थल बनाया गया है। लोग बोट में जाते हैं, और गजा के नरसंहार और बर्बादी का आनंद लेते हैं। कुछ गाइड भी हैं जो इस बर्बादी की कहानी को इजराइल की दृष्टि से रस ले लेकर सुनाते हैं। वैसा ही जैसे ब्रिटेन जलियांवाला बाग हत्याकांड के बारे में सुनाता था।
खैर हमने देश और दुनिया में कट्टरपंथ के कई रूप देखे हैं, धर्म के नाम पर हत्याएं, ऊपर वाले, परंपराओं के नाम पर लोगों को दबाना, रंग, लिंग, जाति, वर्ण के आधार पर गरीबों मजलूमों को उनके अधिकारों से वंचित करना। येन केन सत्ता प्रतिष्ठान पर आधिपत्य बनाए रखना भी इसी सोच का एक रूप है। लेकिन जो इजराइल ने गजा के साथ किया, उससे कई गुना बुरा उसने अपनी समर्थक जनता के साथ किया। आज भी जो हिटलर या इसके जैसे किसी के कारनामे सुनता है, गुस्से और दुख से भर जाता है। लेकिन इजराइल ने अपनी जनता को कौन सी घुट्टी पिलाई होगी, वो आम लोगों की मौतों पर हंस रही थी। 
विदेश नीति तो जानते समझते नहीं, लेकिन इजराइल ने कई युद्ध लड़े, कब्जे किए नरसंहार किए। उसके उलट ईरान ने पिछले बीस सालों से कोई युद्ध न किया। न ही किसी पर हमला किया। उस देश पर ईरान ने यह बहाना लेकर हमला किया कि ये मानवता का दुश्मन देश है। नेतनयाहू ने अपने देश को बर्बादी के कगार पर लाया, सत्ता से हटा न दिया जाए, इसीलिए हमास का बहाना ले गजा को निशाना बनाया। वो ईरान में सत्ता परिवर्तन की वकालत कर रहा है। ऐसे और भी उदाहरण हैं। राजा, प्रजा के बीच पिता और संतान का रिश्ता होता है। कौन पिता अपनी संतान को आतताई, क्रूर, असंवेदनशील बनाना चाहता है।

मुद्दे की बात यह है कि यह बात इजराइल की जनता को समझ में नहीं आ रही है। सत्ता की सनक, और उसे खो देने के डर से घबराए सत्ताधीश इस तरह के हथकंडे अपनाते हैं। पब्लिक मरे तो मरे, बस जलवा बना रहे। 
आज हालात बदल गए, नागरिक अपनी जान की भीख मांग रहे हैं। आखिर मांगें भी क्यों नहीं? यह सब जब रचा जा रहा था, तब सब मजे ले रहे थे। राष्ट्रवाद का चूरन जब उनको चटाया जा रहा था, तब यही लोग बीबी मेलेख, बीबी मेलेख (यानी बीबी हमारा राजा, बीबी नेतन्याहू का उपनाम है) का नारा लगा रहे थे। अब मौत सर पर है, इजराइल अमेरिका की आसपर है। 
अमेरिकी जनता अब भी युद्ध में शामिल न होने पर जोर दे रही है। जाहिर है, अमेरिकी जनता, जाहिल नहीं है।
Sanjeev Persai

Wednesday, June 11, 2025

कड़ाही में लगी सब्जी


हर भारतीय घर में कड़ाही होती है। सामान्यतौर पर उसमें या तो सब्जी बनाई जाती है, या उसमें पूरियां तली जाती हैं। पचास के आसपास के लोगों का उस कड़ाही के लिए विशेष मोह होता है। इस उम्र में प्रायः आदमी वो करना चाहता है, जो उसने बचपन में किया हो। इसे आज की भाषा में नॉस्टेलजिया कहते हैं। इस कड़ाही में पूरियां तली जाएं, तो मन खुश हो जाता है। भले ही स्वास्थ्यगत निषेधाज्ञा लागू होने से दो ही मिलें, पर संतोष तो हो ही जाता है। दूसरा इसमें बनी सब्जी निकालने के बाद उस कढ़ाई में लगे मसाले का मोह। आज भी ललचाता है। 
एक समय वो था, जब हम इसे व्यर्थ मानते थे। सब्जी खाओ, कड़ाही चाटने से क्या। ऊपर से बहनों का घर, अम्मा और बुआ कहतींं, कड़ाही में खाओगे तो शादी में पानी बरसेगा। हम सब सहम जाते, कड़ाही सरका देते। बाबूजी कहते, लाओ हमें दो, अब हमारी तो शादी हो ही गई है। हमें क्या चिंता। हम खी खी हंसते, और इस तरह वो कड़ाही उनकी हो जाती। वो उसमें एक रोटी घिसते फिर दाल डालकर पूरा मसाला बाहर कर लेते। हमारी लालच भरी नजरें मसाला सनी रोटी को ललचा रहीं होती, वो भांप जाते कहते, अरे ले ले, न गिरेगा पानी। 
अभी एक मीम आया था, जिसमें कोई कह रहा था, कि भगवान का दिया सबकुछ है घर में, पर पता नहीं कहां रखा है। बस कुछ ऐसा ही था हमारा बड़ा घर, बड़ा परिवार। शायद ही कोई दिन होता, जब घर में खाने पर कोई मेहमान न हो। कभी कभी तो कोई मिलने आता, अम्मा उसे कह देतीं, खाना खाकर जाना। हम भाई बहन बड़े हुए, कड़ाही से बाबूजी के प्रेम की बात शायद हमारे दिमाग में धुंधली भी हो। लेकिन जब चीजें जोड़ते हैं तो उसकी असली कहानी सामने आती। 
बड़ा परिवार, आन-जान लेकिन कमाई एक, वो भी सीमित। उन दिनों सबसे अधिक खाने, फिर पढ़ाई और पहनने पर खर्च होता। असल में बाबूजी पहले खाना खाते, कड़ाही का बहाना लेकर अक्सर अपनी थाली की सब्जी को यूं ही छोड़ दिया करते। सबसे बाद में अम्मा खाना खातीं, जाहिर है हर दिन उनके लिए सब्जी बचती ही नहीं थी, वो सारी सब्जी सबको मना मना खिलाती। ले लो रोटी कैसे खाएगा, दाल चावल में सब्जी मिलाकर खा ले, मजा आ जाएगा। बाबूजी सब देखते, बाद में अपनी थाली अम्मा को सरका देते कहते, अरे ये सब्जी तुम ले लो, मुझे कड़ाही दो।
वो सिर्फ कड़ाही में लगी सब्जी नहीं थी, एक प्यार था, समर्पण था। एक ऐसा भाव जिसको समझने के लिए खुद के अंदर से, पूरी ताकत लगाकर मैं को निकालना होगा। आज की पीढ़ी जो अपने प्रेम विवाह, शादी से पहले घुलने मिलने के बाद भी एक दूसरे के प्रति लगाव पैदा नहीं कर पा रही। एक वो दौर था, जब न तो पति आकर्षक होने की कोशिश में डोले बनाता था, न निकलती तोंद को रोकता, झड़ते बालों को उम्र का तकाजा मान इग्नोर कर देता। वो महिलाएं जो सजने संवरने के नाम पर तेल, कंघी, चोटी कर लेती। दिनभर जुटे रहकर भी जिम्मेदारियों से न कतरातीं। लब्बोलुआब ये कि कुछ भी तो न था, सीमित आमदनी, सीमित संसाधन और सीमित अपेक्षाएं । बस थीं तो असीमित खुशियां, असीमित प्यार, असीमित लगाव एक दूसरे से, सब से। समस्याएँ भीषण थीं, लेकिन सब अपने हाल में खुश थे, उनके पास अपने साथी से प्रेम की लाखों वजह थीं, गुस्से की सैकड़ों लेकिन नफरत की एक भी नहीं। बस यही भाव अपने बच्चों को दे सकें तो न कोई राजा होगा न कोई सोनम । 

अभी हाल में एक जून को इंटरनेशनल पेरेंटिंग डे था और पंद्रह जून को फादर्स डे है। 

बाकी जो है सो तो है ही।

जय जय....

हम दोनों एक बार मस्जिद गए थे, सो ऊपरवाले की इजाज़त से सेल्फी ले ली।



(प्रकाशन करना चाहें तो बस एक बार बता दें। कंटेंट कॉपी न करें। यहीं लिख दें या फेसबुक पर मैसेज कर दें।)

Monday, June 9, 2025

शहरों की जिम्मेदारी

फ्रांस, जर्मनी (और भी देशों होते होंगे) में सड़कों के किनारे दस बाई दस इंच के गड्ढे बने होते हैं। जिनमें अंदर एक लोहे की जालीदार बाल्टी होती है, जिसके ऊपर कास्ट आयरन की एक भारी जाली होती है। इस जुगाड़ का वैसे तो कोई काम नहीं, लेकिन जब बारिश होती है, तो सड़कों का पानी इन जालियों से निकलकर ड्रेनेज में चला जाता है। शानदार व्यवस्था है, जिसका सालभर सिर्फ रखरखाव होता है और दो तीन महीने काम आती है। हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं होता, अगर ऐसी जाली लगी होती तो चोट्टे इनको बेचकर कब का सुलोचन सूंघ लिए होते।

अपने आसपास देखो, क्या ऐसा कुछ है? शहर से बारिश का पानी निकालने के नाले हैं जिनको अतिक्रमण खा रहा है। नालों में रहवासी से दुकानदार सब इस आशा में कचरा डाल रहे हैं, कि एक दिन बारिश आएगी और सब बह जाएगा। नालियों में कचरा ठूंस कर बंद करने में हम शान समझते हैं। बमुश्किल शहरों में सीवेज लाइन डाली जा रही है, लेकिन अभागे उनको तोड़ देते हैं। मेनहोल के ढक्कन लगाते ही गायब हो रहे हैं। भोपाल की लिंक रोड, अटल पथ, वीआईपी रोड पर सुंदर बेंच लगाई, लोग उनको तोड़ दिए या उठाकर चल दिए। बाजारों में कचरा न फैले सो सुंदर से कचरे के बिंस लगे, लोगों ने उनमें आग लगा दी। पूरे शहरों गमलों में शानदार पौधे लगे, बड़े बड़े कार वाले धन्नासेठ उनको कार में धर ले गए। पत्थर की बेंच लगीं, बदमाशों ने उनको तोड़ दिया। शहरों में लगे लाइट, खंभे तक या तो तोड़ दिए जाते हैं, या निकालकर ले जाते हैं। 

हमारे बीच में कुछ लोग ऐसी हल्की सोच रखते हैं, फिर हम अपने शहर और देश की तुलना यूरोप और अमरीका के देशों से करते हैं। 

असल में विकास के दौर में हमें सिर्फ चिंता करने का काम मिला है। इसे भी हम महज खानापूर्ति जैसे कर रहे हैं। शहर घर जैसा होता है, उसे धीरे धीरे बेहतर बनाना होता है, लेकिन अगर घर के लोग ही घर में चोरी, ठगी, राहजनी, तोड़फोड़ करें, तो फिर क्या कहें..

अब शहरों की चिंता से आगे एक ऐसे भागीदारी और निगरानी के सिस्टम की जरूरत है, जिसमें शहरों के लोग ही अपने शहर को बेहतर बनाने और लोगों की सोच बदलने की दिशा में आगे आएं।
जय जय..

Friday, May 16, 2025

Exciting News about Bhopal Talkies ai

!Sanjeev Persai, a passionate storyteller and a keen observer of human nature, has just launched his latest book Bhopal Talkies.

Set against the vibrant backdrop of Bhopal, the book is a captivating collection of stories that bring alive the heart and soul of the city — its people, culture, contradictions, and charm. With rich narratives and deep emotional insight, Bhopal Talkies isn’t just a book; it’s a journey through time, memory, and meaning.

Sanjeev's ability to capture the everyday drama and humor of urban life makes this book a must-read for lovers of contemporary Indian literature.

Congratulations to Sanjeev on this wonderful milestone!
Wishing Bhopal Talkies all the success it deserves.

#BhopalTalkies #SanjeevPersai #NewBookRelease #IndianAuthors #Storytelling #Literature

Thursday, May 8, 2025

भारत माता की जय !!

पहलगाम की घटना से सुन्न पड़ा दिल दिमाग अब जाकर थोड़ा ठंडा हुआ। गमी को गमी इसीलिए बोलते हैं, क्योंकि वो इतने ग़म लाती है कि सालों कोई उबर नहीं सकता। मृत्यु परिवार, समाज को दुखी करती है। लेकिन हत्या उद्वेलित करती है। बहरहाल जो हुआ बेहतर हुआ, अभी दो चार झापड़ ही रसीद हुए हैं, लात और जूते बाकी रहे। 

हर घटना देश, समाज और सरकार को बहुत कुछ सबक देती है। बस जरूरत इस बात की है कि सब इस सबक को याद रखें। इस बार का सबसे बड़ा सबक रहा लोकतान्त्रिक आस्था। घटना की परिस्थितियां और पैटर्न ऐसा था कि पूरे देश में बवाल होना तय था। लेकिन जय हो इस देश के लोगों की, जिन्होंने अंदर से खून के आंसू रोते हुए भी वो न होने दिया, जिसकी उम्मीद दुश्मन ने की थी।
एक दूसरे का सिर फोड़ने पर उतारू राजनैतिक दलों ने साबित किया कि संकट के समय सब एक हैं। सबने सरकार को बिना शर्त समर्थन दिया, सरकार ने भी शानदार निर्णय लिए। इस दौरान किसी भी दल ने कोई नकारात्मक बातें नहीं की, अलबत्ता वे नागरिकों से धैर्य रखने और सरकार पर भरोसा करने की अपील करते रहे।

हालांकि सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने वही किया जिसके लिए वो जाना जाता है। लोगों के मन को शांत करने के बजाय, वे उन्हें उद्वेलित और बेचैन करने के प्रयास करते रहे। मनगढ़ंत खबरें, बेमतलब की बयानबाजी, निरर्थक आक्रोश पैदा करने वाले विषयों ने समाज और सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की। जबकि होना ये चाहिए था कि इस समय धैर्य रखते हुए सरकार को अपना निर्णय लेने का पूरा समय देते। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अब पेट्रोल और माचिस साथ लेकर घूमने में लज्जा आना भी बंद हो गया है।

आज मॉक ड्रिल हुई, यानी युद्ध के दौरान उपजने वाली स्थितियों से निपटने का पूर्वाभ्यास। भोपाल में यह शाम साढ़े सात से सात बयालीस तक तय थी। इस दौरान सबने जबरदस्त अनुशासन का परिचय दिया। हालांकि कोई देखने वाला नहीं था, लेकिन सबने स्वप्रेरणा से प्रोटोकॉल का पालन किया। एक बार फिर देश के लोगों ने साबित किया कि जब बात देश पर आ जाए, तो फिर किसी को कुछ कहने या सुनने की जरूरत नहीं है। शायद यही भावना स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान रही होगी, जब तिरंगे के झंडे तले लाखों लोग इकट्ठे हो जाते थे। देश के लोगों का यही भाव हमें दुनिया का महान लोकतंत्र बनाता है। 

आगे जो भी हो, सरकार, समाज और लोगों ने यह दिखा दिया है कि हमें कोई हिला भी नहीं सकता। 
हम एक थे, एक हैं और एक रहेंगे

जय हिंद, जय हिंद की सेना!!

Tuesday, May 6, 2025

मजाक मजाक की बात है

संजीव परसाई - 
एक कॉमेडियन ने नेताओं का मजाक बना दिया।  नेता के समर्थकों को गुस्सा आ गया। वे गए और स्टूडियो में तोड़ फोड़ कर दी। रिपोर्ट कर दी, बहुत बाबेला काटा। इसको देख एक पढ़ा हुआ पुराना किस्सा याद आता है, कोई शीत युद्ध के दिनों की बात है। निकिता खर्चेव सोवियत के बड़े नेता थे। एक बार वो संयुक्त राष्ट्रसंघ में भाषण देते देते भावनाओं में बह गए। बिना नाम लिए उन्होंने एक टिप्पणी कर दी। उस समय सदन में अमेरिकी राजदूत रिचर्ड निकसन (ये बाद में अमेरिका के राष्ट्रपति बने) भी थे। वे आग बबूला हो गए, और उन्होंने इसपर आपत्ति दर्ज कराई। कहा कि आप मेरे राष्ट्रपति का अपमान कर कर रहे हैं। 
खुरचेव ने कहा बदले में एक कहानी सुना दी। सोवियत में जार के समय एक आदमी ज़ार को गाली दे रहा था। पुलिसवाले ने पकड़ा तो, वो कहने लगा कि मैं तो जर्मन के ज़ार को गाली दे रहा हूं। पुलिसवाले ने कहा, मुझे घुमाओ मत, मैं भी जानता हूं, कि कौन सा ज़ार गाली खाने लायक है। तुमने हमारे ज़ार को ही गाली दी है। बाद में ये चुटकुला बन गया।
बदले दौर में ये उपमाएं स्थापित हो गई हैं। नेताओं ने इनको स्थापित करने में खासी मेहनत की है। पैसा भी लगाया है। खुद को महान और विरोधी को नीचा दिखाकर ही कोई राजनैतिक जीत तय कर सकता है। उनका नाराज होना स्वाभाविक है। उनकी मजाक कोई और क्यों उड़ाए। जबकि सबने एक दूसरे की मिट्टी पलीत करने का ठेका ले रखा हो। अब सटायर मारने के लिए किसी पॉलिटिकल पार्टी को ज्वाइन करना जरूरी है। आम लोग बस मुस्कुरा सकते हैं।
जल्दी से एक बिल लाया जाए, जिसमें किस जोक पर हंसना है, मुस्कुराना है, या बुक्का फाड़ के हंसना है। सब बताया जाए। हंसी पर टैक्स भी लगाया जाए। अब तो हाल ये है कि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भी अपने नेता की हरकतों, यानी जोक पर बुक्का फाड़कर हंसने को तैयार बैठे हैं। बस नियम न होने से हंस नहीं पा रहे हैं। सरकार को एक हंसी विभाग बनाना चाहिए, जो न सिर्फ हंसने के लिए सामग्री उपलब्ध कराए, बल्कि नजर भी रखे कौन किस बात पर और कितना हंस रहा है। 
पहले हम मजाक करते थे, मजाक सहते थे। अब तो रोज का हो गया है। हर रोज कोई न कोई मजाक कर रहा है। ऑफिस जाने के टाइम पर पुलिस मजाक करने ट्रैफिक रोक सड़क पर खड़ी होती है। अस्पताल में डॉक्टर मजाक कर रहे हैं। ट्रेन में टीसी, बस में कंडक्टर सब मजाक ही तो कर रहे हैं। स्कूल बच्चों के भविष्य से, अस्पतालों में स्वास्थ्य से मजाक ही तो चल रहा है। सरकार ने कुछ विभागों में, जहां वो खुद नहीं कर सकती, वहां ठेकेदारों को रखा है। वे पब्लिक के साथ ऐसा मजाक करते हैं, कि पब्लिक पेट पकड़ पकड़ के हंसती रहती है। सरकार ने ठेका देकर गरीबों के लिए घर बनाए। गरीब खुश हुए लेकिन हंसी न आई। जब घर में रहने पहुंचे तो सुबह शाम हंसी ही हंसी बस। बिजली का बटन दबाना, नल की टौंटी घुमाना, सीढ़ी से उतरना, दीवाल में कील ठोकना, पंखा चलाना, बिजली जलाना, बैठना, उठना जो भी करें, बस हंसी और हंसी।इन्हीं के बनाई सड़कों पर चलते हुए आदमी, कई बार लोट पोट हो जाता है। सरकारी स्कूल, कॉलेज बच्चों को हंसी हंसी में जीवन का सत्य दिखा रहे हैं।
टीवी देखने बैठो तो खबरिया चैनल इतना मजाक कर रहे हैं, कि उनके सामने कपिल शर्मा भी फेल है। इसके अलावा सरकार ने शेयर बाजार में हंसी खुशी का माहौल बना रखा है। सब्जी मंडी हो, किराने की दुकानें मॉल सामान खरीदते हुए आदमी हंसता ही रहता है। हर आदमी ऑफिस में बैठ या मजदूरी करते समय दिनभर हंसी में ही डूबा रहता है।
अब जब चारों ओर, रात दिन हंसी का माहौल बना हो। ऐसी स्थिति में और कितना मजाक चाहिए। क्योंकि मजाक मजाक में कुछ ज्यादा हो रहा है। अगर लोग इतना हंसेंगे तो कहीं उनके फेफड़े न फट जाएं। फिर सब सरकार को कोसेंगे।
जब हंसने का सामान सरकार खुद दे रही है तो इन कॉमेडियन की कोई जरूरत नहीं है। जनता की टिकट का पैसा बचेगा। सब खुश होंगे। सरकार कॉमेडी और जगहंसाई का अंतर करना सीख जाए, लोगों की जिंदगी नीरस हो जाएगी। 
व्यंग्यकारों के साथ कोई मजबूरी नहीं है, उनको डपट दो तो तो ये खेती-किसानी के जोक लिखने लगेंगे, या विपक्षी का मजाक बनाकर अपना काम चला लेंगे। इनका कोई स्टूडियो भी नहीं है, जिसको तोड़कर कोई गुस्सा निकाल सके।

Sanjeev Persai 

Monday, May 5, 2025

Sanjeev Persai - About me

Sanjeev Persai

Born: December 23, 1971
Nationality: Indian
Occupation: Social Communicator, Satirist, Author, Consultant
Notable Works: Hum Badi E Wale, Bhopal Talkies

Early Life and Education
Sanjeev Persai was born on December 23, 1971, in Pipariya, Hoshangabad district, Madhya Pradesh, India. His father Sh. Badri Prasad persai was a teacher and mother Mrs Sarla Devi was a homemaker.
He completed his primary education at Subhash Chandra Bose Vidyalay in Pipariya and pursued high school and higher secondary education at Ram Narayan Agrawal Higher Secondary School, Pipariya. He earned his bachelor's degree from Government PG College, Pipariya, affiliated with Sagar University, Madhya Pradesh, in 1989.
During his school and college years, sanjeev joined the Indian People's Theatre Association (IPTA), which nurtured his interest in literature and social issues. After graduation, he moved to Bhopal in search of employment and worked with several small firms and agencies on a freelance bases. 
During his struggle days he started to work with some NGOs in mp. This was actually a launch pad for him, to interact with the deprived population. He was closly worked with some community empowerment programs in rural areas. 

Realizing his inclination towards media and communication, he pursued a Master’s degree in Journalism and Mass Communication from Makhanlal Chaturvedi University of Journalism and Mass Communication, Bhopal. Following this, he worked with various local and national newspapers and television channels.

Career
Although he initially worked in journalism, Persai was not satisfied with the profession and shifted to the development sector. He began working with NGOs and government-supported projects, focusing on community empowerment, communication, and behavior change.

He is working with an international consulting firm called KPMG India, as a senior advisor/associate director. He has over 22 years of experience in community empowerment, he brought a wealth of expertise to the table, particularly in collaboration with governmental bodies and international organizations.His professional journey includes over 18 years of impactful work within the government sector, along with significant contributions to World Bank, DFID, IFAD, Care, and BBC Media through various community development programs.

He possess 8 years of specialized experience in government advisory roles, having partnered with esteemed organizations such as IPE Global, Grant Thornton, and KPMG. Currently, he serve as Team Leader for the Swachh Bharat Mission, urban in Madhya Pradesh with KPMG.

Tejaswini Rural Women Empowerment Project (2004-2007): Served as the State Manager for Communication and Knowledge Management, working on rural women’s empowerment through self-help groups.

Atal Bal Mission (2007-2008): Worked on malnutrition and vaccination programs in Bundelkhand with IPE Global.

CARE India & BBC Media Action (2008-2011): Served as an Interpersonal Communication Consultant for DFID’s Global Grant Project, supporting the sustainability of immunization and child healthcare in Madhya Pradesh.

Swachh Bharat Mission (2016-2020): Worked as an IEC and Behavior Change Communication Consultant for the Urban Administration and Development Department, Government of Madhya Pradesh.

Grant Thornton India (2020-2024): Served as a Senior Consultant for Social Inclusion in a World Bank-supported program in Madhya Pradesh.

KPMG India (2024-Present): Currently working as an Associate Director and Team Leader for Swachh Bharat Mission (Urban) in Madhya Pradesh.

Writing and Social Presence
Sanjeev Persai is an acclaimed writer known for his socio-political satires. He has written three books, with Hum Badi E Wale being one of the best-selling Hindi satire books. His other notable work, Bhopal Talkies, captures the essence of Bhopal’s history, love stories, and cultural narratives.

He is highly active on social media, where his sharp and thought-provoking content has earned him a loyal readership. His publisher, Lok Prakashan, describes him as a master of satire, using his writing to critique established traditions and social systems.

Personal Life
Sanjeev Persai has a son, her spouse Dr. Mona is also a writer and teacher by profession. He with his family resides in Bhopal, Madhya Pradesh.
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