(संजीव परसाई) वो कभी खुश होता है, कभी घबराता है। कभी चिल्लाता है, लेकिन कभी खामोश हो जाता है। वो जगजीत सिंह और गुलाम
अली की प्रेम की गजलें सुनता है, गंभीर हो जाता है। गोविंदा के गानों पर ठुमकता है, हनी सिंह को अपना प्रोफाइल बनाता है। वो नौकरी
ढूंढता है, उचक्कों के साथ बाइक रैली और मारा-मारी में भी शामिल होता
है। वो अपने प्यार को जताने में डरता है, लेकिन वैलेंटाइन डे पर प्रेमी जोड़ों पर पत्थर फेंकता है।
वैसे तो देश उसके लिए सबसे बड़ा है, लेकिन वो पार्टी
और उसकी विचारधारा को चुन लेता है। कल दौड़ा दौड़ा आया और कहने लगा, भैया मुझे आजकल ये क्यों लगता है कि इस देश में गृहयुद्ध
शुरू हो सकता है। ये उसका आजकल रोज का काम है, उसे कभी धर्म खतरे में लगता है, कभी
मानव जात। वो मोहल्ला, शहर, प्रदेश, देश और दुनिया के खात्मे की सम्भावना पर भी
चिंतित हो चुका है। उसे आठ सौ साल पुराने आक्रान्ताओं से अब भी डर है। इतिहास का यह दौर वो हर रोज पढता है, खुद भी
डरता है, दूसरों को भी डराता है।
जब मैंने उसे घूरकर देखा तो कहने लगा - आजकल वो हमारे ऊपर बहुत हमले कर रहे है। वो हमसे हमारा मंदिर, स्कूल, संसाधन, नेता, सरकार, सब छीन लेना चाहते हैं। भाईसाहब
कल ही बता रहे थे कि आजकल उनके साथ वो भी आ गए हैं। मैने कहा उससे कुछ भी नहीं
होने जा रहा, तुम चिंता मत करो। हमारा एक मजबूत राष्ट्र हैं, तुम चाय पियोगे। चाय और मजबूत
राष्ट्र के मेल से उसे भरोसा हो गया, ये चाय उसे प्रभावित करती है। चाय को चरणामृत और कॉफ़ी को विदेशी संस्कृति की घुसपैठ मानता है।
कच्चे राष्ट्रभक्त की ये सबसे बड़ी खासियत होती है, कि वो प्रभाव में आकर सहमत हो जाता है, कभी कभी बिदकता भी है।
अपने नेता और विचारधारा को तर्क से परे रखता है। वो विपक्ष के कुकर्मो की लिस्ट अपने मोबाइल में रखकर चलता है, व्हाट्सएप्प पर
प्राप्त हो रही सामग्री से उसे अपडेट भी करता रहता है। वो सब उसके मिसाइल हैं जो
विरोधी पर हमला करने के लिए काम आती हैं। वो दिल, जिगर और जान से लड़ता है मारता है
और मरता भी है । कच्चा राष्ट्रभक्त कई बार गच्चा
खा जाता है, वो दूसरी पार्टी के छुटभैया से कहता है, बताइये भाई साहब अब हम कर भी क्या सकते हैं। वाम पंथी
से कहता है अब आप तो सब कुछ जानते ही हैं, कोई हल निकालो। इस प्रकार से वह इन विपरीत
विचारधाराओं से आंशिक रूप से सहमत हो ही जाता है। समाजवादी को गालियाँ देता है, दूसरों
से हर काम में सुचिता की अपेक्षा रखता है।
उससे प्रायः लोगों का दर्द नहीं देखा जाता, किसान के पास
उकडू बैठकर कहता है काका चिंता न करो सब ठीक हो जायेगा, किसान उसे सूनी आँखों से
देखता है। माँ उसके भविष्य के लिए चिंतित है, वो उससे नजरों नहीं मिला पाता है।
बेरोजगार को दूकान पर बिठाकर चाय पिलाता है। जब ये अपने रौ में कोसते हैं तो पैर
से जमीन कुरेदता है और जूते की नोंक से पत्थर को जोर से ठोकर मारता है।
वो अभी कच्चा है, इसीलिए सबके भले बुरे में हामी भर लेता है, लेकिन अब उसका प्रमोशन होगा और वो एक पक्का राष्ट्रभक्त हो जायेगा। अब उसके
सामने देश सर्वोपरि है। वो देश को जगह जगह खोजता है। वो देश को खोजने पान की दूकान
पर जाता है, चंदा मांगते हुए भी वो देश को ढूंढता है। लेकिन देश नहीं मिलता। वो
सोचता है या तो देश दूर जा चुका है या वो देश से दूर आ चुका है, सो अब वो राष्ट्र
को खोजता है। कभी उसे संस्कारों में राष्ट्र दिखाई देता है, कभी उसे गोमाता में तो कभी फ़िल्मी गीतों में। वो देशभक्ति के गीतों की सीडी
लेकर आता है लेकिन मोहम्मद रफ़ी और रहमान के गीत सुनकर कन्फ्यूज हो जाता है। पशोपेश में वो भावुक हो जाता है, और पाकिस्तान कोसता है, फिर सहसा पूरा कश्मीर लेने की जिद करता है और
भारत माता की जय जोर-जोर से चिल्लाता है। फिर उसे याद
आता है कि स्वतंत्रता के लिए हुए संघर्ष में बड़ा घोटाला हुआ था, वो स्वतंत्रता
सेनानियों में मीनमेख निकलता है और अपनी डायरी में पॉइंट नोट करता है, भक्त कहने
पर खीझ जाता है।
वो अभी भी कच्चा है, क्योंकि वो व्यथित है। इन्तजार उसके संवेदना शून्य होने
का है जब उसे पक्के राष्ट्रभक्त का दर्जा मिलेगा। वो फिलहाल इस बात पर चकित है कि
वो तो राष्ट्रभक्त था, लेकिन उसकी भक्ति में राष्ट्र कहाँ है, वो राष्ट्र को खोजने
के लिए सोशल मीडिया की सवारी करता है, जोर जोर से चीखता है और पसीना पसीना होकर
स्वयं को भी खो देता है। समय उसकी मुट्ठी से रेत की तरह फिसलता जा रहा है, वो
मुट्ठियाँ जोर से भींच लेता है। खुद को जख्मी करता है और दूसरों के जख्मों पर
अट्टहास करता है। देश दूर खड़ा मुस्कुराता है और उसे गले लगाना चाहता है, वो बिना
लक्ष्य के दौड़ता जाता है।
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