Tuesday, November 7, 2017

मैं कवि और सब खामखाँ..

(संजीव परसाई) कवि, शायर हो या लेखक बहुत अच्छा लिखने वाले हों या ढेर लगाने वाले 98 प्रतिशत लोगों की हकीकत यही है कि वो उसके सहारे अपना ईगो चला सकते हैं घर नहीं। एक कवि ने गोष्टी में शानदार रचनापाठ किया, साथी कवियों ने खूब तालियाँ पीटी, कवि खुश हुआ। उसकी कविता के एक एक छंद पर साथियों के हाथ लाल हो गए। कवि रचना पाठ करके बैठ गया, अपनी उपलब्धि पर मुग्ध होने लगा। उसे बाकी कवियों को सुनने और सराहने का ख्याल ही नहीं रहा।

गोष्ठी खत्म करके अपने स्कूटर को शाही अंदाज में किक मारकर सड़क पर उतार दिया।
कवि पेट्रोल डलवाने रुका, आत्ममुग्धता में भूल गया कि पेट्रोल पैसे से डलता है और लाइन में लगना पड़ता है। चहककर बोला -लड़के जानते नहीं हम कवि हैं पहले पेट्रोल हमारी गाड़ी में डालो। लड़के ने नजरअंदाज कर दिया। कवि को बुरा लगा लेकिन वो गंभीरता के चोगे

बीबी को बताने लगा कि किस तरह आज लोगों ने उसकी रचनाओं की सराहना की। बीबी ने उसका दिल रखने के लिए सब सुन लिया। फिर अंदर जाकर थैली ले आई, बोली कपड़े बाद में बदलना पहले सब्जी लेकर आओ।  कवि सोचने लगा शायद मैने गलत महिला से शादी की है, जो कभी साहित्य चर्चा में सब्जी की थैली को घुसा देती है और साहित्य पुरुस्कार की बात पर आटे का डब्बा थमा देती है। खैर, कलेजे पर पत्थर रखकर सब्जी लेने चला गया।
सब्जी वाला अठन्नी का भी मोल भाव करने की स्थिति में नहीं था, कवि को लगा ये तो अन्याय है, उसके एक महान कवि होने की किसी को जरा भी फिक्र नहीं है। खैर वो चुप रहा, घर में आज लगातार तीसरे दिन कद्दू बना था, उसे कददू से ज्यादा उसके लाल होने पर गुस्सा आया। लाल कद्दू उसे चिढ़ा रहा था, वो उसे मारने के लिए कोने में रखे लाल झंडे का डंडा निकाल लाया। तंद्रा टूटी तो उस कद्दू का वजूद नींबू, चावल से मिलकर नेस्तनाबूत हो चुका था आखिर उसे संतोष मिला। अब उसने उसे चावल के साथ मिलाकर नेस्तनाबूत कर दिया। ठंडी आह भरी और डकार मारकर सोने चल दिया। सरकार ने उसे जीएसटी से छूट दी है, कवि के लिए डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर का भी प्रावधान होने वाला है, हर कविता के लिए मोटी रकम, लेकिन सपने भी कहीं सच होते हैं भला।
अगले दिन अखबार और सोशल मीडिया में कवि छाया हुआ था। उसे लगा अब तो लोगों को उसका महत्त्व पता चलेगा, ऑफिस पहुंचकर उसने अपनी सीट पर ताजा अखबार फैला दिए। चपरासी और साथी उसकी जयजयकार करने लगे, वो मुग्ध हो गया। मैनेजर कहने लगा यहां काम करने आते हो या पेपर पढ़ने। वो कहने लगा मैं श्रेष्ठ कवि हूँ, मुझे मेरे लायक श्रेष्ठ दर्जा चाहिए। मैनेजर ने कहा जिस काम का पैसा मिलता है, दर्जा भी उसी से तय होगा, मैं खुद हाई क्लास कवि हुँ। कवि दुखी हो गया।
अगले दिन एक गोष्ठी थी, उसकी तैयारियों में व्यस्त हो गया। आज उसे पहले से भी ज्यादा जलवा बिखेरना था। वो सुबह से ही प्रफुल्लित था। लकदक कुर्ता डाल कविताएं बांचने लगा, पर ये क्या आज तो जैसे सारे साथियों के हाथ बंधे हुए थे इक्का-दुक्का वाह और चंद तालियाँ ही उसके हिस्से में आईं।  अब वो वाकई दुखी हो गया। उजड़े चमन की तरह बैठकर गोष्ठी खत्म होने का इंतजार करने लगा। कवि जो या लेखक दोनों में कॉमन ये है कि वो दाद और सराहना के लिए लार टपकाता है लेकिन दाद देने या सराहना करने में आलोचक हो जाता है। उसका मन की बात जान, साथी कवि कान में फुसफुसाने लगा, ये कायदा है कि जब हम एक दूसरे की सराहना करें, लेकिन कुछ लोग भूल जाते हैं। उनको याद दिलाना जरूरी है। अब हमारी रचनाओं पर दाद देने क्या वो पेट्रोल पंप वाला या सब्जी वाला आएगा, हैं जी।

कवि अचानक बुद्ध हो गया, ज्ञान से लबालब होकर सीधे पेट्रोल पंप पर लाइन में लगा, फिर घर से थैली लेकर सब्जी लाया और अब उसे कददू पर प्यार आ रहा था। लगातार चौथे दिन इसे कददू खाकर भी वो तृप्त था। अब वो दो भागों में बंट रहा था एक दिल बहलाने के लिए दूसरा पेट भरने के लिए।

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Sanjeev Persai

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