Thursday, September 21, 2017

फटे जूते और बीड़ी का साहित्य में स्थान

(संजीव परसाई)  डिप्टी डायरेक्टर रामलखन रिटायरमेंट के बाद खुद को साहित्य के दंगल में झोंकने को उद्यत थे. उन्हें नौकरी में लिखी नोटशीट और साहित्य लेखन में कुछ ख़ास अंतर नहीं समझ में आया. किसी की सलाह पर सिगरेट छोड़ कर बीड़ी पीने लगे और पैरों में फटे जूते डाल साहित्य गोष्ठियों में इठलाने लगे. नोटशीटनुमा साहित्य का जोर शोर से सृजन होने लगा. हर रचना मेरे अभिमत से शुरू होकर पाठकों के अवलोकनार्थ और अनुमोदनार्थ पर ख़त्म होती.
फटे जूते और बीड़ी हिंदी साहित्य के यादगार प्रतीक हैं, जो इसकी दशा को व्यक्त करने के लिए काफी है. आधुनिक हिंदी साहित्यकार, प्रेमचंद की फटे जूते पहने वाली और मुक्तिबोध की बीडी पीते हुए तस्वीर अपने ड्राइंग रूम में जरुर सजाते हैं. समझ में नहीं आता कि ये दोनों तस्वीरें लेखन के लिए माहौल बनाती हैं या चेतावनी देती हैं कि अभी भी समय है बच सके तो बच ले.
सरकारें साहित्य और साहित्यकारों को गंभीरता से लेने के लिए बाध्य नहीं हैं. कमी ढूंढने वाले कहते रहते हैं कि सरकार बजट में भी साहित्यकारों के लिए कोई प्रावधान नहीं करती है. पूरा बजट छान मारा लेकिन उसमें साहित्य प्रेम कहीं नहीं मिला. अंग्रेजी के साहित्यकार एलीट क्लास को प्राप्त हो गए हैं वो अपना सामान दूसरे देशों में भी खपा कर खुद को सेलेब्रिटी घोषित करवा लेते हैं. प्रकाशक, लेखकों से एडवांस पेमेंट लेकर किताबें छाप रहे हैं.  हिंदी और क्षेत्रीय भाषा के साहित्यकारों को यह सुविधा प्राप्त नहीं है. वे अपने अछे भले साहित्य को लेकर प्रकाशक के दरवाजे पर बैठे हैं. अब वे सरकार से बीपीएल कार्ड देने की मांग कर सकते हैं. कुछ दिन में साहित्य रचना पार्ट टाइम काम होने वाला है. लोग दफ्तरों, दुकानों में बैठकर या बचे समय में घर के कामों से बचकर साहित्य की रचना करेंगे और बीबी और बॉस के ताने सुनेंगे. लोग इसके भी तरफदार हैं कि साहित्य रचना फुल टाइम काम नहीं होना चाहिए. प्रेमचंद खुद कुल जमा 56 साल का जीवन जिए. जिसमें से 16 साल उनके निकाल दें तो बचे कुल 40 साल उन्होंने अपने जीवन काल में 16 उपन्यास सहित डेढ़ सौ से अधिक छोटी बड़ी रचनाएँ लिखीं. अपने जीवनकाल में हर साल तीन-चार सौ पेज लिखे होंगे और साथ में नौकरी भी की, बीमार भी पड़े और बाकी सब दुसरे काम भी किये होंगे. वो भी तब जब न तो घोस्ट राइटर हुआ करते थे न ही कंप्यूटर, सब कुछ हाथ से. ये बात अलग है कि इस दौरान न तो उन्हें कहीं भाषण देने का मौका मिला, न फीता काटने का और न ही किसी चैनल पर चर्चा की न फेसबुक पर भाड़ झोंकी, बस लिखते ही गए.
आज का साहित्यकार आधुनिकतावादी हो गया है, वो सरकारी किरपा की जुगाड़ में मंत्रालय और महानुभावों के द्वारे टहलता रहता है. ड्राइंग रूम मुक्तिबोध की फोटो टांग कर लिखता है और खुद के घटिया लेखन पर चाँद की तरह मुंह टेढ़ा कर लेता है. खिड़की हरियाली की ओर खुलना चाहिए, लेकिन फिर खिड़की की ओर पीठ करके बैठता है, उसे उजाला चुभता है. अपनी टेबल पर व्हिस्की की चुस्की के साथ सर्वहारा वर्ग की दुर्दशा पर उपन्यास का प्लाट बना रहा है. अब विचार नहीं विचारधारा का साहित्य लिखने का चलन है. सोशल मीडिया इस साहित्य की खुली मंडी हो चला है, अब पढने के पहले तस्दीक करना पड़ता है कि वेज है या नॉनवेज. हालात ये ही रहे तो साहित्य का कूड़ा हटाने के लिए भी एक स्वच्छता अभियान चलाना पड़ेगा. नोटबंदी और जीएसटी पर लोगों को उम्मीद थी कि ये जरुर चें-चें करेंगे. लेकिन वे मुंह में दही जमा के बैठ गए. इनकी चुप्पी से ट्रोल सम्प्रदाय निराश हो गया, वो चिंता में है कि अब गालियां देकर किसे देश से बाहर निकलने का फतवा जारी करेगा, हुआ और बाकियों ने चैन की सांस ली.
रामलखन चौराहे पर पान की दूकान पर रोज जाकर बैठते हैं, और लिखने के लिए नए-नए विषय तलाशते हैं, लिखते तो विचार हैं, पर विचारधारा दिखाई देती है. उनका लक्ष्य है कि उनकी कहानियों या उपन्यास पर एक दो फिल्म बन जाएँ फिर वो भी कामेडी नाइट्स जैसे हल्के ठिकानों पर बैठकर चुटकुले सुनायेंगे, भांड की तरह नाचेंगे, और विदेशी व्हिस्की की आहिस्ता से चुस्कियां लेंगे. मुक्तिबोध की बीड़ी पीते हुए तस्वीर देखकर उनको लगा की उन्होंने पूरी जिन्दगी सिर्फ बीड़ी पी है. आज के कई साहित्यकार इस बीड़ी पीते हुए महान लेखक की फोटो अपने ड्राइंग रूम में सजाकर महान बन रहे हैं. रामलखन ने फेसबुक पर तुरंत अपडेट किया कि सरकार ने बीड़ी पर कोई टैक्स नहीं लगाया है, ये सरकार की साहित्य के प्रति सहृदयता को प्रदर्शित करता है.

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