Sunday, March 5, 2017

फूले पेट - फूले दिमाग

(संजीव परसाई) समाज विज्ञानी कहते रहे हैं कि अगर देश को आगे ले जाना है तो बच्चों के पोषण और शिक्षा पर पूरा ध्यान देना होगा।  गूढ़ार्थ यह है कि फूले पेट और फूले दिमागों से न देश बनता है न समाज। जिनको कहना था, वो तो कहकर चले गए, पर देश तो सरकार को चलाना है। आज देश में अगर कोई सबसे ज्यादा व्यस्त सरकारी महकमा है तो वे ये शिक्षा और पोषण ही हैं। इससे ये अंदाजा मत लगाना कि देश में शिक्षा और पोषण का स्तर सुधार पर है। शिक्षा के लिए जिम्मेदार शिक्षक और पोषण के लिए जिम्मेदार आंगनवाड़ी कार्यकर्ता सबसे अधिक व्यस्त हैं। मजे की बात तो ये है कि ये अपने मूल काम के अलावा सारे काम करते हैं।
दूसरे विभागों की योजनाओं का क्रियान्वयन करवाने, अजीबोगरीब सर्वे से लेकर जनधन खाते खुलवाने तक का काम आंगनवाड़ी कार्यकर्ता से करवाए जाने की परंपरा है। उसपर विभाग कुपोषण के लिए इनको ही डांटता है। राज्यों में कुपोषण की सांप सीढ़ी चल रही है, कभी कोई ऊपर तो कभी कोई नीचे। कुछ सरकारों ने अपने लिए कुपोषण के स्थाई प्रमाणपत्र बनवा के रखे हैं। नवजात बच्चों का मरना अब सरकार और समाज के लिए आम घटना हो गयी है। अगर हफ्ते भर कुपोषित बच्चों के मरने की खबर न आए तो महकमा और सरकार जश्न मनाने लगता है। बड़े बड़े ठेकेदार पोषण आहार की चिंता में घुले जा रहे हैं। चवन्नी भर पोषण से कुपोषण की जंग लड़ी जा रही है, दूसरी ओर एक वर्ग अतिपोषण का शिकार होकर चिंतित हैं।

सरकारी शिक्षकों को दूसरे ढेरों काम में लगाना सरकार के शौक में शुमार है। कहते हैं अच्छा छात्र वो है जो शिक्षक होकर सोचे और अच्छा शिक्षक वो है को जीवनभर छात्र बना रहे। यहाँ शिक्षक के पास पढ़ने-पढ़ाने के अलावा क्लर्की से लेकर घर घर घूमने के कई काम थोप दिए गए हैं। अब जो समय बचता है, उसमें वो बस गहरी सांस ही लेता है। शिक्षा का जितना कबाड़ा मैकाले ने नहीं किया होगा, उससे अधिक शिक्षा तंत्र को चलाने वालों ने कर दिया। अब हमारा लक्ष्य प्लास्टिक के नागरिक सृजित करना होना चाहिए। शिक्षकों ने इस देश में गुरुदेव से लेकर शिक्षा कर्मी तक का सफर तय किया है। आज वे आदरणीय गुरूजी से सुन बे मास्टर तक खींचकर पटक दिए गए हैं, अब आगे कुछ बचा नहीं है सो इससे नीचे जाने की संभावनाएं नगण्य हैं। अब सरकार स्कूलों में सड़क पर घूम रहे स्वयंभू ज्ञानियों को ठेल रही है। सरकार समझती है कि शिक्षक तो कोई भी हो सकता है। शिक्षकों की जरुरत ख़त्म हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। अगर ऐसा होता है तो सरकार कई झंझटों से मुक्त हो जायेगी। जब शिक्षा ही न होगी तो सिर्फ कर्मी से काम चल जायेगा। फिर ये नाम के शिक्षक, नेताओं अफसरों की गालियाँ भी ख़ुशी से सुन लेंगे। सरकार चाहे तो इस पद पर हम्मालों और तुलावटियों की नियुक्ति कर सकती है। आला अधिकारी गाहे-बेगाहे मान लेते हैं कि शिक्षक स्तरीय नहीं हैं, दरअसल शिक्षकों के गुरुत्व को जड़त्व में लाने वाले भी वे ही हैं। तभी वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाते हैं। सरकारी स्कूल तो गरीबों और भिखमंगों के लिए हैं मंत्रियों और आला अफसरों के बच्चे तो सुरम्य वादियों में बने अंग्रेजी स्पीकिंग स्कूलों में पढ़ते हैं। सही भी है देश के हर बच्चे को अफसर और नेता थोड़ी बनना है, कुछ प्रजा होने के लिए भी तो होना चाहिए।
अब आप पोषण और शिक्षा में गुणवत्ता की उम्मीद करते हैं। असल में ये दोनों प्रतियोगिता में हैं कि कौन अधिक फूले पेट तैयार करता है और कौन फुले हुए दिमाग। जो तंदरुस्त रहकर अच्छी शिक्षा लेंगे वो विकास की बुलेट ट्रेन में बैठेंगे, जिनसे न हो पाया उनके लिए बस और ट्रेन का सामान्य दर्जा तो है ही।

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