(संजीव परसाई) आजकल देश के प्रति चिंता दिखाने का रिवाज है, सो मैं नियमित चिंतन करता हूँ। असल में इस देश में अब तक देश की समस्याओं पर चिंता करने का रिवाज था। हम सब समय रहते समझ गए की इन समस्याओं का तो कुछ होना नहीं है, सो चिन्ता देश की करो। सब देश के पीछे पड़ गए, अब जो समस्याओं की बात करेगा उसे बाहर का रास्ता दिखाओ।
चलो.. आगे चलो भाई...समर्थन में या डर में देश की चिंता चहुँ ओर की जाने लगी।
नेताओं के भाषणों में देश चिंता को बढ़ा-चढ़ा कर उठाया जाने लगा। वे अब अपेक्षाकृत सुरक्षित महसूस करने लगे। उनके आत्मविश्वास का आलम ये कि एक बार हल्कू किसान अपनी बर्बाद फसल का रोना रोने आया तो, नेताजी ने उसे उल्टा ठाँस दिया। अरे मूढ़मति एक तो तूने देश का नुस्कान कर दिया और यहाँ छाती पीट रहा है। देश को देख और लग जा दुबारा, देश के निर्माण में।
चल अपना काम कर......हल्कू नेताजी की बात को दिल पर लेकर अगली फसल के लिए कर्ज लेने साहूकार के दरवाजे पर जा पहुंचा।
अब वो समय आ गया है जब बेरोजगार, महिलाएं, दलित, पिछड़े, आदिवासियों को अपनी समस्याएं भूलकर से देश के बारे में सोचना चाहिए। उन्हें खुद के पेट में रोटी ठूसने के बारे में सोचने के बजाय देश की जीडीपी बढ़ाने के उपायों के बारे में सोचना चाहिए। खाते खाते तो सालों हो गए, अब सरकार द्वारा खुलवाये खातों में पैसे डालने के बारे में भी सोचना चाहिए।
क्यों, तुम्हारी समझ में नहीं आया क्या अब तक कि देश वो है जिसका विकास करना है, बाकी सब जिम्मेदारियां हैं।
असल में अब सबको समझना चाहिए कि हम वोट देकर अपने लिए एक नया बॉस चुनते हैं, जो पांच साल तक हमको समझाता है कि जो चल रहा है, वही श्रेष्ठ है। वो हमारी समस्याओं के लिए हमें ही जिम्मेदार साबित करता है ।खुशहाली और मुस्कुराते चेहरे बने रहें उसके लिए वह विरोधियों पर चुटकुले सुनाता है, कोई रोता है तो उसे गुदगुदाता है। जब लोग रोते-रोते हँसते हैं, तब बॉस उछल जाते हैं।
क्यों बे तू अभी तक यहीं खड़ा है, तब आकाशवाणी होती है कि बाकी तो सब ठीक है, पर कुछ ऋणात्मक सोच के लोगों को ही समस्या है।
मध्यम वर्ग अपनी समस्याएं किसी से नहीं दिखाता, और ऊपर से सुखी दिखने का ढोंग करता है। रंग-रोगन से वो अपनी परेशानियों को ढांक लेता है। आजकल मुस्कराहट ऑनलाइन मिल रही है, वो अपने परिवार में सारे सदस्यों के लिए खरीद लेता है, और वे घर से निकलने पर वो मुस्कराहट अपने चेहरे पर लगा लेते हैं। ऑनलाइन मिली इस मुस्कराहट लगाकर सेल्फी अच्छी आती है, वो गदगद हो जाता है। सब ताली बजाते हैं , देश आनंद में है। वो खुद को देश समझता है, सब्जी वाले से झगड़ कर दस-बीस रुपए कम करवा लेता है, किराने वाले से उसके फायदे में से डिस्काउंट की मांग करता है, घर में आने वाले प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन, माली, झाड़ू-पोंछा, भोजन वाले सब से पैसे को लेकर झिक-झिक करता है । इस प्रकार महीने में हजार-आठ सौ रुपए का योगदान देश के लिए देता है। चुप...बिलकुल चुप..अब आवाज नहीं आना चाहिए।
रात टीवी पर प्रधानमंत्री गरज रहे थे। भ्रष्टाचारियों को नहीं छोडूंगा, सो खुद को भ्रष्टाचारी मानने लगा। अपने किए भ्रष्टाचार की लिस्ट बनाने बैठ गया। जब लिस्ट लंबी होने लगी तो घबरा कर उसे फाड़ कर फेंक दिया। सोया तो सपने में देश आया। पूछने लगा - कैसा है बे? आजकल देश ऐसे ही बात करता है। मैंने कहा- रीढ़ की हड्डी टूटी है, बहुत दर्द है कहकर रोने लगा। कहने लगा- देख रीढ़ तेरी और मेरी दोनों की टूटी है। लेकिन अंतर देख तू बिस्तर पर पड़ा रो रहा है और लेकिन मैं न तो रो सकता हूँ न बिस्तर पर पड़ा रह सकता हूँ सो अब भी लगातार दौड़ रहा हूँ। मेरा दर्द जाता रहा अब पहले से बेहतर महसूस कर रहा हूँ।
चलो.. आगे चलो भाई...समर्थन में या डर में देश की चिंता चहुँ ओर की जाने लगी।
नेताओं के भाषणों में देश चिंता को बढ़ा-चढ़ा कर उठाया जाने लगा। वे अब अपेक्षाकृत सुरक्षित महसूस करने लगे। उनके आत्मविश्वास का आलम ये कि एक बार हल्कू किसान अपनी बर्बाद फसल का रोना रोने आया तो, नेताजी ने उसे उल्टा ठाँस दिया। अरे मूढ़मति एक तो तूने देश का नुस्कान कर दिया और यहाँ छाती पीट रहा है। देश को देख और लग जा दुबारा, देश के निर्माण में।
चल अपना काम कर......हल्कू नेताजी की बात को दिल पर लेकर अगली फसल के लिए कर्ज लेने साहूकार के दरवाजे पर जा पहुंचा।
अब वो समय आ गया है जब बेरोजगार, महिलाएं, दलित, पिछड़े, आदिवासियों को अपनी समस्याएं भूलकर से देश के बारे में सोचना चाहिए। उन्हें खुद के पेट में रोटी ठूसने के बारे में सोचने के बजाय देश की जीडीपी बढ़ाने के उपायों के बारे में सोचना चाहिए। खाते खाते तो सालों हो गए, अब सरकार द्वारा खुलवाये खातों में पैसे डालने के बारे में भी सोचना चाहिए।
क्यों, तुम्हारी समझ में नहीं आया क्या अब तक कि देश वो है जिसका विकास करना है, बाकी सब जिम्मेदारियां हैं।
असल में अब सबको समझना चाहिए कि हम वोट देकर अपने लिए एक नया बॉस चुनते हैं, जो पांच साल तक हमको समझाता है कि जो चल रहा है, वही श्रेष्ठ है। वो हमारी समस्याओं के लिए हमें ही जिम्मेदार साबित करता है ।खुशहाली और मुस्कुराते चेहरे बने रहें उसके लिए वह विरोधियों पर चुटकुले सुनाता है, कोई रोता है तो उसे गुदगुदाता है। जब लोग रोते-रोते हँसते हैं, तब बॉस उछल जाते हैं।
क्यों बे तू अभी तक यहीं खड़ा है, तब आकाशवाणी होती है कि बाकी तो सब ठीक है, पर कुछ ऋणात्मक सोच के लोगों को ही समस्या है।
मध्यम वर्ग अपनी समस्याएं किसी से नहीं दिखाता, और ऊपर से सुखी दिखने का ढोंग करता है। रंग-रोगन से वो अपनी परेशानियों को ढांक लेता है। आजकल मुस्कराहट ऑनलाइन मिल रही है, वो अपने परिवार में सारे सदस्यों के लिए खरीद लेता है, और वे घर से निकलने पर वो मुस्कराहट अपने चेहरे पर लगा लेते हैं। ऑनलाइन मिली इस मुस्कराहट लगाकर सेल्फी अच्छी आती है, वो गदगद हो जाता है। सब ताली बजाते हैं , देश आनंद में है। वो खुद को देश समझता है, सब्जी वाले से झगड़ कर दस-बीस रुपए कम करवा लेता है, किराने वाले से उसके फायदे में से डिस्काउंट की मांग करता है, घर में आने वाले प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन, माली, झाड़ू-पोंछा, भोजन वाले सब से पैसे को लेकर झिक-झिक करता है । इस प्रकार महीने में हजार-आठ सौ रुपए का योगदान देश के लिए देता है। चुप...बिलकुल चुप..अब आवाज नहीं आना चाहिए।
रात टीवी पर प्रधानमंत्री गरज रहे थे। भ्रष्टाचारियों को नहीं छोडूंगा, सो खुद को भ्रष्टाचारी मानने लगा। अपने किए भ्रष्टाचार की लिस्ट बनाने बैठ गया। जब लिस्ट लंबी होने लगी तो घबरा कर उसे फाड़ कर फेंक दिया। सोया तो सपने में देश आया। पूछने लगा - कैसा है बे? आजकल देश ऐसे ही बात करता है। मैंने कहा- रीढ़ की हड्डी टूटी है, बहुत दर्द है कहकर रोने लगा। कहने लगा- देख रीढ़ तेरी और मेरी दोनों की टूटी है। लेकिन अंतर देख तू बिस्तर पर पड़ा रो रहा है और लेकिन मैं न तो रो सकता हूँ न बिस्तर पर पड़ा रह सकता हूँ सो अब भी लगातार दौड़ रहा हूँ। मेरा दर्द जाता रहा अब पहले से बेहतर महसूस कर रहा हूँ।
2 comments:
उम्दा चिंतन कर रहे हो , भाई / आपातकाल के दौरान , दुश्यंत कुमार जी के द्वारा देश की तत्कालीन पर्स्थितियों पर कहा गया शेर याद आ गया / " कल नुमाइश में मिला वो चिथडे पहने हुए , नाम पुछा तो बोला कि हिंदुस्तान हुं" / भाई मेरे कछु रहम करो , तुम बडी बेदर्दी से " देश " के चीथडे -पे -चीथडे उडाए जा रहो हो /
Ho kahin bhi aag lekin, aag jaldi chahiye...
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