Wednesday, November 2, 2016

किस्म-किस्म के खूंटे...

(संजीव परसाई) एक बड़े राजनीतिक दल का एक छोटा कार्यकर्ता अक्सर मेरे पास आता था। उसका लक्ष्य अपने अतिरिक्त समय के जरिए मेरा मूल्यवान समय खराब करना होता है। हमसे राजनीती में आगे बढ़ने के लिए सलाह मांग रहा था, सो एक दोहा सुनाया -

चलती चाकी देख के, हंसा कमाल ठठाय  ।
जो खूँटे से लग रहा, कबहूँ न पिसा जाए   ।।

इस दोहे को समझने के बाद उसकी सत्ता में पूछ-परख क्या बढ़ी वह हमें गुरू मान बैठा। उसके अपने खूँटे, जिन्हें वह भाईसाब कहकर संबोधित करता था, के प्रति अगाध श्रृद्धा थी। सत्ता की धुरी से चिपक कर रहने की कला वह समझ चुका था। सो अल सुबह तैयार होकर झक्क कुरता पहन भाई साब के दरबार में जाता. भाई साब को बाहर  का पानी भी न पीने देता, अपने साथ आरओ का पानी हमेशा रखता और उनसे एक कदम पीछे चलता. प्रतिदिन भाईसाब के अंदाज की फटे तक तारीफ़ करना, उनके स्टाइल पर मर मिटना, उनके मनगढंत किस्सों को चबा-चबाकर सुनाना उसका रोज का काम था। इन शार्ट वो समझ गया था कि इस बड़े खूंटे के सहारे एक दिन वह भी खूंटा समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा.

भारतीय राजनीति में खूंटों का बड़ा महत्व है. राजनैतिक आका खूंटों को खास तबज्जो देते हैं, ताकि  उनके सहारे बेकाबू कार्यकर्ताओं की रास बाँधी जा सके. हर दल के अपने अपने खूंटे हैं, कोई बड़ा है तो कोई छोटा है, लेकिन हर अपने आप में विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण है. मेरे मोहल्ले में एक खूंटा रहता है सुबह से दो अखबार और दो कुर्सी लेकर बैठ जाता, अखबार के बगल से झाँक कर खाली पड़ी कुर्सी को देखता, हर आने जाने वाला व्यक्ति उसे नमस्कार करता हुआ सा प्रतीत होता. चाय का लोभ दिखाकर कुर्सी पर लोगों को बिठाता है, फिर अपनी रसूखगाथा सुनाता.

भारतीय राजनीति में खूंटा संस्कृति प्राचीन काल से है, सबसे बड़े खूंटे स्वतंत्रता सेनानी थे, जो पूरे देश की रास मजबूती से बांधे रखते थे, वो मजबूत होने के साथ गहरे तक गड़े होते थे. आज के खूंटे चाइनीज हैं, जो न तो मजबूत हैं न ही गहरे तक होते है. कमजोर इतने की जरा से जोर से चूर चूर हो जाते हैं और उथले इतने की हलके से झटके से निकल कर बाहर हो जाते हैं. धन-दौलत वाले अपने से कमजोर और दीनहीन कार्यकर्ताओं की रास बांधते हैं. जिनके पास चार पैसे आ जाते हैं वो खुद खूंटा बनने की दौड़ में लग जाते है.
कुछ खूंटे विश्वसनीय होने के कारण सालों साल चलते हैं, भारतीय राजनीती में अदला बदली का भी रिवाज है. चुनाव के वक्त अपने बंधे बंधाये कार्यकर्ताओं के साथ दल-बदल कर लेते हैं. ये खरीदने-बिकने को भी तत्पर होते हैं. ये राजनीति के स्थानीय डीलर सरीखे होते हैं.  ये भाई साहब, दाऊ साहब, दद्दा, चाचा जी, बाबूजी आदि नामों से जाने जाते हैं. पुराने राजा रजवाड़े स्थापित खूंटे हैं जो पीढ़ियों से रास थामें बैठे हैं लोग उन्हें राजा साहब, हुजुर, दरबार साहब आदि नामों से पुकारते है.
राजधानी में खूंटों के डीलर होते है, उनके एजेंट कस्बे से गाँव तक फैले हैं. ये अपने ऊपर कोई रंग नहीं चढाते ग्राहक की मांग और जरुरत के हिसाब से माल तैयार करते हैं. बदलते हुए राजनैतिक वातावरण में इन खूंटों की जरुरत बढ़ती जा रही है, अब राजनीति से इतर इनके कई उपयोग हैं. धरना प्रदर्शन से लेकर सोशल मीडिया कैम्पेन तक चला सकते है. किसी फिल्म का विरोध कराना हो, कालिख फिकवाना हो, देशद्रोही कहलवाना हो, पुतले जलवाना हो, घर पर हमला करवाना हो, पाकिस्तान को कोसना हो, आदि कामों के लिए ये खूंटे हमेशा तैयार होते है. खूंटों की काबिलियत के अनुसार उनका प्रमोशन भी होता है. वे बड़े खूंटे बनकर राजनीति को सुशोभित कर सकते हैं या फिर किसी नेता के घर पर दीवार की खूंटी बनकर अपना परलोक सुधार सकते हैं.

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