Wednesday, December 28, 2016

क्योंकि अब सबको बेस पसंद है....

(संजीव परसाई) बदलाव की बयार बह रही थी, वो सब बदलाव की ओर टकटकी लगा कर बैठे हुए थे. लोगों को उम्मीद थी की अब उनके नलों में भी पानी आएगा, उनके बच्चों को भी नौकरी मिलेगी, अब कोई किसान आत्महत्या नहीं करेगा कोई मजदूर भूखा नहीं सोयेगा. लेकिन लगातार एक तरफ देखते रहो तो आँखें गीली हो जाती हैं, राजनीतिक विवेचना के अनुसार इसे रोना नहीं कहते. रोना तो तब होता है जब वो आंसू कलेजे से निकल आँखों के रास्ते ठुड्डी से टपकें.

उधर भक्त इन हालातों पर व्यथित था, उसे समझ में नहीं आ रहा था की उसकी प्रतिक्रिया क्या होना चाहिए. हँसे, रोये की ढाढ़स बंधाये. कभी चिंतित होता, कभी खुश होता कभी भाड़ में जाओ बुदबुदाता. लोग उसे भक्त कहकर ताना मारते सो असमंजस में रहता.

पिछली सरकार के जमाने में भी तो भक्त हुआ करते थे, आम भाषा में उसे चमचा कहा जाता था, ठीक उसी प्रकार आज के भक्त हैं. सो अंतर क्या हुआ....दरअसल इन दोनों में एक मूल अंतर है, पिछली सरकार का भक्त शातिर था. किसकी, कब और कितनी बार जय बोलना है उसका हिसाब रखता था. वह अच्छे बुरे को समझता है लेकिन करता वही था जिसमें उसका निजी फायदा हो. अपने फायदे और भविष्य की खासी फ़िक्र करता था. आज उन भक्तों की एक बड़ी जमात पेट्रोल पम्प, सरकारी जमीनें, ठेके, सप्लाई से लेकर राशन की दुकानों को कब्जाए बैठी है.

आज का भक्त भावनात्मक लट्ठ को लेकर चलता है. अपने नेता या पार्टी के विचार से असहमत लोगों के सिर पर या तो जमकर प्रहार करता है या फिर उस लट्ठ से अपने सर को ही धुनता है. उनके नेता जोर से चिल्लाते हैं कि देखो फलां पार्टी ने देश को बरबाद कर दिया. भक्त इस बात को आगे बढाता है की हमारी सरकार आने के पहले देश में नागरिक पत्ते पहनकर घूम रहे थे और कंदमूल फल इत्यादि खाकर अपना गुजारा चला रहे थे.

तो क्या हम सब साठ सालों तक मूर्ख थे? वो चिढ जाता है – अब अगर हाँ बोलूँगा तो आप कहेंगे कि आप हमें मूर्ख कह रहे हैं. लेकिन ऑफ़ दि रिकार्ड ये बात सही है. अपने माथे पर बल लाकर कहता है कि अब तुम लोग समझदार हो गए हो, सो निर्णय सही लिया है. इस प्रकार सच्चे अर्थों में लोकतंत्र की स्थापना तो अब हुई है, जो तुमने हमें चुना है. लेकिन तुम ऑफ़ दि रिकार्ड बहुत बात करते हो. भक्त गुस्सा हो जाता है कि आखिर लोग उसकी बातों पर भरोसा क्यों नहीं करते।

वो अपने मैले-कुचैले दामन से अपनी पनीली आँखें पोंछता है, और ऊँगली फेरकर तस्दीक करता है की कहीं आँखों में कीचड़ तो नहीं आ गया. टकटकी से आँखें फिर पनीली हो जाती हैं. उसे समझाया जा रहा है कि अब देश में सब कुछ अच्छा होगा. वो सवाल करता है कि – जैसे? सो भक्त सो भक्त उसे डांटता है – तू जानता क्या है, अभी सरकार जानती है कि तुम्हारे लिए क्या सही है. अब बदलाव होगा सब कुछ बदल जायेगा. ये हाईवे, बुलेट ट्रेन, डिजिटल प्लेटफार्म जो बन रहे हैं उनपर क्या सरकार बैठेगी. वो सब तेरे लिए हैं. वो खखार के पूछता है कि साहब, कहो तो खेत जाऊं, पानी देने का समय हो गया है. भक्त अब क्रोध को दबाते हुए कहता है कहाँ खेती किसानी के चक्कर में लगे हो, जमीं बेचकर कोई धंधा करो, इस खेती किसानी में आजकल धरा ही क्या है? बताओ मैं क्या गलत कह रहा हूँ.... भक्त समझाता भी है, देखो बाबा, ज़माना बदल गया है पांच हजार खर्च करके स्मार्ट फोन ले और डिजिटली अच्छे दिन देख.
चारों ओर सजे मंचों से आवाजें आती है, हम तुझे रोटी देंगे, हम तुझे मकान देंगे, कोई इलाज तो कोई बर्तन-भांडे, कोई बच्चों के लिए शिक्षा, कोई किसान की तो कोई युवाओं की तरक्की की गारंटी देता, कोई सड़कें देता, कोई उद्योग देता, हर किसी के पास दूसरे से बेहतर ऑफर था।
यह सब सुनकर भी वो बस टकटकी लगाकर देखता रहता है, भक्त खीझता है, आखिर तू, बोलता क्यों नहीं बे, लोकतंत्र है इस देश में, सबको बोलने का हक है। देख मैं बोल रहा हूँ कि नहीं। कलेजे से निकले पानी को वो अंगोछे से पोंछता है। अब वो पानी उसके चेहरे की झुर्रियों से होकर ठुड्डी की ओर बहने लगा था। वो जानता था ये अगर सबकुछ उसके लिए होता तो अभी मेरी आँखों में मोतियाबिंद की जगह चमक होती। उसने वो खेल खूब देखा है जिसमें सांप-नेवले की लड़ाई का वादा अंत तक किया जाता है लेकिन वह कभी नहीं होती। हर एक उसके सिर पर पैर रखके शिखर पर बैठना चाहता है, क्योंकि वहां साफ़, शुद्ध और शीतल हवा होती है। वो तो बस मोहरा है अचानक बदलाव की आंधी चलती है और धूल उड़कर उसके पसीने भरे चेहरे को ढँक लेती है। उसका पसीना सूख जाता है, वो अभी भी आँखें फाड़ फाड़ के देखने की कोशिश कर रहा था, उसके कानों में बदलाव का कानफोड़ू संगीत गरज रहा था. वो फफककर रोने ही वाला था कि अचानक किसी ने संगीत का बेस बढ़ा दिया, सो उसके सवाल कलेजे में ही रह गए.

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