Friday, October 14, 2016

हम न हुए...

(संजीव परसाई) ब्राम्हण परिवार में जन्म लेने का कभी कुछ सादृश फायदा नहीं हुआ। आज के जमाने को देखकर खुद को कोसने का मन करता है। उन दिनों नौकरी और चाकरी को एक ही समझा जाता था। दादा अपनी भड़ास निकालने के लिए हमेशा कहा करते थे कि अरे चाकरी ही करना है तो, भगवान की करो। ब्राम्हण कुल में जन्मे हो तो अपना धर्म तो न भूलो। पिताजी सुनकर हँसते और कहते कि हओ, नौकरी से पैसा कमाकर घर चलाउँगा और धर्म के संस्कार बच्चों को दूँगा, लेकिन पोंगा पंडित नहीं बनूँगा। बात सिद्धांतों की थी सो अड़ियल दादा अपने अड़ियल पुत्र को हमेशा वाकओवर दे दिया करते।
इस यक्ष विषय पर घर में नियमित तौर पर शास्त्रार्थ आयोजित होता। इसमें घर के सभी छोटे उत्साह से शामिल होते। इस शास्त्रार्थ से किसी को कुछ फायदा नहीं हुआ लेकिन पिताजी के बाद चाचा ने भी पंडिताई करने से इंकार कर दिया। इस प्रकार घर से पंडिताई का काम पूरी तरह से सिमट गया। अब हमारे परिवार में सत्यनारायण की कथा करने के लिए भी बाहर से पंडितजी को बुलाना पड़ता है ।
परिवार के साथ एक बड़े मंदिर में जाने का मौका मिला। श्रद्धा के वशीभूत होकर गए थे, लेकिन लौटे तो दादाजी बहुत याद आए। किसी पंडितजी ने कह रखा था कि बच्चे के उज्जवल भविष्य के लिए अभिषेक कराना आवष्यक है। लगातार टालना भी ठीक नहीं था। मंदिर जाकर लाइन में लगे कि पहले भगवान के दर्शन करेंगे। दो घंटे तक यह सोचा कि भगवान शायद इस लाइन में खडे़ होने के दौरान होने वाले कष्ट से ही प्रसन्न होते होंगे। लेकिन देखा कि एक लाइन है जिसमें लोग आते हैं और दर्शन करके तुरंत बाहर हो जाते हैं। एक सेवादार से पूछा तो उसने बताया कि यह 2100 और उसके पीछे वी.आई.पी. वाली है। वैसे यह तो स्वयंसिद्ध है कि जिसके पास पैसे हों वो तो स्वयं ही वीआईपी हो जाता है।
इसके पहले कि हम कुछ सवाल करते मोबाइल बज उठा – अरे, महानुभाव आप कहां हैं मैं आपका दो घंटे से इंतजार कर रहा हूं। वे पंडितजी थे, जिन्होंने हमारे अभिषेक करने का अनुबंध किया था। मैंने कहा - अरे पंडितजी लाइन में लगे हैं पिछले दो घंटे से।
वे कहने लगे - अरे महानुभाव आपसे लाइन में लगने के लिए किसने कहा है। रुकिए हम आ रहे हैं, आपके पास। एक मिनट में पंडितजी हमारे सामने थे और अगले आधे मिनट में हम भगवान के सामने। जो दायरा हम दो-ढाई घंटे में पूरा नहीं चल पाए, पंडितजी की कृपा से हमने डेढ़ मिनट में पूरा कर लिया। उस समय हमें पंडितजी की महानता का जो अनुभव हुआ उसे शब्दों में वर्णन करना मुष्किल है, सो नहीं कर रहा हूं।
पंडित ने अभिषेक के लिए 2000 रू. की सामग्री की सूची थमा दी साथ ही अपनी फीस 5100 रू. की रसीद। अवाक् से कुछ बोल पाते उसके पहले ही उन्होंने कहा कि आप ये लोटे का जल लो और अपने ऊपर छिड़क कर आसन पर जम जाओ। हम सम्मोहित से होकर बैठ गए लेकिन दबी जुबान में कहा कि ये सामग्री लेने तो जाना होगा। वे आश्वस्त करते हुए बोले यजमान ये हमारा रोज का काम है, आप चिंतित न हों, आप सिर्फ पैसे दीजिए सामग्री यहीं है। एक बार हमारे मन में भी आया कि कौन ये छोटी छोटी सामग्री बाजार में खोजता घूमेगा, सो हम भी पसर गए। दनादन मंत्र छूट रहे थे कि अचानक पांच-सात मुस्टंडे किसी नेता को घेरकर हमें रौंदते हुए निकलने लगे। बच्चे को संभालते हुए हमने थोड़ा जोर लगाकर कुछ बोलने की कोशिश की, सो पंडितजी ने कहा वी.आई.पी हैं, आप बैठे रहिए। दस-बीस मिनट में हम अपने बच्चे के सुखमय जीवन की गारंटी के साथ फ्री हो गए।
न न करते हुए भी दिमाग में वो सब आ गया जिसके लिए हम बदनाम है। पंडित जी पूछा - पंडितजी बहुत मेहनत है आपके काम में, पंडितजी के लिए यह सवाल रोमांचित करने वाला था सो हुलसकर बोले- हां महानुभाव आप लोगों की सेवा के लिए ही हैं हम तो। महिने भर में कम से कम ढाई-तीन सौ लोगों का अभिषेक कराना होता है। हमारे अंदर के आर्यभट्ट ने तुरंत गणना करके अनुमान लगाया कि पंडितजी महिने के लाख-सवा लाख तो कर ही लेते हैं। अब हमने खीझ छुपाते हुए पूछा कि इनकम टैक्स देते हो, अब पीछे हटने की बारी उनकी थी सो बोले भगवान की सेवा में कैसी इन्कम और कैसा टैक्स महोदय। आगे कोई जप-तप कराना हो तो ये रखिये हमारा विजिटिंग कार्ड हमें जरूर याद कीजिएगा, नमस्कार.......। हम कुछ सोच पाते उसके पहले वे हरिओम का जाप करते हुए अपने नए क्लाइंट को दुःख विहीन बनाने चल दिए। हम अपनी पत्नि और बच्चे का हाथ थामे भीड़ में खड़े रह गए।
अब समझ में आया कि दादा जी प्रभु की चाकरी करने को क्यों कहते थे। आज कल मलाई तो इसी धंधे में है, हिंदू हो तो भगवान बेचो, मुस्लिम हो तो अल्ला बेचो। सब धड़ल्ले से बिक रहा है, आज पूजा स्थल  अपार संपदा से भरे पड़े हैं, मठाधीशों के वारे न्यारे। दादाजी की बात मान कर आज हम भी एक बड़ी सी दुकान में बैठ गये होते तो आज हम भी वी.आई.पी. दर्शन के पास, पूजा सामग्री, चढ़ावा, प्रसाद से लेकर धार्मिक संपदा की ठेकेदारी कर रहे होते वो भी बिना किसी इन्वेस्टमेंट और टैक्स के । वो तो प्रभु की चाकरी करने की बात करते थे, पर इस चाकरी में जो कमाई है उसका अंदाजा तो उनको भी नहीं होगा. पर खैर अपनी टीस किसी से कह तो सकते नहीं सो लिखकर फ्रस्टेषन दूर कर रहे हैं। सॉरी दादाजी हम न हुए......

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