प्रिय भाग्या,
तुम मुझे नहीं जानतीं, लेकिन मैं न जानते हुए भी तुमको और अधिक जानने का प्रयास कर रहा हूँ. मैंने तुम्हें माँ की मृत देह और उसे ढोते पिता के साथ सिसकते हुए देखा था. तब से मैं तुम्हें भुला नहीं पा रहा हूँ. तुम्हें ये ख़त लिखने का मेरा मकसद भी मेरा स्वार्थ ही है. शायद तुमसे अपनी बात कहकर कुछ हल्का महसूस कर सकूँ.
तुम मुझे नहीं जानतीं, लेकिन मैं न जानते हुए भी तुमको और अधिक जानने का प्रयास कर रहा हूँ. मैंने तुम्हें माँ की मृत देह और उसे ढोते पिता के साथ सिसकते हुए देखा था. तब से मैं तुम्हें भुला नहीं पा रहा हूँ. तुम्हें ये ख़त लिखने का मेरा मकसद भी मेरा स्वार्थ ही है. शायद तुमसे अपनी बात कहकर कुछ हल्का महसूस कर सकूँ.
मैं तुम्हारा नाम नहीं जानता इसीलिए मैंने तुम्हें एक नाम भी दे दिया “भाग्या’’. क्योंकि जो तुम्हारे साथ हुआ वो भाग्य ही कहा जायेगा. कोई भी माँ-बाप अपने बच्चों के लिए इस तरह की स्थिति की कल्पना नहीं करते हैं, तुम्हारे पिता दीना मांझी ने भी नहीं सोचा होगा कि तुम्हें 12 किलोमीटर मुर्दों के देश में अपनी माँ की मृत देह के साथ घिसटना होगा. तुम जैसे-जैसे अपने कदम सिसकियों के साथ घसीट रहीं थीं, उनके साथ ही हमारा मुर्दा समाज भी अपने आप घिसट रहा था.
अभी तुम छोटी हो, कोई 12-14 साल की शायद, अभी समझ नहीं सकोगी कि असल में तुम्हारे साथ हुआ क्या है? जब बड़ी हो जाओगी तब समझोगी कि हम सब ने मिलकर न सिर्फ तुम्हारे सर से माँ का साया छीना है बल्कि उसे एक सम्मानजनक अन्तिम यात्रा का अधिकार भी छीनने की कोशिश की है. टीवी की बीमारी लाइलाज नहीं है, उसका इलाज तो सरकारी अस्पताल मुफ़्त में करते हैं, जो तुम्हारी माँ को नसीब नहीं हुआ, वरना क्या हर टीवी का मरीज मरता है भला. शव को ले जाने के लिए वाहन भी तो सरकार देती है, जो तुम्हें हल्ला मचने पर नसीब हुआ.
असल में हम लोग जो वोट देकर सरकारों को चुनते हैं, वे सिर्फ वोट देते हैं और भूल जाते हैं कि असल जिम्मेदारी इसके बाद शुरू होती है. दूसरी ओर जो सरकारें होती हैं वे फौरी जिम्मेदारियों को निभाने में भरोसा करती हैं, नहीं तो क्या ऐसा संभव है कि 16 बार देश की और लगभग इतनी ही बार राज्यों की सरकारें बनाने के लिए वोट देने के बाद हालत ये होती कि हमारे पास एक भरोसेमंद स्वास्थ्य तंत्र भी नहीं है. हमारा सिस्टम तो यह भी जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार नहीं है कि जन्म लेने वाला बच्चा अपने 5 साल भी जिन्दा रहे. तुम जिस परिवार से हो उसमें भी तुम 12-14 साल की उम्र जी गयीं, इस बात पर कोई सरकार अपनी पीठ ठोंक सकती हैं. ये सरकारें रोज नए-नए नामों से योजनायें बनातीं हैं पर इनका लाभ हर जरूरतमंद को मिले इसके लिए कोई व्यवस्था नहीं बनातीं.
आज मीडिया में तुम्हारे फुटेज चल रहे हैं तो हमारी संवेदनशीलता कचोट रहीं हैं वरना कालाहांडी और तुम जैसे वर्ग से आते लोगों के बारे में कौन सोचता है. तुम्हारे पिता को शराबी कहकर टालने की कोशिश तो की ही थी, लेकिन उसने अपनी पत्नि की मृत देह को 12 किलोमीटर ढोकर यह साबित कर दिया कि वो न सिर्फ एक अच्छा पिता, पति है बल्कि एक संवेदनशील इंसान भी है. वो उन संभ्रांत और पढ़े लिखे लोगों से लाख गुना भला है जिन्होंने तुम्हारी माँ के लिए शव वाहन की व्यवस्था में रूचि नहीं ली. हम तो समझ ही रहे है अब तुम्हें भी समझना होगा कि हमारे सिस्टम में कितने असंवेदनशील लोग घुसे पड़े हैं. अगले ही दिन तुम्हारे राज्य से ही खबर आई कि पैसे की कमी के चलते, दुर्घटना में मृत एक महिला के शव को तोड़कर पोटली में बाँध दिया गया. वो तुम्हारी माँ भी हो सकती थी, हम तथाकथित समझदार स्तब्ध हैं कि पुलिस के जिम्मेदार व्यक्ति के मन में यह आइडिया कैसे आया होगा, हो सकता है वे पहले भी ऐसा करते रहे हों. क्या कोई इंसान इस तरह से सोच भी सकता है, जो उन्होंने कर दिया. कुछ समझीं तुम भाग्या, कि हमारे सिस्टम के अन्दर किस तरह की पैशाचिक सोच के लोग घुसकर पल रहे हैं. तुम्हारे पिता ने अपनी पत्नि को कंधे पर ढोने का जब निर्णय शायद यही सोचकर लिया हो.
आज मीडिया में तुम्हारे फुटेज चल रहे हैं तो हमारी संवेदनशीलता कचोट रहीं हैं वरना कालाहांडी और तुम जैसे वर्ग से आते लोगों के बारे में कौन सोचता है. तुम्हारे पिता को शराबी कहकर टालने की कोशिश तो की ही थी, लेकिन उसने अपनी पत्नि की मृत देह को 12 किलोमीटर ढोकर यह साबित कर दिया कि वो न सिर्फ एक अच्छा पिता, पति है बल्कि एक संवेदनशील इंसान भी है. वो उन संभ्रांत और पढ़े लिखे लोगों से लाख गुना भला है जिन्होंने तुम्हारी माँ के लिए शव वाहन की व्यवस्था में रूचि नहीं ली. हम तो समझ ही रहे है अब तुम्हें भी समझना होगा कि हमारे सिस्टम में कितने असंवेदनशील लोग घुसे पड़े हैं. अगले ही दिन तुम्हारे राज्य से ही खबर आई कि पैसे की कमी के चलते, दुर्घटना में मृत एक महिला के शव को तोड़कर पोटली में बाँध दिया गया. वो तुम्हारी माँ भी हो सकती थी, हम तथाकथित समझदार स्तब्ध हैं कि पुलिस के जिम्मेदार व्यक्ति के मन में यह आइडिया कैसे आया होगा, हो सकता है वे पहले भी ऐसा करते रहे हों. क्या कोई इंसान इस तरह से सोच भी सकता है, जो उन्होंने कर दिया. कुछ समझीं तुम भाग्या, कि हमारे सिस्टम के अन्दर किस तरह की पैशाचिक सोच के लोग घुसकर पल रहे हैं. तुम्हारे पिता ने अपनी पत्नि को कंधे पर ढोने का जब निर्णय शायद यही सोचकर लिया हो.
हम चाहते तो यह हैं कि तुम्हारी और तुम्हारे पिता दीना मांझी की फोटो देश के हर एक अस्पताल में चस्पा कर दिया जाए, ताकि यह सिस्टम अपने पर गर्व करना बंद करके हकीकत में कुछ काम करे. इन चित्रों को सरकारें चौराहों पर होर्डिंग में भी लगायें जिससे कि लोग अपनी संवेदनशीलता को हर हाल में जीवित रखने के लिए मजबूर हों और किसी दीना मांझी के साथ यह दोबारा न हो. तुम ये सब भूलना मत. इसे अपना हथियार बनाना और अपने अन्दर इतनी ताकत जमा करना कि ये सब हथकंडेबाजों के दिल में डर बैठ जाए, जिससे वे किसी दूसरे का हक़ मारने के पहले सौ बार सोचें. तुम्हें यह करना होगा, क्योंकि तुम सिर्फ दीना मांझी की बेटी नहीं हो तुम प्रतीक हो हमारे सड़-गल चुके सिस्टम की करतूतों का.
संजीव परसाई
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