(संजीव परसाई) एक
बडे़ राजनीतिक दल का एक छोटा कार्यकर्ता अक्सर मेरे पास आता था। उसका लक्ष्य अपने
अतिरिक्त समय के जरिए मेरा समय खराब करना होता है। एक बार हमसे राजनीती में आगे
बढ़ने के लिए सलाह मांग रहा था, सो एक दोहा सुनाया -
चलती चाकी देख के, हंसा
कमाल ठठाय ।
जो खूँटे से लग रहा, कबहूँ
न पिसा जाए ।।
इस
दोहे को समझने के बाद उसकी सत्ता में पूछ-परख क्या बढ़ी वह हमें गुरू मान बैठा।
उसके खूँटे जिन्हें वह भाईसाब कहकर संबोधित करता था, के प्रति उसकी
अगाध श्रृद्धा थी। सत्ता की धुरी से चिपक कर रहने की कला वह समझ चुका था।
हमारे पास आते ही सीधे पूछता - और आजकल आपका
कैसा चल रहा है? वह इस प्रश्न के बहाने यह साबित करना चाहता था
कि हमारा मामला ठीक-ठाक चल रहा है। उसके सवाल को टालकर हमने कहा हमारा छोड़िए जी,
आप
यदि हमें दस साल बाद भी मिलेंगे तो हम ऐसे ही मिलेंगे। आप नेता हैं, बताइए
आपका कैसा चल रहा है? स्मार्ट फोन पर अंगुलियाँ फिराते बोले - बस हम
भी लगे हैं लोगों
की सेवा में, जब से हमारी सरकार आयी है, जनता
की अपेक्षाएँ बढ़ गई हैं।
मन में तो आया कि कह दें कि - किस दुनिया में
जी रहे हो जनाब, जनता आपसे कोई अपेक्षा नहीं करती, आप
बेकार में हलकान हो रहे हो। वे अपनी बात को जारी रखते हुए कहने लगे कि अच्छा आप
बताईए कि जब से हमारी सरकार आई है आपको कैसा लग रहा है, आपने क्या बदलाव
महसूस किया? मैंने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए बोला- प्रभु, मेरी ये क्या
परीक्षा ले रहे हो। मुझ गरीब को किस दुविधा में डाल रहे हो। अगर मैं आपकी बात का
जवाब दे भी दूं तो मैं जानता हूँ कि वह आपके किसी काम नहीं आएगा।
धीरे से बोले - आप अपने आप को बदल नहीं सकते
क्या?
नहीं, सुनने के बाद वे बोले चलो छोड़ो,
आजकल
में एक बडे़ असाइनमेंट पर हूँ ।
मैंने चकित होकर पूछा - क्यों, क्या
पार्टी का लोकपाल बना दिए गए हो?
अरे नहीं, आजकल पार्टी ने
मुझे अगले चुनाव के लिए घोषणापत्र बनाने की जिम्मेदारी दी है। इसके लिए मैंने सोचा
है कि मैं लोगों से उनकी राय लूंगा। मैं चाहता हूं कि आम लोग और वोटर हमारी पार्टी
के घोषणा पत्र को बनाने में सहयोग करें। मैंने भाव-विभोर होकर उसके कंधे अपने
हाथों से पकड़ लिए, रूंधे गले से बोला - भाई अब रुलाएगा क्या?
वो समझ गया कि अब चलना ही ठीक होगा, सो
जल्द ही इस मुददे पर घर आकर बात करने की धमकी देकर चला गया। दो चार फुरसतिया टाइप
के लोगों से नमस्कार करके हम भी घर ठिकाने लग गए।
हम लेकिन घोषणापत्र पर अटक गये, सच कहूं तो
मैंने आजतक किसी पार्टी का घोषणापत्र देखा ही नहीं है। यह शब्द आखिरी बार मैंने
चुनावी दौर में न्यूज चैनलों पर या अखबारों में देखा था। चुनाव के बाद कभी इसका
कोई जिक्र या फिक्र नहीं सुना। न नेता के मुख से न ही किसी लेता-देता के मुख से।
इसिलिए मैं घोषणा पत्र को उसी तरह से लेता हूँ कि जैसे किसी परीक्षा के लिए एक
फार्म भरना होता है। चंद दस्तावेज संलग्न करने होते हैं। जिन्हें नौकरी लगने के
बाद कोई नहीं देखता। ठीक उसी प्रकार चुनाव लड़ने के लिए आपके पास घोषणापत्र नामक दस्तावेज
होना चाहिए। उसमें क्या लिखा है इससे किसी को कोई मतलब नहीं है, यह चुनाव से पहले की
औपचारिकता हो गई है। पहले नेता सिर्फ कहते थे और लोग मान लिया करते थे, लेकिन जुबान
का स्तर गिरने से लोगों ने भरोसा करना बंद कर दिया, सो अब वे लिखकर देते हैं। अगर
पार्टी घोषणा पत्र के नाम पर मात्र कवर बनाकर उसे ऐन चुनाव के दो दिन पहले जारी कर
दे तो भी लोगों का पता नहीं चलेगा। वोटर भी इस मामले में हर राजनीतिक दल को एक
जैसा मानकर चलता है सो पार्टियाँ बच निकलती हैं। वैसे भी हम अपने वायदों पर टिके
रहने में वालों में नहीं हैं। भले ही हम अपनी मूछों का वास्ता दें, या
गंगा की सौगंध खाएं हम बातों को बतोले साबित कर देते हैं। इस चक्कर में न हम अच्छे
पुत्र बन सके, न ही पति, पिता, नेता न ही
आदर्श नागरिक। चुनाव के बाद हारे हुए से या जीते हुए से अगर घोषणा पत्र के बारे
में सवाल किये जाएँ तो वे समान प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं, अर्थात उनके मनोभाव
पढने की सुविधा होती तो वे कह रहे होते हैं - अरे यार इस नाशुक्रे को हटाओ सामने
से..... मोहल्ले के बच्चे नेताजी को घोषणावीर कहकर छेड़ते हैं और वे उनके परिवार को
संबोधित करके गालियाँ बकते हैं।
खैर मैं अपने पारिवारिक घोषणा पत्र के बिंदुओं
पर काम करने लगा। जिसके पालन न होने पर परिवार में मेरा अस्तित्व संकट में आ जाता
है। खैर बात आई गई हो गई। डेढ़-दो साल गुजर गए, इस बीच उनकी
एकाध विज्ञप्ति ही अखबारों में देखने को मिलीं। हाँ उनके जन्मदिन पर उनके फैंस
क्लब ने मोहल्ले में एक होर्डिंग जरूर टाँग दिया था। जिसके बारे में कहा गया कि
इसके लिए पैसे उन्होंने ही दिए थे।
एक दिन फिर अचानक टकरा गए, मैंने
पूछा क्या हुआ, ये क्या हाल बना रखा है? कोई समस्या है
क्या?
हाथ पकड़कर कोने में खींचकर बोले -चाय पिएंगे
क्या?
हां हां क्यों नहीं, बोलूं क्या...
उन्होंने कहा- रूको, विक्ट्री साइन
बनाकर अपनी बुलंद आवाज में चिल्लाए अरे पप्पू....।
बाकी पप्पू समझ गया था।
फिर वे बोले - आजकल मैं दुःखी चल रहा हूं,
पार्टी
में सही व्यवहार नहीं हो रहा है। चुनाव सिर पर हैं समझ में नहीं आ रहा क्या करूं?
मैंने पूछा कि - यार आपको तो घोषणापत्र बनाने
जैसा महत्वपूर्ण काम दिया था।
वे बोले - अरे सब उसी के कारण तो हुआ।
कैसे ?
मैं घोषणापत्र बनाने के लिए कई लोगों से मिला। उनके विचार जाने जिसके आधार पर मैंने
अपने सुझाव दिए। जिनमें गरीबों व किसानों को वैकल्पिक रोजगार, उद्योगों
के विकास के लिए करों की सीमितता, महिलाओं की सुरक्षा के लिए विषेष योजना,
भ्रष्टाचार
रोकने के लिए एक ताकतवर लोकपाल, दल को आरटीआई कानून के दायरे में लाने
जैसे कई क्रांतिकारी सुझाव दिए। पता नहीं वरिष्ठ नेता क्यों भड़क गए और मुझे बैठक
से बाहर निकाल दिया। अब मुझे किसी बैठक में बुलाते ही नहीं हैं। भाई साब ने तो
मेरा फोन तक उठाना बंद कर दिया है।
फिर क्या करोगे?
चाय खत्म करते हुए बोले - अभी तो पार्टी ने
दूसरा महत्वपूर्ण काम दे दिया है। सोशल मीडिया पर पार्टी के पक्ष में केम्पेन
चलाने का। मैं किसी दिन आता हूँ, आपके पास सोशल मीडिया के टिप्स लेने।
मैं- केम्पेन के या गालियां लिखने के टिप्स
लेने के लिए.....
वो - आप नहीं बदलोगे, चलो ओके बाय,
चाय
के पैसे मैं दे दूंगा....
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