Thursday, April 7, 2016

मीडिया - फिलहाल इतना ही...


(संजीव परसाई) हैदराबाद] जेएनयू हो या ताजा एनआईटी का मामला] इन सभी मामलों में दो समानताएं रहीं हैं। पहली कि ये सरकार और प्रशासन की नाकामी का नतीजा थीं, दूसरी इस समस्या के लिए मीडिया को दोषी ठहराने का प्रयास किया गया।
इतिहास गवाह है कि मीडिया में जब भी कुछ असहज घटता है तो उसके विरोध में स्वर सबसे पहले मीडिया के अंदर से ही निकलते हैं। जो मीडिया हाउस सत्ता की गोद में बैठे नजर आते हैं तो उनके लिए सबसे अधिक विरोध मीडिया बिरादरी से ही आता है। कई अखबारों की स्वयं पर अंकुश लगाने के लिए 

एडिटोरियल नीतियाँ हैं, जिनका वे कठोरता के साथ पालन करते हैं। इनकी अवहेलना करने पर कईपत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखाया गया है।
यह सब चर्चा करने का एक साधारण सा कारण है, मीडिया को लेकर पाठकों दर्शकों में भ्रम की स्थिति है। सरकार, राजनीति और प्रायोजित सोशल मीडिया मिलकर अपनी सुविधा से मीडिया की छबि गढ़ते हैं। जैसे कि छत्तीसगढ़ के चार पत्रकार अचानक समाज के दुश्मन हो जाते हैं। दरअसल खबरों का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि तटस्थता भी किसी किसी को लाभ देती है। ऐसे में पत्रकार दलाल हो जाता है, सरकार के विरोध में लिखने वाला राष्ट्रद्रोही हो जाता है। सरकारों को पत्रकार नक्सली, आतंकवादी समर्थक या राष्ट्रद्रोही, बिके हुए नजर आते है। राजनीतिक दलों ने अपने वाले और उनके वाले के हिसाब से मीडिया का वर्गीकरण भी कर रखा है।  हर पक्षकार यह चाहता है कि मीडिया या तो मेरे हिसाब से रिपोर्टिंग करे या सिर्फ मौसम, पानी, बादल, धूप, गर्मी आदि की रिपोर्ट करे। सरकारों ने मीडिया को कब्जे में रखने के लिए वो सब प्रयास किए जो वो कर सकते हैं। सरकारों ने विज्ञापन, सुविधा, पुरूस्कार, गिफ्ट आदि के नाम पर मीडिया को खासा उपकृत किया है। सरकार में एक पद अधिकृत रूप से होता है जन संपर्क अधिकारी का, जो कभी भी जनता से संपर्क नहीं करता वह सिर्फ पत्रकारों या मीडिया को मैनेज करता है। अर्थात सरकार की यह अधिकृत सोच है कि मीडिया को मैनेज किया जाना चाहिए या मीडिया को मैनेज करके अपने पक्ष में खबरें छपवाई जा सकती हैं। लगभग यही हाल कार्पोरेट्स का है, जो मीडिया को अपना गुलाम बनाने की जुगत में हैं. उन्होंने पिछले दस-पन्द्रह सालों में मीडिया के क्षेत्र में इतना पैसा ठूंस दिया कि अब मीडिया का उनके सामने घिघियाना ही पड़ता है।
एक तरफ आम जनता है जो दो-चार रूपये का अखबार खरीदकर या शाम को फुरसत के समय टीवी के सामने बैठकर सोचता है कि मीडिया को उसने खरीद लिया है। मीडिया के जो हालात हैं उन हालातों में एक दिन भी नौकरी करना संभव नहीं है, और आप घर बैठकर सोचते हैं कि कोई क्रांति होगी। साधारण सैलरी पाने वाला रिपोर्टर आपके लिए जान हथेली पर रखकर दिनभर घूमता है और आप एक नागरिक के तौर पर उसपर अविश्वास करते हैं। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहकर आप समझते हैं लोकतंत्र को बचाना उसका ठेका हो गया। एक खबर लिखने के स्त्रोत बनने तक ही हिम्मत जिसमें नहीं है, वो पत्रकारों को उनकी औकात दिखाते हैं। क्या आप अपनी नौकरी या पार्टी में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ लिख-बोल सकते हैं.... कोई नहीं बोलेगा, क्योंकि आपके लाभ जुड़े हुए हैं और आप डरपोक हैं। कभी जानिएगा कि लोकतंत्र का यह कथित रखवाला, जिसे आप देशद्रोही, नक्सली, दलाल कहते हैं वह किन हालातों में रहता है, उसके बच्चे किन स्कूलों में पढ़ते हैं, वह जब बीमार होता है तो कैसे उसकी बिरादरी के लोग इलाज के लिए चंदा करते हैं। वो तटस्थ रहता है तो आपको समस्या है, वो आपको दलाल दिखाई देता है, वो चुप रहता है तो आपको बिका हुआ दिखाई देता है। आखिर करे तो क्या करें, बंद कर दें अखबार और चैनल......... आप ही अखबार खरीदना या टीवी पर समाचार सुनना क्यों नहीं बंद कर देते। भूतों की, परिवारों में कलह की, रिसते हुए रिश्तों की, खत्म होती मानवता की बहुतेरी कहानियां बिखरी पड़ी हैं, उन्हें देखिए-पढि़ए.......

आप तो बस उस दिन की कल्पना कीजिए जब ये कोई नहीं रहेंगे। कोई भी अपने झूठ को विराट स्वरूप देकर आपके सामने रखेगा और आप समझ भी नहीं पाएंगे। इनमें लाख बुराई हैं, लेकिन ये फिर भी आपके लिए ही हैं। इनकी खिंचाई कीजिए लेकिन थोड़ी सी हमदर्दी भी रखिए। इन्हें गालियां दीजिए तो ये आपके नौकर हैं ये आपके टैक्स से तनख्वाह लेते हैं। 

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