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Monday, January 25, 2016

कमोड पर बैठा लोकतंत्र -

(संजीव परसाई) संसद के संडास के सामने सुबह से लाइन लगी थी। बड़े बड़े राजनेता,मंत्री, प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष, जनप्रतिनिधि आदि सब एक दूसरे का हाथ थामे किसी अनहोनी की आशंका से सहमे खड़े थे। सब विचारमग्न थे कि समस्या का किसी भी तरह से कोई न कोई हल निकले। अपने कार्यक्षेत्र का मामला मान संसदीय कार्य मंत्री खासे सक्रिय नजर आ रहे थे। सरकार विपक्ष की ओर आसभरी नजरों से देख रही थी कि बिना किसी संकट के सरकार इस झंझट से बाहर निकल सके। दो दिन पहले सत्ता पक्ष ने मदान्ध होकर विपक्ष को संसद से सड़क तक गरियाया था सो विपक्ष इस संकट के सहारे सरकार को नीचा दिखाने की रणनीति बना रहा था।
लोकतंत्र आज अलसुबह पांच बजे जो संडास में जाकर कमोड पर विराजा, सो उठने का नाम ही नहीं ले रहा था। पक्ष-विपक्ष ने कतार में लगकर एक स्वर में लोकतंत्र का वंदना गीत भी गाया। लेकिन द्वार खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था। अंदर से आ रहे जोरदार विरोध के हर स्वर के साथ लोकतांत्रिक राजनीति कांपने लगी। पक्ष और विपक्ष दबी जुबान से यह स्वीकार करने लगे कि लोकतंत्र की बीमारी वर्तमान राजनीति के लिए एक गंभीर चुनौती है।
एक अपेक्षाकृत सुसंस्कृत, सौम्य और लोकतंत्र के पक्षधर राजनेता को लोकतंत्र से डील करने के लिए नियुक्त किया गया। सरकार को अपेक्षा थी कि सौम्यता से शायद लोकतंत्र की हालत में सुधार आए, लेकिन लोकतंत्र की हालत के आगे सौम्यता भी पानी भरने लगी। साठ राजनीतिक बसंत देख चुके राजनेता को अहसास हुआ कि लोकतांत्रिक प्रणाली की उनकी समझ अभी अधूरी है। उनकी पेशानी पर चू रहे पसीने को देखकर विपक्ष मन ही मन गदगद हो रहा था। उन्होंने हाथ जोड़कर अपनी नासमझी स्वीकार की, और बाकियों से प्रयास करने का अनुरोध किया। लेकिन अपनी किरकिरी से बचने के लिए सब संसद भवन के खंभों के पीछे छिपने लगे। सीधी सी बात थी सरकार के संकटमोचक इसका कोई हल नहीं निकाल पा रहे थे। विपक्ष इसे घनघोर संकट का सारा ठीकरा सरकार के माथे पर फोड़ना चाहता था।
समाजवाद और वामपंथ ने एक विशेष रणनीति के तहत मोर्चा बनाया। वे इस समस्या को अपने नजरिए से आंकने लगे। वामपंथी इस संकट के लिए सरकार द्वारा सर्वहारा वर्ग, दलित, मजदूर, गरीब जैसे विटामिन की उपेक्षा को मान रहे थे। आवश्यक पोषक तत्वों की आपूर्ति बाधित होने की वजह से लोकतंत्र बीमार हो चला है। वे यह साबित कर रहे थे कि  एक हफ्ते के भारत बंद के उपवास से यह बीमारी ठीक होगी। धर्मनिरपेक्ष को भरोसा था कि इसके लिए साम्प्रदायिक ताकतें जिम्मेदार है। दूसरा वर्ग सुविधाजनक धर्मनिरपेक्षता की नीति से जोड़ रहा था। लोकतंत्र को पाकिस्तान जैसी विदेशी ताकतों से भी डराया गया ताकि वह बाहर आ जाए, उसे कालेधन का लालच दिया गया। लेकिन लोकतंत्र जानता था कि असल समस्या पेट में ही है। मीडिया अपने-अपने राजनैतिक समर्पण के अनुसार ख़बरें चलाने लगे । सभी इस समस्या के परम्परागत  उपाय सुझाने लगे। एक नेता को कहा गया कि वो लोकतंत्र के बेहतर स्वास्थ्य के लिए उपवास रखेगा, लेकिन उसने शुगर की बीमारी के चलते इंकार कर दिया। बहुत तलाशा लेकिन कोई दूसरा न मिला। सो उसे आयुर्वेदिक दवाओं के सहारे रखने का निर्णय लिया। बुद्विजीवी लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए सत्ता पक्ष को जिम्मेदार बताने लगे तो उन्हें  देशद्रोही होने का ताना दिया गया । दुनिया का महान लोकतंत्र (स्वयंभू) अपनी हालत पर बिलख रहा था। दलित प्रतिनिधि ने भी “दबी जुबान” से अपना पक्ष रखा। लेकिन उनके स्वार्थ आड़े आ गए सो वे शांत हो गए।
आखिरकार तगड़ी डील के बाद पक्ष, विपक्ष, मध्यमार्गी और अवसरवादी इस संकट का समाधान एकसाथ निकालने के लिए राजी हुए। सभी के विचार से समस्या के दो प्रकार के समाधान सोचे गए। पहला तात्कालिक व दूसरा लंबे समय के लिए।
तात्कालिक समाधान की जिम्मेदारी विपक्ष व मध्यमार्गियों को दी गयी। उनका मानना था कि लोकतंत्र ने जातिवाद, संप्रदायवाद का सेवन जरूरत से ज्यादा किया है। जिससे उसका पेट बुरी तरह से खराब हो गया है। सो फिलहाल इसे रोका जाए ताकि लोकतंत्र का हाजमा चाव पर आ सके। हालांकि वे इस बात पर कन्नी काट गए कि यह परंपरा उन्होंने ही डाली थी।
दूसरे पक्ष और अवसरवादियों ने मिलकर भविष्य में लोकतंत्र का स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए प्रण लिया। उन्होंने निर्णय लिया कि अब लोकतंत्र की जिम्मेदारी हमारी। क्या खाएगा, पिएगा, क्या, कब और कितना बोलेगा, सोचेगा, लिखेगा, यह सब हम तय करेंगे। भोजन का मीनू सरकार अपनी मर्जी और सुविधा से तय करेगी। हर्षध्वनि से प्रस्ताव का स्वागत किया गया।
कमोड पर बैठा लोकतंत्र अपनी जर्जर हालत पर चिंतित था। राजनीति में पसरे नासूर से उसका शरीर छलनी होने लगा था। लोकतंत्र को सभी ने अपने स्वाद और सुविधा के नाम पर गरिष्ठ भोजन दिया गया, जो उसकी बीमारी का असल कारण है। उसे अपनी बीमारी का स्थायी समाधान चाहिए लेकिन सर्वदलीय समिति ने ऐसा करने से मना कर दिया। जब तक चुनावी मौसम है, यह बर्दाश्त करना उसकी मजबूरी है। चुनाव का तमाशा लोकतंत्र के नाम पर तो चल रहा है, और वो पेट पकड़े कमोड पर बैठा है।

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