Wednesday, April 13, 2016

हम भद्र, हम संभ्रांत, हम मध्यम वर्ग..

(संजीव परसाई) पहले दो घटनाओं का जिक्र फिर मुददे की बात। पहली घटना एक चौराहे पर सिगनल की है, एक कार में एक जोड़ा बैठा था। वहां एक बच्चा अखबार खरीदने की जिद करने लगा। शुरूआती ना नुकुर के बाद साहब ने अखबार खरीदने के लिए पांच का सिक्का बच्चे को दिया। लेकिन बच्चे के पास छुटटे पैसे नहीं थे। सो वह दौड़कर अपने साथी के पास लेने गया। इतने में सिगनल ग्रीन हो गया, ट्रैफिक में हर कोई भागने की ताक में था लेकिन साहब के तीन रूपये नहीं आए थे सो वे खड़े रहे। उनके पीछे के लोग हार्न मारते रहे लेकिन वे टस से मस न हुए आखिर वो बच्चा वापस आया उसने साहब को तीन रूपये दिए। लेकिन तब तक सिगनल फिर रेड हो चुका था।
दूसरी घटना भी इसी तरह की है। एक बड़ी शानदार लकदक गाड़ी (20 से 25 लाख की रही होगी) मेरे आगे थी। अचानक पुराने बजाज स्कूटर पर टर्र टर्र करते एक व्यक्ति आया। कोई दुकानदार रहा होगा, उसके पीछे एक 13-14 साल का बच्चा बैठा था और गाड़ी पर किराने का सामान लदा था। जल्दी निकलने के फेर में वह चमचमाती गाड़ी से भिड़ गया। तत्काल गाड़ी में से दो महानुभाव निकले, उन्होंने उसे गालियां देना शुरू कर दिया। स्कूटर सवार गिड़गिड़ाने लगा वे उसे गालियां देते रहे और कहते रहे कि इस गाड़ी की स्क्रैच साफ कराने में ही 10 हजार लगते हैं। ये पैसे क्या तेरा बाप देगा। ट्रैफिक ज़ाम। एक साहब ने हस्तक्षेप करने की कोशिश की तो वे उनपर ही बरस पड़े। भीड़ में से ही एक ऑटो वाला चिल्लाया - 25 लाख की गाड़ी में बैठे हो, ढाई हजार रूपट्टी के स्कूटर वाले से बहस कर रहे हो। अपनी नहीं तो कम से कम गाड़ी की ही लाज रख लो। भोपाली अंदाज में कही गई इस बात का असर हुआ और वे साहब गाड़ी में बैठकर चले गए, तब जाकर टैªफिक शुरू हुआ।
इन दोनों घटनाओं में एक सामंजस्य है। पहला तो यह कि ये दोनों संभ्रात/भद्र/सभ्य/समर्थ कहे जाने वाले तथाकथित मध्यम वर्ग की हैं। दूसरा ये दोनों घटनाएं यह साबित करती हैं कि हम ज्यों ज्यों विकास कर रहे हैं हमारी संवेदनशीलता लुप्त हो रही है और हम आत्म केन्द्रित होते जा रहे हैं। यह हमारे नित्य के व्यवहार में भी नजर आने लगा है। हम होटल में एक प्लेट भिंडी के 400 रू प्रसन्नता से देते हैं, लेकिन सब्जी के ठेले वाले से भिण्डी खरीदते समय दो तीन रूपये कम करने के लिए मोलभाव करते हैं। हम माल में फिल्म देखते समय 80 रू का समोसा और 400 का पिज्जा खाते हैं लेकिन मोहल्ले की दुकानों को घटिया कहकर नकार देते हैं। हर सामान शापिंग माल से खरीदने को प्राथमिकता देते हैं लेकिन मोहल्ले की दुकानों को तबज्जो ही नहीं देते है। यह सब करते हुए हम भूल जाते हैं कि हमारे ही समाज का एक हिस्सा कहीं न कहीं हम पर ही आश्रित है ।
भारतीय मध्यमवर्ग धीरे धीरे अपनी वह सुगंध खोते जा रहा है जिसके लिए वह जाना जाता था। उसका यह बदला हुआ स्वभाव उसके अपने परिवार में भी देखने को मिल रहा है। मध्यमवर्ग के बच्चे भी अब नए तरह का व्यवहार करते हैं। मध्यमवर्ग में सामुदायिकता व कुटुंबकम् का स्थाई भाव रहा है, जो अब हल्का पड़ता जा रहा है। तकनीकि और विकास के नाम पर अपने आपको सीमित, बहुत सीमित करते जा रहे हैं। आज देश का मध्यमवर्ग सूखे के दिनों में सबसे अधिक पानी अपनी कारें धोने के लिए बहाता है, अपने घर के सामने कचरा साफ करवाकर उसे जलाता है या दूर किसी कोने में डलवा देता है, बिजली का निरर्थक प्रयोग उसकी शान का विषय है, शादी समारोहों में औकात से अधिक खर्च कर खुद और दूसरों के लिए मुसीबत बनता है, यही वह वर्ग है जो सबसे अधिक कुरीतियों, अंधविश्वासों को प्रश्रय देता है, और आजकल इस वर्ग को गुस्सा भी बहुत आता है।

इस बात से किसी को एतराज नहीं हो सकता है कि किसी भी देश को संभालने व बनाने में वहां का मध्यम वर्ग महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है लेकिन हमारे देश के मध्यमवर्ग का व्यवहार बदल रहा है, संभलना और संभालना होगा। मध्यमवर्ग अपनी संवेदनशीलता को संजो कर नहीं रख सका तो कहीं ऐसा न हो कि हम भी औरों जैसे ही हो जाएं...।

No comments: