Wednesday, November 18, 2015

असहिष्णुता के मारे हम

(संजीव परसाई) हर तरफ सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता (टालरेंस बनाम इनटालरेंस) का बवाल मचा हुआ है। सहिष्णु होने का अर्थ है जो देख रहे हो, सुन रहे हो उससे असहमति होने पर भी चुप रहो। अगर आप किसी तर्क, बात, काम या तरीके से सहमति नहीं होने पर डंडा उठा लेते हैं तो आप असहिष्णु कहे जाएंगे। आपको यथास्थितिवाद में भरोसा करना होगा, तो आप सहिष्णु बने रह सकते हैं। हालांकि इस बहाने आजकल के युवाओं ने अपनी हिन्दी डिक्शनरी में एक नए शब्द ‘सहिष्णुता’ को जोड़ लिया। घर परिवार में भी किसी बात के विरोध या असहमति पर आवाज तेज करने पर असहिष्णुता का तमगा तुरंत जारी किया जा रहा है। कामवाली दीदी से लेकर बच्चे तक आक्रामक हो चले हैं। लब्बोलुआब यह है कि किसी का विरोध करने के पहले दस बार सोचना पड़ रहा है।
असल में लोगों को समझ में देर से आई, लेकिन यह बीमारी हमारे परिवारों में पीढि़यों से पल रही है। अम्मा सबसे बड़ी असहिष्णु थीं, एकदम तेज तर्रार। गलत बयानी या गलत कार्यवाही उन्हें कतई नापसंद थी। गलत बयानों पर समझाने में समय और ऊर्जा खर्च करने के बजाय सीधे दो तमाचे लगाने में सुविधा समझी। पिताजी अपेक्षाकृत सहिष्णु थे, वे प्रतिक्रियावादी नहीं थे। अक्सर अम्मा से कहते गुस्सा करने के बजाय बच्चों को समझाने की कोशिश करो। इस अवसर पर वे अपना वीटो पॉवर प्रयोग करतीं। पिताजी को साफ शब्दों में समझा देतीं तुम अपना लिखना पढ़ना देखो, प्रशासनिक मुददों में दखलंदाजी न करो। अम्मा की डाँट-फटकार का अहिंसक विरोध कर हम अपना रोष व्यक्त किया करते। एक बार हमने विरोध स्वरूप भोजन का त्याग करने का विचार किया। सो अम्मा ने भोजन के साथ पानी का भी त्याग करने की सलाह देकर हमारा सत्याग्रह शुरू होने के पहले ही खत्म कर दिया। सुनते हैं यूरोप में बच्चों को पीटने पर माता-पिता को जेल भी हो जाती है। लेकिन भारतीय परिवारों में मामला थोड़ा भिन्न है। हमारे जैसे परिवारों में तमाचा संस्कृति आज तक बदस्तूर जारी है। बस इतना जरूर है कि हम असहमत होने पर किसी का मुंह काला नहीं करते बल्कि लाल कर देते हैं।
जो सरकारी स्कूलों की वो पैदावार रहे हैं, वे जानते हैं कि वहां असहिष्णुता आज तक पसर कर बैठी है। मास्टर जी की मार आज तक याद है। समाज ने हमें समझा रखा था कि पिटाई होने से ही वि़द्या माता मिलती है। हर पिटाई के बाद तर्क होता था मास्साब मारें धम-धम, विद्या आए छम-छम। एक दो छात्रों ने विरोध स्वरूप स्कूल आना छोड़ दिया तो मास्टरसाब उनके घर पहुँच गए। चाय-नाश्ता किया और उनके पालकों के सामने ही उन्हें कान पकड़कर उट्ठक-बैठक लगवा दी। अगले दिन उनके पिता उन्हें स्कूटर पर बिठाकर क्लास तक छोड़ गए। बड़े भाई बहनों ने भी कभी सहिष्णुता नहीं रखी। हर जिद पर जमकर क्लास ली, उनका कोई भी वार खाली नहीं गया। दोस्त-यार तो जैसे अपनी सहिष्णुता को बेचकर खा गए थे। मुरव्वत शब्द को शब्दकोष से निकालकर ही फेंक दिया था। हर बर्थ-डे पर कंबल कुटाई और बर्थ-डे बंप खाने के बाद तो  जन्मदिन मनाना ही छोड़ दिया। अब दोस्तों का क्या विरोध करना सो उन्हें उनके यथा योग्य संबोधनों से संबोधित कर मामले को रफा-दफा कर दिया। पड़ोसी भी खासे असहिष्णु थे, वे बरसात में छाते लेकर सर्दियों में वापस करते, और सर्दियों में जेकेट लेकर जाते तो गर्मियों में वापस करते।
अब साहित्यकार, कलाकार, विपक्षी और कुछ पक्षी चीख रहे हैं कि आजकल सहिष्णुता कम हुई है। समस्या है या नहीं लेकिन चिंता तो है, एक बुद्धिजीवी कह रहे थे की अप्रिय स्थिति से बचने के लिए चायना से आयातित एक उच्च गुणवत्ता का टेप बाजार में उपलब्ध है। उसे मुंह पर लगाइए वह वातावरण को सहज व अनुकूल बनाये रखने में मददगार होगा।
हम जैसों के लिए सहिष्णुता तो कभी थी ही नहीं । आपने तो अपने पुरूस्कार वापस कर दिए हम क्या वापस करें ।

No comments: