Thursday, November 5, 2015

मैं, धरम और करम

(संजीव परसाई) आजकल अज्ञानता का आत्मबोध हो रहा है। पिता ने शिक्षक की छोटी सी नौकरी में बड़े सपने सजाते हुए पालन-पोषण किया था। उन्होंने सोचा होगा बेटा नाम करेगा। हम लगे रहे पढ़ने में, बड़े हुए तो जो पढ़ा, समझा या अनुभव से प्राप्त किया सो लिखने भी लगे। इस दौरान अपने आपको बुद्धिजीवी भी मानने लगे। लेकिन अब लगता है कि डिग्रियां इकटठी करने के बाद भी हम रहे मूरख के मूरख ही।
असल में पिछले कई दिनों से एक दुविधा चल रही है। देखता हूं कि मुझे किसी भी चीज या मुददे पर समझ ही नहीं है। उदाहरण के लिए मेरा धर्म लीजिए, जन्म से ब्राम्हण हूँ, घर में धार्मिक वातावरण मिला तो थोड़ा बहुत वेदों, उपनिषदों और अन्य धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन भी किया, सो मान के चला रहा था कि मैं हिन्दू धर्म के बारे में पर्याप्त जानता हूँ। लेकिन आज देखता हूं कि मैं इस मामले में निरा मूढ़ निकला। मुझे अपने धर्म के बारे में निपट गॅवार, अज्ञानी, लठैतों से सीखना पड़ रहा है कि मेरा धर्म आखिर है क्या।
अन्य धर्मों में मुस्लिम धर्म से काफी जुड़ाव रहा। आसपास के लोग, यार-दोस्त कई मुस्लिम थे। घर से थोड़ी दूर पर ही मस्जिद थी। जब से पैदा हुआ सुबह सुबह सबसे पहले अज़ान के स्वर ही कानों में पड़े। मौलवी पिताजी के अच्छे दोस्त थे, उनका घर आना जाना भी था। सो उन्होंने इस धर्म की पूरी तो नहीं लेकिन खासी जानकारी दी, जो मैं मानकर चल रहा था कि पूरी नहीं तो अधूरी भी नहीं है। लेकिन आज देखता क्या हूं कि वो भी गलत निकली अब सही जानकारी मुझे किसी घटिया मुस्लिम नेता से लेना होगा।
पिपरिया (तुअर दाल वाला) मध्यप्रदेश का छोटा सा शहर है, जिसमें सब लोग मिलकर रहते थे, आज भी रहते हैं। ईद, मुहर्रम से लेकर रामनवमी, दशहरा तक सबने मिलकर मनाए। सच तो यह था कि हम जानते ही नहीं थे कि हिन्दू और मुस्लिम अलग अलग धर्म हैं। गणपति जी के उत्सव में उन दिनों मंडप खुद को ही बनाने होते थे। इधर उधर से बांस, खंभे, टीन आदि सामान इकटठे करते थे। सजावट का सामान जुटाना चुनौती था। इस कठिन समय में हमेशा सायरा दीदी याद आती थीं। उनके पास जरीवाले और गोटदार कपड़ों, दुपटटों की भरमार थी। उनकी शादी के बाद जब पहली बार गणपति बैठे तो उन्होंने अपनी ससुराल से जरीदार साडि़यां और चमकदार दुपटटे गणेशजी की सजावट के लिए भेजे थे। अब तक धर्मनिरपेक्षता का मतलब बस यही था हमारे लिए। जब भी कोई हिन्दु मुस्लिम के टंटे की बात करता है तो सायरा दीदी याद आती हैं। धर्म निरपेक्षता का यह स्वरूप देखने और समझने के बाद आज मुझे अपनी समझ कम लग रही है। सायरा दीदी तो जाने अब कहां होंगी, अब लगता है मुझे धर्मनिरपेक्षता उन लोगों से समझना पडे़गी जो धर्म का ध भी सही सही नहीं जानते।
अम्मा जब भी खाना बनातीं पहली रोटी गाय के लिए बनाती थीं। जब हम खाने बैठते तो पिताजी गाय की रोटी को प्लेट में रखते और प्लेट पर ही गाय के लिए दाल, चावल, सब्जी और आधी चम्मच घी रखते। फिर जल फेरते, हाथ जोड़कर हम भोजन करना शुरू करते। अम्मा अपने खाने के पहले उस रोटी को गाय को देतीं, फिर खुद भोजन करतीं। इस दौरान गाय हमारे लिए एक देवता की तरह स्थापित हो चुकी थी। तब हम जानते ही नहीं थे कि दुनिया में कोई गाय को खाता भी होगा। जितनी राम, शिव, दुर्गा, सरस्वती आदि देवी देवताओं के लिए श्रद्धा थी, उतनी ही गाय के लिए भी थी। लेकिन आज नासमझ साबित हुआ। ये सब किससे सीखूं, संशय में हूँ।
साहित्य खून में था, परिवेश में दिशा मिली। नरेंद्र भैया (श्री नरेंद्र मौर्य, सचमुच के पत्रकार) ने पढ़ने के लिए शहीद भगतसिंह पुस्तकालय के माध्यम से किताबें जुटाईं। घर और शहर के वातावरण ने साहित्य के संस्कार विकसित किए। सो साहित्य और साहित्यकारों के लिए सम्मान का विकास हुआ। जो कालांतर में श्रृद्धा में परिवर्तित हुआ। मैं यह मान कर चल रहा था कि साहित्य की पूरी नहीं तो कुछ कुछ समझ तो है ही। लेकिन लगता है कि वो भी बेकार निकली, अब मुझे साहित्य, चेतन भगत टाइप के लोगों से समझना पड़ेगा।
राजनीतिक वातावरण में तो कभी रहा नहीं, लेकिन राजनीति से अछूता भी नहीं रहा। लेकिन गांधी, नेहरू, पटैल, मुखर्जी, दीनदयाल, जेपी, शास्त्री आदि राजनेताओं की राजनीति को पढ़ा जाना और समझा। अब तक राजनीति के जो मायने जाने-समझे थे, वे सब लालू, मुलायम, अमितशाह, राहुल, केजरीवाल की राजनीति के आगे ठिकाने लग गए। अब लगता है कि राजनीति को नए सिरे से समझना होगा कौन सिखाएगा इससे अनजान हूँ।
बंटी, विक्की, गुडडा, लीला, डल्लू, अलकेश, अशोक जैसे दोस्तों के साथ जीवन शुरू हुआ। बाद में बिल्लू, गोलू, उप्पू, पप्पू, संजू, बेटू, शीटू ने जीवन को दोस्ती और दोस्तों के मायने समझाए। जब जब भी मुसीबत आई हर एक बंदा अपना काम छोड़कर साथ खड़ा रहा। इन दोस्तों के लव लैटर लिख-लिखकर थोड़ा बहुत प्यार करना मैं भी सीख गया। वे आज भी इसका अहसान जताते हैं। अब दोस्ती मार्कजुकरबर्ग से सीखूं ये तो गंवारा नहीं है. 
धर्म, राजनीति, साहित्य आदि हर स्तर पर बुद्धिहीन साबित होना खल रहा है। हर पुराने तर्क और मान्यताएं दांव पर लगी हैं, लोग वाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर पर आने वाले कंटेंट से अपना विचार बना रहे हैं, क्योंकि विचारकों का दौर खात्मे की ओर है. अब अधिकांश कॉपी-पेस्ट है.

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