Saturday, April 23, 2011

पानी - असमान वितरण व कुप्रबंधन से उपजा हाहाकार

पानी के लिये हाहाकार मचने और मचाने के दिन फिर से आ गये। अखबारों से लेकर नेट तक और भीड़ से लेकर एकाकी तक सभी जलसंकट के नाम से स्यापा करने में जुट गये हैं। इसके लिये रोज नयी नयी कहानियां और घटनाएं सामने आ रहीं हैं। निरंतर कई प्रसंग सुनने देखने को मिल रहे हैं लगता है कि अलग अलग तरीकों से इसकी विकरालता दर्शाना ही सभी का उददेश्य होकर रह गया है।
ऐसा नहीं है कि वे गलत हैं या उनकी सोच में कोई खोट है। दरअसल पहले तो यह तय करना होगा कि यह क्या वाकई समस्या है, और अगर है तो कितनी विकराल है। पिछले दिनों एक जलयोदधा अनुपम मिश्र जी से मुलाकात हुई थी। बात ही बात में वे कह गये कि पानी की समस्या लोगों की निष्ठुरता और असामाजिक मानसिकता की वजह से होती है। आज भारत के शहरों में से अधिकाँश शहर पानी की भीषण समस्या से जूझ रहे हैं। समस्या की विकरालता का अंदाजा इससे लग सकता है कि लोगों की पीने के पानी के लिये भी जददोजहद करना पड़ रही है।
असल में पानी की बर्बादी, बढ़ती जनसंख्या और पानी के स्त्रोतों के रखरखाव का अभाव इस समस्या को और अधिक विकराल स्वरूप देता है। देश के अधिकाँश शहर जल को लेकर दो भागों में बँट गये हैं एक तो वह भाग जहां पानी की आपूर्ति पर्याप्त से अधिक है, वे पानी की चिंता में दुबले नहीं होते ये प्रायः शहरों का श्रेष्ठि वर्ग होता है। दूसरा वर्ग वह है जहां पानी तो पर्याप्त होता है लेकिन उचित प्रबंधन और पानी के प्रति दया के अभाव में किल्लत झेलता है। इस बात के समर्थन में उदाहरण हमारे आसपास ही मौजूद हैं। सोच का विषय यह है कि ये दोनों वर्ग आधा किमी के दायरे में ही देखने को मिल जायेंगे। इस प्रकार देखा जाये तो पानी की किल्लत पानी की कमी की वजह से नहीं है बल्कि यह समस्या तो कुप्रबंधन और जिम्मेदारी के अभाव की वजह से हो रही है।
दो नजारे ऐसे हैं जो कि एक ही नजदीकी इलाके में देखने को मिल जाते हैं एक तो कालोनियों का जिसमें सुबह शाम गाड़ियां और फर्श धोते ओर गार्डन में पानी देने के बहाने पानी जाया करते पढ़े-लिखे लोग, दूसरे नजारे में (उसी स्थान से चंद कदम दूर ही) एक सरकारी नल पर बाल्टी, कनस्तर और प्लास्टिक के डिब्बे लिये हुये लोग जो पानी पाने के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। दरअसल ये गैरस्वाभाविक परिस्थितियाँ ही पानी के प्रबंधन और वितरण व्यवस्था की पोलें खोलती है।
निरंतर बढ़ती जनसंख्या के चलते जल स्त्रोतों पर अनुचित दबाव बन रहा है। इस दबाव के चलते स्त्रोतों का रखरखाव नहीं हो पा रहा है। आज भी देष में वर्षा का औसत 1177 मिमी के आसपास बना हुआ है। जो कि देश की आवश्यकता के लिहाज से पर्याप्त है। लेकिन फिर भी पानी के लिये हाहाकार समझ से परे है। दरअसल हमने प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के लिये न तो कोई रणनीति बनायी है न ही उनके समुचित दोहन के लिये कोई प्रक्रिया, सब मनमर्जी से चल रहा है।
हर साल गर्मियों के आते ही हालात बद से बदतर होने की खबरें सुनने को मिलती हैं जो मानसून की दस्तक के साथ ही गायब हो जाती हैं। हालात बेहतर बने रहें इसके लिये प्राकृतिक संसाधनों के प्रति संवेदनशीलता की आवश्यकता है, आखिर सवाल आने वाली पीढ़ी का भी है। यह तय है कि जल संरक्षण और प्रबंधन व्यवहार में लाने की चीज है जो सारी समस्याओं से निजात दिलाने के लिये पर्याप्त है।

संजीव परसाई

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