Tuesday, April 12, 2011

सबसे अच्छे मेरे नेता – प्यारे नेता न्यारे नेता

- संजीव परसाई -
देश को आजाद हुए लगभग ६४ साल बीत गए, और बीते सालों में देश ने काफी कुछ देखा है, सरकारों ने अपने मन माफिक निर्णय लिए और जनता को उसका राज (?) होने का अहसास कराया. विकास की तेज गति में जीवन मूल्य पीछे छूटने की शिकायत हर खास-ओ-आम ने की. इस विकास की आड़ में भ्रष्टाचार भी खूब पनपा. जो आज एक राष्ट्रीय समस्या बनते जा रहा है.
आखिर कौन सा आम आदमी है जो भ्रष्टाचार से निजात नहीं पाना चाहेगा. हर आदमी की सोच है कि अगर इससे मुक्ति मिलती है तो देश में निश्चित रूप से बदलाव होगा और उसके प्रभाव सीधे और परोक्ष रूप से लोगो के जीवन से ही जुड़े होंगे. लहर शुरू हो चुकी है, जाहिर सी बात है इस मुद्दे पर वर्तमान और पुरानी सरकारों की अच्छी खासी फजीहत हुई है. सो अब इनके सिपहसालार डैमेज कंट्रोल के लिए रणनीति बनाने में लग गए है. इसके पहले वे श्रेय लेने की होड कर रहे थे, जिसमें वे सफल भी नहीं हो सके, क्योंकि जनता को यह समझा पाना बहुत मुश्किल था की हम भ्रष्टाचार के विरोध में थे और हैं.
विभिन्न पार्टियों के कमांडो अन्ना और उनकी भ्रष्टाचार सम्बन्धी मुहिम को निशाना बनाने को उद्यत हैं, कोई अन्ना का पुराना इतिहास खंगाल रहा है, कोई उनकी कही बातों सन्दर्भ और भावार्थ की रचना में व्यस्त है, कोई उनके तारों और संबंधों की व्याख्या और जांच कराने में व्यस्त है, कोई ये जानना चाहता है की इनको मदद कौन कर रहा है, क्योंकि वे जानते हैं कि इस मुहिम में कोई राजनीतिक पार्टी तो मदद नहीं करेगी, कोई सवाल उठा रहा है कि वो होता कौन है किसी नेता को भ्रष्टाचारी कहने वाला, एक बडबोले तो कह रहे है की अगर हम सारे नेताओं को भ्रष्ट कहा जा रहा है तो गाँधी, नेहरु, भी भ्रष्ट हुए. इसका मतलब समझे आप कि महोदय अपने कद को गाँधी नेहरु के कद के बराबर मनवाने पर आमादा हैं, उफ़.......
तरस आता है जब भारतीय राजनीति को सोच और संजीदगी के लिहाज से सबसे निम्न स्तरीय करार दिया जाता है, आखिर क्यों न हो, राजनीती का मतलब अगर सिर्फ राज करने की नीति मान लिया जाये तो इसकी निम्नता में कोई कसर रह भी नहीं जाती. आज पूरी दुनिया भारत के समृद्ध जीवन मूल्यों, जीवटता, प्रखर सांस्कृतिक आभा, संस्कारवान भूत और वर्तमान आदि को भुलाकर भारत को अपने भ्रष्ट और निकृष्ट तंत्र के लिए जान रही है. हो सकता है की भारत की इस मटियामेट होती छबि की जिम्मेदारी कोई भी न ले, लेकिन इसका अहसास आम आदमी को हो चला है और वो हर उस मुहिम में साथ है, जो बदलाव के लिए होगी.
दरअसल हमें यह समझना होगा की ये मुहिम आम आदमी के बदलते सोच की छबि मात्र है. शायद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को उसकी भूमिका का अहसास हो चला है और आगे इससे भी गंभीर मुद्दे उठाये जाएँ. अतः नीति निर्धारकों को इससे बदलते जनमानस का भान हो जाना चाहिए. अब समय आ चला है कि आम आदमी भी उसकी जिम्मेदारियों को भलीभांति परख ले, क्योंकि सिर्फ एक मुहिम से जड़ का खात्मा नहीं होगा, ये तो एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो जब तक यह आदत में शुमार नहीं होगी मुहिम को सफल नहीं माना जा सकता है.

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