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Sunday, April 10, 2011

हाय डूड्स हम बदल गए हैं ....


- संजीव परसाई -

जेसिका लाल हत्या के बाद केस चलने और अपराधियों के साफ़ बरी होने पर सबसे अधिक तीखी प्रतिक्रिया किसकी आयी? मीडिया की या किसी और की नहीं ............युवाओं की.

पिछले दिनों देश का सबसे बड़े घोटाले की शक्ल में सामने आये टू और थ्री जी सामने आये, इस पर सार्वजनिक रूप से सरकार और तंत्र पर सबसे अधिक दबाव बनाने की मुहीम किसने चलाई? मीडिया ने या की जनप्रतिनिधियों ने नहीं .........देश के युवाओं ने.

रोजगार की गारंटी, भोजन का अधिकार , शिक्षा का हक आदि मुद्दों पर सबसे अधिक समर्थन कहाँ से आया जाहिर है, देश के युवाओं की और से ही. बीते सालों में विफलताओं के लिए सरकारों को लगातार कटघरे में खड़ा किया गया ये सब भी युवाओं की जागरूकता के चलते हो सका.

एक बुजुर्ग ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश को एक कर दिया और सरकार से अकेले ही भिड गया अपना गांधी वादी हथियार आमरण लेकर, इस मुहिम को देश भर में सबसे अधिक समर्थन युवाओं ने ही दिया.

दरअसल ये चंद उदाहरण हैं जो तय करते हैं की देश, दुनिया और समाज की तरह युवा भी तेजी से बदल रहा है. बुद्धिजीवी सालों से देश के युवाओं और उनकी कार्यप्रणाली को कटघरे में खड़ा करते आये हैं. दरअसल उन्हें युवाओं की सोच और कार्यप्रणाली से इत्तफाक नहीं रहा है. दुनिया भर में इस पीढ़ी को अमेरिकन मानसिकता का प्रतिनिधि कहकर धिक्कारा जाता रहा है. जिसके सामने मोबाईल, मनी और मेंटेनेंस ही सबकुछ हैं, बाकी जो कुछ भी जरूरी हो सकता है, वो इन सब के बाद ही आता है. इस पीढ़ी को यह ताना भी सहना पड़ता है की ये तो सिर्फ खुद के लिए ही जीते हैं, न तो इनके लिए परिवार का ही कोई महत्त्व है और न समाज का और न ही सरोकारों का.

आज के युवावर्ग के तौर तरीकों पर जल्दी जल्दी निर्णय लिए जाने से पूरी पीढ़ी निशाने पर आ गयी है. लेकिन आज बदलाव यह सोचने के लिए मजबूर करता है कि इस पीढ़ी को शायद जल्दबाजी में, अनसुना और अनदेखा किया गया है. दोनों पीढ़ी में सोचने का नजरिया भिन्न हो सकता है लेकिन लक्ष्य तो एक ही था.

जंतर मंतर पर अन्ना के साथ आमरण अनशन पर बैठे सैंकडों युवाओं को देखकर सोचने पर मजबूर होना पड़ता है की क्या ये वही लोग हैं जिनकी लानत मलामत की जाती रही है. अभूतपूर्व सादगी और अनुशासन के साथ सैंकडो युवा अपने बुजुर्ग मार्गदर्शक के साथ पूरी शिद्दत के साथ टिके हुए थे. उनके चेहरे पर जो प्राकृतिक ओज, निष्ठा और आत्मविश्वास की झलक दिखाई दे रही थी वह शब्दों में बयान नहीं की जा सकती है. इस आंदोलन के प्रभावों और परिणामों की व्याख्या करें तो अंततः ये सिर्फ अपने और पीढ़ी के लिए एक साफ सुथरा और हवादार वातावरण ही तो मांग रहे थे. जो किसी भी लिहाज से गैर वाजिब नहीं है. साफ़ दिख रहा है कि देश का युवा अब उन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करता हुआ दिखाई दे रहा है जिन पर की प्रायः राजनैतिक दलों और बुद्धिजीवियों का हक ही माना जाता था. साफ़ है की अब इनके पास ऐसे कई और भी मुद्दे हैं जिनपर सरकारों को जवाब देना बाकी है.

लब्बोलुआब है कि आज के युवा ने यह साबित कर दिया है वह महज भौतिक सुखों और उपलब्धियों पर मरने-मारने वाला युवा नहीं है. देश के सवालों पर वह खालिस हिन्दुस्तानी हैं, जिनके सामने तो किसी बीच के रास्ते का महत्त्व है और ही किसी नकारात्मक रवैये का.

अन्ना और उनके जैसे बुजुर्ग ये सोचकर राहत की साँसे ले सकते हैं कि उनके देश का युवा अब परिपक्व हो गया है, अब उसे बरगलाना किसी के लिए भी आसान नहीं होगा. आमीन...

भोपाल

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