विकास के दौर में जो शहरों की हालत हो रही है वो किसी से छुपी नहीं है, विकास की परिभाषा सभी ने अपनी अपनी गढ़ी है, ये मेरा विकास और ये तुम्हारा विकास, विकास की मार झेलते हुए संवेदनाएं जाग्रत हो गयीं और कविता बन गयी......
यहाँ भी खुदा है वहाँ भी खुदा है
जहाँ तक नजर जाए खुदा ही खुदा है,
मेरा पूरा शहर खोद के रख दिया
इन विकास के फर्माबर्दारों ने
सुनते हैं विकास हो रहा है !!
लगातार कट रहे हैं हरे भरे पेड़
सो रहे हैं भूखे न जाने कितने बेबस
लपलपा रहे हैं झोपड़ों से ताकती लाचारी पर
रिझाया है मुझे भी अच्छे भविष्य के सपनों ने
सुनते हैं विकास हो रहा है !!
कुछ एक बेहद खुश हैं इस खुदाई से
अधिकतर रो रहे हैं अपनी फूटी किस्मत पर
मांगते हैं रहमत ख़ुदाई से
पर क्या करें, डरते भी तो हैं ख़ुदाई से
सुनते हैं विकास हो रहा है !!
हाँ मैं भी बराबर का शरीक हूँ
क्योंकि मैं सोचता भी हूँ तो बोलता नहीं
आवाज खो जाने का डर आखिर किसे नहीं है
हमारे लिए वो ही सोचते हैं
जो कहते हैं विकास हो रहा है ...
संजीव परसाई
4 comments:
yahi hai desh ka bura haal
hum sirf mook darshak hain
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
बढिया कविता है ...वैसे परसाई जी यह आपके शहर भर की दास्ताँ नहीं है बल्कि पूरे देश का यही हाल और दर्द है .बहरहाल सामाजिक सरोकार भरे इस प्रयास के लिए बधाई
priya sanjeev,
Kavita jab bhi likhi jati he to ye man kar liki jati he kee zamane ka dard aapne apne bhitar samet liya he. kavita ke bare me nasamz ho kintu jo padha vah bhehad achha he. ease likhana jari rakhana.
Manoj Kumar
behatreen kavit ke liye badhai
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