Tuesday, May 12, 2009

उफ़ ये चुनाव - शुक्र है अब ख़त्म हुए

आज की वोटिंग के बाद पंद्रहवी लोकसभा के लिए मतदान प्रक्रिया पूरी हो जायेगी। इस बार मतदाताओं ने बहुत कुछ देखा, कुछ ऐसा की कई मौकों पर लोकतंत्र शर्मसार होते होते बचा और कई बार तो हुआ भी। इस दौरान जो चीज सबसे अधिक याद की गयी वो थे मुद्दे, इस मुद्दा विहीन चुनाव प्रक्रिया में हर कोई जानता था की किसी एक दल को बहुमत नहीं मिलना है, इस विश्वास के चलते राजनैतिक दलों के नेताओं के स्वर में लगातार तल्खी देखी गयी। क्षेत्रीय दलों ने अपनी सीमा को तोड़ कर बाहर आने का लगातार प्रयास किया और आम मतदाता को खूब वैमनस्य परोसा गया । मुद्दों के अभाव को बयानों से ढंकने की कोशिश सभी राजनैतिक दल कर रहे थे। दरअसल आम आदमी से जुड़े मुद्दों को चुनाव घोषणा पत्र में शामिल सिर्फ इसीलिए किया जाता है की वजन बना रहे , लेकिन लोगों के बीच सभाओं में और मीडिया में जो चर्चा होती है वो सर्वथा अलग ही है। 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा का 'गरीबी हटाओ', 1977 के चुनाव में इंदिरा हटाओ, 1980 के चुनाव में सरकार की स्थिरता, 1984 के चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर चली सहानुभूति लहर और 1989 के आम चुनावों में 'बोफोर्स और भ्रष्टाचार' राष्ट्रव्यापी मुद्दे बने थे। बहरहाल जो मुद्दे हो सकते थे उनपर किसी दल का ध्यान ही नहीं गया या उन्होंने उसे इस लायक नहीं समझा । क्या पर्यावरण, कानून व्यवस्था, आंतरिक सुरक्षा, न्याय, गरीबी, बेरोजगारी, एसईजेड़ के नाम पर पूरे देश में किसानों को बेदखल किया जाना, निरंतर पनपता आतंकवाद, देश की सीमायें, भ्रष्टाचार आदि मुद्दा नही हैं। दरअसल नेता पहले ही मान चुके हैं की जो पब्लिक उनकी सभाओं में आती है उसे पैसे और प्रलोभन देकर, आने जाने की व्यवस्था करके ही सभा स्थल तक लाया जाता है, अतः उस जनता का मुद्दों से कोई लेना देना तो हो ही नही सकता , इसीलिए वे मीडिया की उपस्थिति को महसूस कर जनता का भरपूर मनोरंजन करने का प्रयास करते दिखे। जनता का भोलापन और मीडिया की मजबूरी का इस चुनाव में भरपूर फायदा उठाया गया। नेताओं ने जहां भी जनता और मीडिया को देखा उन्होंने अपना मुंह खोलने में देरी नहीं की। इस प्रवाह में कुछ गली-मोहल्लों और क्षेत्रों की राजनीती करने वाले भी राज्य और राष्ट्रीय नेता बनने के लिए आतुर नजर आये और मीडिया ने भी इनका खूब साथ दया। मीडिया ने पॅकेज डील करके आम दर्शक, जो मतदाता भी है, का भरोसा खोया है।
वोट न देने वाले युवाओं का भी कोई दोष नही है, वे जो देख रहे हैं उसमें सही क्या है।

1 comment:

sanjay saxena said...

पुंगीबाज साथी आपके उदगार ने जिस तरह की व्यथा को उजागर किया हैं। वास्तव में वह जनता का नसीब बनता जा रहा हैं। इस व्यथा को ही मशहूर शायर अदमी गोडवी अपने शब्दो में व्यक्त कर चुके हैं।

काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो.हवास में