Monday, May 11, 2009

संवेदनाएं आख़िर क्यों........

बहुत दिन हुए अपने आप को जिए हुए। संवेदनाएं कभी अकेले जीने नहीं देती हैं बहुत कोशिश की कि कोई रास्ता निकले पर ऐसा नहीं हो सका। खासकर उन मौंकों पर जब मुझसे मुझे साक्षात्कार करने का मौका मिलना हो तो मैं कभी सफल नहीं हो पाता। ऐसा क्यों होता है कि किसी एक कि भी उपस्थिति भीड़ का अहसास देती है, क्या ये भ्रम है या सिर्फ थकी संवेदनाएं जो आराम चाहती हैं।
कल फिर वही दिन निकलेगा, वो ही बैचैनी भरा, हर गुजरता लम्हा इस बैचेनी की आखरी सांस लगता है, पर न जाने हर आखिरी सांस पर जीवन कि लालसा बढती हुयी प्रतीत होती है ................
क्या तुम्हें भी ऐसा ही लगता है, तुमने कहा था कि संवेदनाएं ऊर्जा विहीन करती हैं, पर हिरन कि क्या संवेदना होती है जो हर वक्त कुलांचें भरने को तैयार होता है, या कि फिर पपीहे कि जो लगातार अपने प्रिय को रागता रहता है और ये भँवरे, हमेशा गुन-गुन क्यों करते रहते हैं।
आ़खिर ये सब क्या है और किसके लिए ? क्या बैचैनी मिटे इसके लिए संवेदनाओं को मार डालें, या फिर संवेदना विहीन बनकर बैचेनी का गला घोंट दें........बहुत कठिन है।
यायावरों का काफिला किसी कवि के एकला चलो रे का राग सुनाता है.......... जब बाहर और अन्दर कि भीड़ शोर मचाती है तो एकांत का एकाकीपन का दर्शन गूंजता है। क्या करें इन संवेदनाओं का ............
मैं अपना प्यार लेकर एकांत में जा रहा हूँ शायद इस एकांत में ही सृजन का रास्ता निकले जीवन में अपने से परे कुछ बनाना शेष है और प्रयास है कि कभी अपनी मानवीय सीमायें लाँघ सकूँ, तुम साथ दोगे न.........

1 comment:

RAJNISH PARIHAR said...

एक अच्छी रचना के लिए बधाई...