
कल फिर वही दिन निकलेगा, वो ही बैचैनी भरा, हर गुजरता लम्हा इस बैचेनी की आखरी सांस लगता है, पर न जाने हर आखिरी सांस पर जीवन कि लालसा बढती हुयी प्रतीत होती है ................
क्या तुम्हें भी ऐसा ही लगता है, तुमने कहा था कि संवेदनाएं ऊर्जा विहीन करती हैं, पर हिरन कि क्या संवेदना होती है जो हर वक्त कुलांचें भरने को तैयार होता है, या कि फिर पपीहे कि जो लगातार अपने प्रिय को रागता रहता है और ये भँवरे, हमेशा गुन-गुन क्यों करते रहते हैं।
आ़खिर ये सब क्या है और किसके लिए ? क्या बैचैनी मिटे इसके लिए संवेदनाओं को मार डालें, या फिर संवेदना विहीन बनकर बैचेनी का गला घोंट दें........बहुत कठिन है।
यायावरों का काफिला किसी कवि के एकला चलो रे का राग सुनाता है.......... जब बाहर और अन्दर कि भीड़ शोर मचाती है तो एकांत का एकाकीपन का दर्शन गूंजता है। क्या करें इन संवेदनाओं का ............
मैं अपना प्यार लेकर एकांत में जा रहा हूँ शायद इस एकांत में ही सृजन का रास्ता निकले जीवन में अपने से परे कुछ बनाना शेष है और प्रयास है कि कभी अपनी मानवीय सीमायें लाँघ सकूँ, तुम साथ दोगे न.........
1 comment:
एक अच्छी रचना के लिए बधाई...
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