एक तेलुगु कहावत है की बेटी का पालन पोषण किसी दूसरे के आँगन में लगे पौधे को सींचने के बराबर है । बेटी को कुछ ही दिन का मेहमान माना जाता है और आर्थिक दृष्टि से भी उसकी खास अहमियत नही समझी जाती है इसलिए उसके विकास पर कम से कम आर्थिक संसाधन खर्च किए जाते हैं। जब सारा फायदा किसी और के घर को ही होना है तो उस फिर क्यों अच्छी खुराख और शिक्षा दी जाए। कुछेक परिवारों को छोड़ दिया जाए तो सबसे बढ़िया और पहली खुराक पर सबसे पहले पुरुषों का ही हक़ होता है , क्योंकि वे कमाकर लाते हैं। इसलिए उन्हें परिवार में सबसे अधिक सम्मान और सुविधाएँ मिलती है, उसके बाद बेटों का स्थान होता है। लेकिन वास्तव में जिन्दा रहने के प्रयासों में सबसे अधिक योगदान महिलाओं और बच्चों का ही होता है। लेकिन ये आमतौर पर कम ही दिखायी देता है और इसे आर्थिक दृष्टि से कमतर ही आँका जाता है। इसे तो हल्का फुल्का काम ही समझा जाता है जो की इन्हें करना ही चाहिए। श्रम के इस परंपरागत बंटवारे में सभी छोटे मोटे और गैर जरूरी काम महिलाओं के ही हिस्से में आते है और बेटी बचपन से ही इन्हें अपने जीवन का अभिन्न अंग मानकर अपने जीवन में संजो लेती है ।
दरअसल वर्तमान संदर्भो में बेटियों को माँ को आदर्श मानकर चलने की सलाह दी जाती है। क्योंकि वो माँ ही है जो पूरे परिवार को एक सूत्र में बाँधने में सक्षम होती है, तकलीफ होने पर भी काम करते रहना, अपने बीमारी या समस्या का किसी से जिक्र नही करना, घर में सभी को खिलाने के बाद ही बचा खुचा खाना, अपनी जरूरतों को सबसे अंत में रखना आदि सीख वो माँ से ही प्राप्त करती है। उसे लगातार माँ के ही उदाहरणों से सीख लेना होती है की किस तरह वो महिला बनकर इस दोहरे मापदंडों वाले समाज में देवी तुल्य या पूज्यनीय होगी। अब हमें ये सोचना होगा की किस तरह संवैधानिक गारंटियों के बाबजूद पुरूष समाज कई कानूनों और वैधानिक नियमों को कारगर तरीके से लागू नही होने देता है. विवाह तलाक और उत्तराधिकार के अधिकारों से सम्बंधित कानूनों के मामले में ये बात खासतौर पर लागू होती है, हमें प्रयास ये करना होगा की स्त्री पुरूष की परम्परागत भूमिकाएं और पारिवारिक सत्ता समीकरण महिलाओं को पुरुषों की राय के सामने घुटने टेकने को मजबूर न करें क्योंकि सदियों की गुलामी का शिकंजा आज भी महिलाओं पर पूरी तरह से कसा हुआ है।
(फोटो मेरे अद्भुत मित्र श्री संजय सक्सेना की प्यारी बिटिया का है )
संजीव परसाई
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