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Thursday, January 15, 2009

माँ और बेटियाँ

अरे का कुछ काम काज सीख ले, न जाने क्या होगा इस लड़की का ससुराल जाके....... ये जुमला आज भारतीय परिवारों की निशानी बन कर रह गया है। इसमें लड़कियों के प्रति उपेक्षा की भावना साफ़ दिखायी देती है और इसे समाज की मंजूरी मिलने का कारण साफ़ समझ में आता है, जब हम देखते हैं की लड़की को उसके बुनियादी अधिकारों से वंचित करने का सिलसिला उसके अपने परिवारों की चार दीवारियो से शुरू होता है। दरअसल आडम्बर और विडंबना के बीच जीना महिला की नियति बना दी गयी है। आस्कर वाइल्ड ने कहा था की सभी महिलायें अपनी माँ की तरह की होती हैं यह उनकी त्रासदी है और कोई भी पुरूष उसकी तरह नही होता है यह पुरूष की त्रासदी है। भारतीय संस्कारों में मुखिया के ही वंश चलाने की परम्पराओं से उपजे संस्कारों और धार्मिक मान्यताओं का रूप कुछ ऐसा होता है की ख़ुद बेटियाँ अपने को बेटों से तुच्छ समझने लगती हैं और समय के साथ ये भावनाएं उनके मन मस्तिष्क पर हावी हो जाती हैं। इसके फलस्वरूप उनके हिस्से आते हैं कम अवसर, कम अधिकार, कम संपत्ति, कम सम्मान, कम शक्ति, और उनकी पसंद, नापसंद का तो सवाल ही नही उठता। यहाँ ये प्रश्न उठता है की उनमें ये दीनता का भाव कैसे उत्त्पन्न हुआ, इस दीनता का स्वरुप क्या है और ये कितनी व्यापक है । अपने व्यक्तित्व और समाज में अपनी भूमिका के बारे में बेटी की धारणा पर सबसे ज्यादा असर इस बात का होता है की जन्म से उसके साथ कैसा व्यवहार किया गया है। इस कारण ही उसके मन में ये बात घर करना जाना स्वाभाविक है की लड़की के रूप में पैदा होकर उसने कोई अपराध किया है। बचपन से ही वह देखती रहती है की बेटे के जन्म पर खुशियाँ मनायी जाती है और उसके जन्मदिन पर मातम। उसे यह समझा दिया जाता है की बेटी के रूप में जन्म लेना दुर्भाग्य की बात है. वो अपने कानों से सुनती है की लड़की तो पराया धन है और अपने परिवार पर बोझ है। उसे बार बार ये सुनाया जाता है की वो तो इस परिवार में कुछ ही दिन की मेहमान है एक न एक दिन उसे ससुराल जाना ही है। उसे बार बार ये बताया जाता है की न जाने ससुराल के लोग कैसे होंगे वहाँ के हालात कैसे होंगे इसीलिए उसे सही तरीके से रहना आना चाहिए (सामान्यतया सही तरीका वही होता है जो पुरुषों द्बारा तय किया जाता है) । यदि वो कभी जिद या गुस्सा करती है तो उसे समझाया जाता है की उसे हर परिस्थिति में नम्रता से रहना सीखना चाहिए।

एक तेलुगु कहावत है की बेटी का पालन पोषण किसी दूसरे के आँगन में लगे पौधे को सींचने के बराबर है । बेटी को कुछ ही दिन का मेहमान माना जाता है और आर्थिक दृष्टि से भी उसकी खास अहमियत नही समझी जाती है इसलिए उसके विकास पर कम से कम आर्थिक संसाधन खर्च किए जाते हैं। जब सारा फायदा किसी और के घर को ही होना है तो उस फिर क्यों अच्छी खुराख और शिक्षा दी जाए। कुछेक परिवारों को छोड़ दिया जाए तो सबसे बढ़िया और पहली खुराक पर सबसे पहले पुरुषों का ही हक़ होता है , क्योंकि वे कमाकर लाते हैं। इसलिए उन्हें परिवार में सबसे अधिक सम्मान और सुविधाएँ मिलती है, उसके बाद बेटों का स्थान होता है। लेकिन वास्तव में जिन्दा रहने के प्रयासों में सबसे अधिक योगदान महिलाओं और बच्चों का ही होता है। लेकिन ये आमतौर पर कम ही दिखायी देता है और इसे आर्थिक दृष्टि से कमतर ही आँका जाता है। इसे तो हल्का फुल्का काम ही समझा जाता है जो की इन्हें करना ही चाहिए। श्रम के इस परंपरागत बंटवारे में सभी छोटे मोटे और गैर जरूरी काम महिलाओं के ही हिस्से में आते है और बेटी बचपन से ही इन्हें अपने जीवन का अभिन्न अंग मानकर अपने जीवन में संजो लेती है ।

दरअसल वर्तमान संदर्भो में बेटियों को माँ को आदर्श मानकर चलने की सलाह दी जाती है। क्योंकि वो माँ ही है जो पूरे परिवार को एक सूत्र में बाँधने में सक्षम होती है, तकलीफ होने पर भी काम करते रहना, अपने बीमारी या समस्या का किसी से जिक्र नही करना, घर में सभी को खिलाने के बाद ही बचा खुचा खाना, अपनी जरूरतों को सबसे अंत में रखना आदि सीख वो माँ से ही प्राप्त करती है। उसे लगातार माँ के ही उदाहरणों से सीख लेना होती है की किस तरह वो महिला बनकर इस दोहरे मापदंडों वाले समाज में देवी तुल्य या पूज्यनीय होगी। अब हमें ये सोचना होगा की किस तरह संवैधानिक गारंटियों के बाबजूद पुरूष समाज कई कानूनों और वैधानिक नियमों को कारगर तरीके से लागू नही होने देता है. विवाह तलाक और उत्तराधिकार के अधिकारों से सम्बंधित कानूनों के मामले में ये बात खासतौर पर लागू होती है, हमें प्रयास ये करना होगा की स्त्री पुरूष की परम्परागत भूमिकाएं और पारिवारिक सत्ता समीकरण महिलाओं को पुरुषों की राय के सामने घुटने टेकने को मजबूर न करें क्योंकि सदियों की गुलामी का शिकंजा आज भी महिलाओं पर पूरी तरह से कसा हुआ है।
(फोटो मेरे अद्भुत मित्र श्री संजय सक्सेना की प्यारी बिटिया का है )
संजीव परसाई

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