Monday, September 22, 2008

परसाई जी के पत्र

परसाईजी के नाम श्री मायाराम सुरजन जी का पत्र

देशबन्धु, रायपुर२६ अगस्त,१९७३
प्रिय भाई,यूँ तुम इस पत्र के अधिकारी नहीं हो,क्योंकि जब ५-६ महीने पहिले मैंने ५० वर्ष पूरे किये थे तो तुमने मुझ पर कोई प्रशंसात्मक लेख लिखना तो दूर रहा,बधाई की एक चिट्ठी तक नहीं भेजी। इसीलिये जब तुम पिटकर ‘आल इंडिया’ से कुछ ऊपर के ‘फिगर‘ हो गये हो तो मैंने तुम्हारी मातमपुरसी तक नहीं की। इसलिये कि कम-से-कम तुम्हारी लेखनी के लिये कुछ और नया मसाला मिलेगा।
फिर भी,बहुत दिनों से तुमसे मुलाकात नहीं हुई,इसलिये यह सार्वजनिक पत्र लिखे ही देता हूँ ताकि लोगों को यह मालूम हो जाये कि तुम्हारे भी पचास वर्ष पूरे हो गये हैं। दरअसल उम्र तो चलती ही रहती है। बात तो उपलब्धियों की है। इस उम्र में तुम्हारी कलम ने बहुत जौहर दिखाये हैं और उसकी वजह से तुम्हें अखिल भारतीय ख्याति भी प्राप्त हुई है। पर इससे क्या हुआ? तुम अभी भी ऐसे मकान में रहते हो,जिसमें बरसात का पानी चूता है,जिसके चारों ओर कोई खिड़कियाँ नहीं और कोई मकान बनाने लायक कमाई तुम कर नहीं पाये। उम्मीद थी कि सन्‌ ७२ में राज्यसभा के जो चुनाव हुये थे उसमें तुम्हारा भी एक नाम होगा, लेकिन चुनाव तो तुम लड़ नहीं सकते। जो लोग वोट देने वाले हैं,तुम उनकी ही बखिया उधेड़ते रहते हो,तब राष्ट्रपति ही तुम्हें मनोनीत करें यही एक विकल्प बाकी है। वहाँ तक तुम्हारा नाम पहुँचने के बावजूद पश्चिम बंगाल बाजी मार ले गया। दरअसल वहाँ भी बिना किसी ऊँची शिफारिश के कोई काम नहीं हो सकता। अगले साल फिर कुछ उम्मीद की जा सकती है,और तुम कुछ करोगे नहीं,इसीलिये इस लेख के द्वारा उन लोगों को याद दिलाना चाहता हूँ जो एक बार फिर इसके लिये पहल करें।चुनाव लड़ने का नतीजा तो तुम देख ही चुके हो। मुझे सिर्फ ५ वोट मिले और पं.द्वारिका प्रसाद मिश्र इसलिये मेरी मदद नहीं कर सके कि राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ,कांग्रेसाध्यक्ष कामराज तथा केंद्रीय मन्त्री मोरारजी देसाई ने श्रीए.डी.मणि के नाम बचत वोट देने का परवाना भेज दिया था।
दरअसल सिद्धान्तों के चिपके रहने से कुछ होता नहीं ,थोड़ी-बहुत चमचागिरी तो करनी ही पड़ेगी,मुसीबत यह है कि सत्ता रोज-रोज बदलती है और चमचे कुछ इस धातु के बनते हैं कि सत्ता के साथ उनके रंग भी बदल जाते हैं।तुमसे कुछ ऐसा बन सके तो मेरी सलाह है कि कुछ उद्योग जरूर करो।
म.प्र. में रहकर लिखा-पढ़ी में क्या रखा है। तुम अगर दिल्ली में रहो तो हो सकता है कि आगे-पीछे घूमने से तुम्हें भी कोई स्कालरशिप मिल जाये। एकाध स्टेनोग्राफर भी मिल सकता है और कुछ साल तुम सुखी रह सकते हो। यह तो हम कई बार विचार ही चुके हैं कि इस तरह की हेराफेरी के लिये दिल्ली का मौसम बहुत अनुकूल पड़ता है।
सिद्धान्तों से मैं भी बहुत चिपका हुआ हूँ। लेकिन अखबारों की हालत यह है कि मँहगाई का एक झोंका नहीं सह सके। पिछले साल कुछ बड़े अखबारों ने अपने विज्ञापन- दर बढ़ा दिये तो हमारे जैसे बहुत-छोटे से अखबार मार्केट से आउट हो गये। सरकार की हम जरूर दाद देते रहते हैं जो भले ही कुछ न करे,लेकिन छोटे अखबारों के साथ हमदर्दी जरूर जताती रहती है। तुम्हारी दशा इससे कुछ अलग नहीं है। तुम्हारी लेखनी पर खुश होकर तुम्हें हर साल एक-दो पुरस्कार मिल जाते हैं और इसका अर्थ यह लगा लेना चाहिये कि तुम इससे अधिक और कोई अपेक्षा मत करो।
मेरी सलाह मानो कि अपनी कुटिलता छोड़ दो। और तुम इससे बाज नहीं आते। अभी जब तुम पिटे थे तो जबलपुर नगर संघ चालक दबड़गाँवकरजी ने तुम्हें आश्वस्त किया था कि भविष्य में तुम्हारे साथ ऐसी किसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी। बेचारे दबड़गाँवकरजी का सीधा आशय यह था कि अगली बार संघ तुम्हारी रक्षा करेगा और एक तुम हो कि उसका अर्थ यह लगा लिया कि तुम्हारी पहली पिटाई संघ के स्वयंसेवकों ने ही की थी। इसीलिये तो हनुमान वर्मा का कहना है कि हम लोग तुम्हारा जो मरणोपरान्त साहित्य प्रकाशित करेंगे,उसका नाम ‘परसाई ग्रन्थमाला’ न रखके ‘परसाई विषवमन’ रखेंगे। कौन जानता है कि तुम हमें यह मौका दोगे या नहीं या हम लोग ही पहले चल देंगे।
पिटने के बाद तुमने पुलिस द्वारा कुछ न किये जाने की गुहार लगाई। अफसोस है कि शेषनारायण राय के मामले के अनुभव से तुमने कुछ नहीं सीखा। दरअसल ,पुलिस समदर्शी है। अगर कभी तुम किसी पुलिस थाने के सामने से निकले होगे तो एक बडे़ से बोर्ड पर तुमने ‘देशभक्ति और जनसेवा’ लिखा देखा होगा। बात सीधी है। जनसेवा का मतलब होता है-बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय। तुम एक हो और पिटाई करने वाले अनेक एक का साथ देना जन-सेवा नहीं होती। जिस पक्ष के लोग ज्यादा हों उनका साथ देना जनसेवा का प्रतीक है ,और वही देशभक्ति। इतनी छोटी-सी बात तुम्हारी समझ में बहुत पहिले आ जानी चाहिये थी।
तुम्हारा ख्याल है(और भी बहुत लोग ऐसा ही सोचते हैं) कि तुम बहुत अच्छे व्यंग्य शिल्पी हो। मैं भी तुम्हें जान रस्किन की कोटि का समझने लगा था। लेकिन आज किताबें उलटते-पलटते समय तुम्हारी एक किताब ‘हंसते हैं रोते हैं’ हाथ लग गयी। डेढ़ रुपये की तुम्हारी किताब को तुमने मुझे दो रुपये में बेचा था। उस पर तुर्रा यह कि प्रथम पृष्ठ पर यह लिख दिया ‘दोरुपये में भाई मायाराम को सस्नेह’। आठ आना की इस ठगी को तुम व्यंग्य के आवरण में छुपाना चाहते हो।
ज्यों-त्यों करके तुम्हें साहित्य सम्मेलन में लाये। तुमने कुछ अच्छे काम भी किये। लेकिन राजनाँदगाँव सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि तुमने आदरणीय डा.बलदेव प्रसाद जी मिश्र द्वारा दिये गये भोज को माना। सम्मेलन के अध्यक्ष पं. प्रभुदयाल अग्निहोत्री को भी तुमने नहीं छोड़ा। ऐसी स्थिति में तुम साहित्यकारों के बीच कैसे’ पापुलर’ हो सकते हो? इसलिये (श्री हनुमान वर्मा क्षमा करें) हनुमान का ख्याल है कि जिसे तुम व्यंग्य समझते हो ,दरअसल वे चुटकुले हैं।
साहित्य की बात छोडो़। मैं तुम्हें तुम्हारे ही आइने में देखना चाहता हूँ। कुछ ऐसी आदतें हैं जिन्हें तुम या तो बिल्कुल छोड़ सकते हो या सीमित कर सकते हो। यह जरूरी नहीं कि ‘किक’ मिलने पर ही अच्छे साहित्य की रचना की जा सकती है। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। इसके बाद भी श्रीबाल पांडेय ने मुझे अच्छा सम्पादक और कवि मान लिया। यह एक ऐसी सलाह है जिस पर अमल करने के लिये मैं बार-बार तुमसे आग्रह करता रहा हूँ।
तुम्हारे साहित्य का क्या जिक्र करूँ। वह अपने आपमें समृद्ध है और किसी की प्रशंसा का मोहताज नहीं । बहुत से व्यंग्यकार वाक्य के वाक्य उड़ा लेते हैं और स्वनामधन्य अखबारों में छप भी जाते हैं। अगर तुम्हारा साहित्य इस लायक न होता तो वह चोरी क्यों की जाती।
थोड़ा लिखा ,बहुत बाँचना। ५१ वीं जन्मग्रंथि पर मेरा अभिनन्दन लो और नये बरस के लिये कुछ अच्छे संकल्प लो।
तुम्हारामायाराम सुरजन
खुले पत्र का खुला जवाब:
मायाराम सुरजन को परसाई कादेशबन्धु,रायपुर७ सितम्बर,१९७३
प्यारे भाई,देशबन्धु रायपुर-जबलपुर में तुम्हारा खुला पत्र मेरे नाम पढ़ा।
आखिर हम लोग वर्षगांठों पर एकाएक ध्यान क्यों देने लगे?
तुम अपनी परम्परा से हट गये। तुमने १४-१५ संस्मरण लेख लिखे हैं, उन लोगों पर जो मृत हो गये हैं। इस बार तुमने ऐसे मित्र पर लिखा जो मारा नहीं पीटा गया है। याने तुम्हारी लेखन प्रतिभा तभी जाग्रत होती है जब कोई अपना मरे या पीटा जाये।
मैं जानता हूँ तुम अत्यन्त भावुक हो। मैंने तुम्हारी आँखों में आँसू देखे हैं। बन पड़ा तो पोंछे भी हैं। तुमने भी मेरे आँसू पोंछे हैं। पर हम लोग सब विभाजित व्यक्तित्व (स्पिलिट पर्सनालिटी) के हैं। हम कहीं करुण होते हैं और कहीं क्रूर होते हैं। इस तथ्य को स्वीकारना चाहिये।
पिछले २५ वर्षों से हम लोग मित्र रहे हैं। एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी। यार, निम्न-मध्य वर्ग के अलग संघर्ष होते हैं। इसे समझें । अब न्यूजप्रिंट के संकट का कष्ट तुम भुगत रहे हो। लेकिन तुमने’ कल’ की परवाह नहीं की। ५० साल की उमर में तुम ढीले क्योंहो रहे हो?
जहाँ तक मेरा सवाल है-मैं नहीं जानता,मुझे यश कैसे मिल गया।मैंने अपना कर्तव्य किया। पिटवाया पत्रकार मित्रों ने मुझे लगातार छापकर।वर्ना मैं कहीं समझौता करके ‘मोनोपोली’ में बैठ जाता। उन्हें बाध्य किया जाता है कि वे ‘फियेट’ कार खरीदें क्योंकि यह कम्पनी की इज्जत का सवाल है।
मैं कबीर बना तो यह सोचकर कि-
कबिरा खड़ा बजार में लिये लुकाठी हाथ।जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ।।
साथ ही-
सुन्न महल में दियना वार लेआसन से मत डोल रीपिया तोहे मिलेंगे।
मैं आसन से नहीं डोला तो थोडा़ यश मिल गया। पर तुम्हारा लिखना ठीक है कि साधना और यश के बाद भी मेरा घर चू रहा है। पर यह हम जैसे लोगों की नियति है। गा़लिब ने कहा है-
अब तो दर ओ-दीवार पे आ गया सब्जा-गा़लिब,हम बयाबाँ में हैं और घर पे बहार आई है।।
तो यह चुनने का प्रश्न है। अपनी नियति मैंने स्वयं चुनी। तुमने भी। मुझे किसी ने बाध्य नहीं किया कि मैं लिखूँ और ऐसा प्रखर व्यंग्य लिखूँ। यह मेरा अपना निर्णय था। जो निर्णय मैंने खुद लिया । उसके खतरे को समझकर लिया। उसके परिणाम भोगने के अहसास के साथ लिया।
जहाँ तक राज्यसभा की सदस्यता का सवाल है,तुम लड़े और हारे। पर तुम विचलित नहीं हुये ,इसका मैं गवाह हूँ। और तुम उसके गवाह हो कि राज्यसभा में मनोनीत होने की पहल मैंने नहीं ,एक बड़े ज्ञानी राजनैतिक नेता ने की थी। मुझे अपने घनिष्ठ मित्र का तार और ट्रंक मिले। मैं गया क्योंकि मित्र का बुलावा था। पर तब तक केन्द्र शासन इस अहंकार में था कि उसने बंगाल जीत लिया ,इसलिये सिद्धार्थ शंकर रे की चल गयी और मेरे समर्थक राजनैतिक पुरुष की नहीं चली। इंदिराजी ने उनसे पूछा था मेरे सम्बन्ध में। पर उन्होंने टालमटोल का उत्तर दिया। वे जानते थे कि उनका अवमूल्यन हो रहा है। और सिद्धार्थ की चल रही है, इसलिये मुझे शिकायत नहीं ,वे भी मेरे लेखक बन्धु हैं।
बात यह है कि जिन्दगी को मैं काफी आर-पार देख चुका हूँ। चरित्रों को मैं समझता हूँ वरना लेखक न होता। मैंने उक्त बात उन महान राजनैतिक नेता से कह दी। उनका जवाब था ,ऐसा तो नहीं हुआ। मुझसे इंदिराजी ने इस सम्बन्ध में बात ही नहीं की।
हरिशंकर परसाई

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