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Wednesday, November 26, 2025

क्रोटन

क्रोटन 
आजकल हर रविवार को भोपाल में पांच एक जगहों पर नैतिकता सम्मेलन हो ही जाते है। जिनमें नैतिकता का पारायण होता है और बताते हैं कि किस तरह नैतिकता की पालना करके हम देश और समाज को एक बेहतर दिशा दे सकते हैं। 

हफ्ते दो हफ्ते में कोई मुझे भी बुला लेता है। सो मैं भी साहित्यकार को शोभा दे, ऐसी अचकन डाल पहुंच जाता हूं। वहां सब अपने अपने ढोल और उसे पीटने के लिए लकड़ी साथ लेकर आते हैं। मैं भी इस गुल गपाड़े में शामिल होकर, अपना राग भी बजाता हूं। कुत्ते को रोटी देने का महात्म्य, गरीब की मदद, दलित प्रेम, संगठित परिवार, सामाजिक सौहार्द जैसे घिसे पिटे विषयों पर अपने विचार ठेलता हूं। मेरे ही आसपास रोजाना गोलमाल करने वाले नैतिकता पर भाषण देते हैं। जो रात गले भर के पीते, वो नशाबंदी को जायज ठहराते हैं। चपरासी तक की तनख़ा में कमीशन मांगने वाले देश को आर्थिक महाशक्ति बनाने के गुर सिखाते हैं । मैं खुद को इनसे थोड़ी बेहतर स्थिति में पाता हूं। मेरा आत्मविश्वास जिसे वो अकड़ कहते हैं, देखकर वे झेंप जाते हैं।

दर्शक दीर्घा के लोग खुश ही हैं, वो अब किसी के विचार पर उंगली नहीं उठाते। ये सबको या तो चोर मानकर चलते हैं या कि ये मात्र बतोलेबाजी का दौर है, तो गंभीरता से क्यों लेना। ये बात आयोजक भी जानते हैं, सो उनका फोकस इस बात पर होता है, की नए लोग ही आएं ।

एक वो समय भी था जब नैतिकता का वरण करने वाले सीना तानकर घूमते। हल्की बात करने वालों को खड़का देते। हल्के काम करने वालों को घर में न घुसने देते। बेईमान को मुंह पर ही सुना देते। इसके आगे जो गड़बड़ टाइप के लोग थे, उनके नाम के आगे कोई ऐसा शब्द जोड़ देते जो उसके व्यक्तित्व और चरित्र की व्याख्या कर सके। ये वो दौर था, जब स्कूली पाठ्यक्रम में भी नैतिक शिक्षा का पाठ हुआ करता था। सब मिलकर रहते, बड़ों का सम्मान करते, छोटों को खूब प्यार करते, एक दूसरे के काम आना सीखते और सदाचार की शपथ लेते। कालांतर में यही सदाचार, सदा चार के मीम चुटकुले में बदल गई।

दौर बदला, जब नैतिकता जरूरतों पर भारी पड़ना शुरू हो गई। इस दौर में सबसे ज्यादा गड़बड़ हुई, दिमाग जरूरतें और दिल में नैतिकता पाली जाने लगीं। जाहिर है लोग दिमाग का ज्यादा प्रयोग करने लगे। शायद इसी दौर में कानों के बीच रास्ता बनाया गया होगा। जिससे नैतिकता एक कान से अगर अंदर आ जाए, तो दूसरे कान के सुरक्षित रास्ते से बाहर निकल भी सके। अब नैतिकता रंग बिरंगी क्रोटन हो गई, इसका मतलब कुछ नहीं, बस शोभा के लिए आंगन में रोप लेते हैं। 

अब नैतिकता के लिहाज से सबसे बढ़िया दौर है। लोग नैतिकता की बात सुनकर हंस रहे हैं। इसका इससे अच्छा उपयोग और क्या हो सकता है भला। नैतिकता को प्रचार की दरकार हो गई। यह शब्द आचार, विचार संबंधी भाव या नीति से बना है। अब जब लूटकर खा जाने का विचार मन में छिपा बैठा हो, तो ऐसी स्थिति में नैतिकता सिर्फ बूढ़े व्याघ्र के पास सोने के कड़े सी है। 

नैतिकता का पालक अगर आम आदमी है तो बड़ी बात नहीं कि वह अपमान का शिकार हो जाए। लेकिन अगर खास हो तो उसको महान साबित करने सब एक साथ कूद पड़ेंगे।

नैतिकता के प्रहसन का लाभ सबको चाहिए, लेकिन आसरा कोई न देगा। मैंने भी बची खुची नैतिकता के तागे सहेजने की गरज से एक मोटा कंबल बनवा लिया है। उसे बस ठंड में निकालता हूं। ओढ़ो तो चुभता बहुत है, सो सहृदयता की लिहाफ में लपेट ओढ़कर चबूतरे पर बैठ जाता हूं । आने जाने वाले सम्मान से देखते हैं, उचक्के हिकारत से। जल्द ही ये कंबल अब बदलना पड़ेगा। बदरंग और झीना हो चला है। 

अब नैतिकता से आसपास के लोग खीझने, झल्लाने लगे हैं। जल्द ही वो समय भी चला आयेगा जब लोग नैतिकता के नाम पर थूंकने लगेंगे।

संजीव परसाई

जरा सी जात

अभी हम संविधान का दिन मना रहे थे, और पृष्ठभूमि में जातिवाद का लाउड म्यूजिक बज रहा था। जिसमें अजाक्स मध्यप्रदेश का नया अध्यक्ष गा रहा था कि उसे ब्राह्मण की बेटी को अपनी बहू बनाने की इच्छा है। साथ में सारे धड़ों के जातिवादी, अपना अपना साज बजा रहे थे। कुल मिलाकर मनभावन दृश्यावली है ।

सुबह सुबह राम सिंह आ गया, कहने लगा - भाई साहब, ये सब फालतू बातें हैं, अब जातिवाद है कहां?

मेरे मुंह से "लूज टॉक" निकल गया - अबे साले...
माफ करना मैं गुस्से में थोड़ा इधर उधर निकल जाता हूं...

जात के बिना आज तक कोई पैदा ही न हुआ। आदमी हो या जानवर सब इस बंधन से अनायास ही बांध दिए जाते हैं। खासकर जिस समाज का आधार ही जाति के बांस पर टिका हो, वहां यह कोई अनोखी बात नहीं।

क्या हम अभी अभी आजाद हुए हैं?
क्या हम संवैधानिक दायित्वों की अवहेलना करते हैं?
क्या हम मूलरूप से भेदभाव के पक्षधर हैं?

इन सबका जवाब - नहीं है। 

लेकिन आज जातिवाद हमारे बीच कहीं दुबक कर बैठा है, हम हैं कि खुद को आधुनिक बताने पर तुले हैं। जाति अब बोलने से ज्यादा, महसूस करने की चीज हो गई है। हमने पिछले पचास सालों में यह सीख लिया है, की कब प्रगतिशीलता का लबादा ओढ़ना है और कब उसे फेंकना है। हाल ही में बिहार चुनाव खत्म हुए, इससे जातियों पर ज्ञानार्जन हुआ। ऐसी ऐसी जातियां, जो यूपीएससी के सिलेबस में भी न पढ़ीं थीं। चुनाव के दौरान जातिवाद का नग्न नर्तन हुआ। सबने इस मंजर का आनंद लिया। अब सब अपने काम में लग गए हैं।

हकीकत ये है कि अब मोबाइल में जातिवाद के लिए, पांच डंडी का फुल नेटवर्क सक्रिय है। आदमी अपना आधार कार्ड भूल जाए, चल जाएगा… पर अपनी जात भूल जाए तो समाज उसे माफ न करे। अगर सरनेम से जाति का अंदाज न लगे, तो आदमी आसपास के किसी न किसी से पूछ ही लेता है। हालांकि जाति ढोने और भोगने की जिम्मेदारी गरीब पर सबसे ज्यादा है। सक्षम वर्ग सिर्फ खुद को स्थापित करने में लगा है। 

जात समाज के अपने गौरव तलाशे जा रहे हैं। जिन समाजों में कुरीतियों के पहाड़ खड़े हैं वो अपने गौरव पूज रहीं हैं। रामलाल का बेटा आईएएस लग गया। उसकी जात के लोगों को गर्व हुआ। 
इसी समय दूसरी जात के लोग दुखी थे, कि उनकी समाज का कोई बेटा चपरासी भी नहीं लगा। 
लड़का भी भूल गया कि उसे आईएएस देश के लिए चुना है।

हाई सोसाइटी के दृश्य और भी मज़ेदार है। अपर कास्ट के पढ़े-लिखे कहते हैं, "आई डोंट बिलीव इन कास्ट"। देखो हमारे बीच ये दो कलीग हैं, इनसे कभी किसी ने उनकी कास्ट पूछी है क्या? फिर यही लोग सोशल मीडिया पर समानता का भाषण देने के बाद व्हाट्सऐप ग्रुप में जातीय गौरव का पोस्ट डालते हैं और फिर कहते हैं—"अरे, यह तो बस जानकारी के लिए है।"

जात वह दीवार है, जिसे हमने खुद बनाया है और समय समय पर पुताई कर, रंग-बिरंगी लाइट लगाकर सजाते हैं। दीवार तोड़ने की बात करो तो लोग कहते हैं—तोड़ तो देंगे… पर अभी नहीं। पहले ये बताओ कि दीवार की नींव किसने रखी थी।" बहस शुरू हो जाती है परंपराओं की, और दीवार वहीं की वहीं खड़ी रहती है—थोड़ी और मजबूत होकर।

जात का सच यह है कि हम अपनी छोड़ना नहीं चाहते, और दूसरे की देख-देखकर जलते भी हैं। जात हमारे लिए वही है जैसे घर के बाहर रखा जूता—हम जानते हैं कि गंदा है, लेकिन बाहर से आते ही उसे साफ करके फिर पहन लेते हैं। 

अगर सोच बदले बिना जातिवाद खत्म करने की कोशिश करेंगे, तो हालत वैसी ही होगी जैसे कोई लहसुन का भभका मारते हुए कोई कहे— मैं तो खुशबूदार सोशल रिफॉर्मर हूँ। हिंदू या मुसलमान धर्म बदल सकते हैं। लेकिन क्या अहिरवार जी चाहें तो वे गुप्ता जी हो सकते हैं?

अब कोई सीधे जात पर टीका नहीं लिखता। अब जातिवाद लाखों करोड़ों लोगों के पेट ही नहीं भर रहा, वो उनको गाड़ी, बंगले, रसूख भी दिलवा रहा है। कई नेता जातिवाद का स्टार्टअप चला रहे हैं। उनका मानना है कि इससे वे समाज का भला कर रहे हैं। हम भी उनको ही समाज मानते हैं। अब जातिवाद सिर्फ वह नहीं जिससे किसी का अपमान हो, अब जातिवाद बड़ी निर्लज्जता के साथ एक हथियार की तरह उपयोग किया जा रहा है। इस माध्यम से समाज को वर्ग संघर्ष की ओर धकियाने की कोशिश भी होती है।

ये देश कभी सांप्रदायिकता और जातिवाद की बीमारी से मुक्ति की कल्पना न कर सकेगा। ये वो वायरस है, जिसको दबाए रखना ही उपलब्धि है। जब जब ये सक्रिय होता है, चारों तरफ छींक, खांसी, खुजली और बेचैनी फैल जाती है। सो, सोशल इम्यूनिटी पर ध्यान दें, जिससे हम ऐसे या किसी दूसरे वायरस से सामना करने को तैयार रहे।
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संजीव परसाई
A 40 भेल संगम सोसाइटी
भोपाल मध्यप्रदेश 
8878800027

Monday, August 4, 2025

राग दरबारी - उपन्यास से आगे

..रंगनाथ का चेहरा तमतमा गया। अपनी आवाज को ऊंचा उठाकर, जैसे उसी के साथ सच्चाई का झंडा भी उठा रहा हो, बोला "प्रिंसिपल साहब, आपकी बातचीत से मुझे नफरत हो रही है। इसे बंद कीजिए।"
प्रिंसिपल ने यह बात बड़े आश्चर्य से सुनी। फिर उदास होकर बोले,"बाबू रंगनाथ, तुम्हारे विचार बहुत ऊंचे हैं। पर कुल मिलाकर उससे यही साबित होता है कि तुम गधे हो।"
यह बात राग दरबारी के मुख्य पात्रों की आखिरी बातचीत है। कई बार ऐसा लगता है कि प्रिंसिपल साहब, ये रंगनाथ बाबू से नहीं मुझ से कह रहे हैं। कोई न कोई प्रिंसिपल, अपने आसपास के रंगनाथ को भलाई, सदाचार, मेहनत और समर्पण के कारण बुद्धू कह देता है, या मान लेता है। 
बहरहाल, राग दरबारी, साल 1968 में लिखी गई थी। अब तक मेरी जानकारी के अनुसार बयालीस संस्करण आ चुके हैं। लेकिन दूसरा भाग नहीं आया। साल 2011 में श्रीलाल शुक्ल जी ने इस शिवपाल गंज रूपी संसार को अलविदा कह दिया। लेकिन राग दरबारी हमारे बीच आज भी मौजूद है। ठीक उसी रूप में, जैसा कि लिखा गया है। उपन्यास भले ही 1968 में प्रकाशित हुआ हो, लेकिन इसके भीतर जो व्यंग्य, राजनीतिक विडंबना, नौकरशाही की चालबाजियाँ और सामाजिक ढांचे की पोल उजागर की गई है, वह आज भी उतनी ही सटीक बैठती है।

शिवपालगंज आज भी भारत में हर स्तर पर हैं जहाँ विकास योजनाएं तो आती हैं, लेकिन उसका लाभ किन्हें मिलता है यह अलग सवाल है। पंचायत राजनीति, जातिवाद, बाहुबल और सत्ता की मिलीभगत आज भी वैसी ही दिखाई देती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस और राजनीति तंत्र पर उपन्यास का व्यंग्य आज की नौकरशाही और राजनीति की विफलताओं को भी उजागर करता है। 'कॉलेज' और 'प्रिंसिपल वैद्यनाथ मिश्र' जैसे चरित्र आज भी सिस्टम के भीतर मौज़ूद अनेक ऐसे पात्रों के प्रतिनिधि हैं।
उपन्यास के पात्र (रंगा मास्टर, वैद्यनाथ मिश्र, लंगड़, बद्री पहलवान आदि) प्रतीक हैं उन लोगों के जो समाज को अपने फायदे के अनुसार चलाते हैं। ऐसे लोग आज भी हर गाँव, कस्बे, या छोटे शहर में मिल जाते हैं। यह किताब पढ़ने हुए अहसास होता है कि हम समाज, संसाधन और सुविधाओं के दुरुपयोग के लिए सीधे सक्षम वर्ग को दोषी ठहरा देते हैं। लेकिन सर्वहारा वर्ग भी कम नहीं है, जहां मौका मिलता है, चौका मार ही देता है।

शुक्ल जी की भाषा शैली, व्यंग्य और कटाक्ष आज के सोशल मीडिया के व्यंग्यात्मक कंटेंट की तरह ही प्रभावशाली है। आज जब मीम्स और सटायर आम हो गए हैं, तब 'राग दरबारी' का व्यंग्य उससे कहीं अधिक गहराई लिए होता है। असल में इस किताब में ‘विकास’ और ‘यथास्थिति वाद’ की टकराहट साफ दिखाई देती है। उपन्यास में साफ दिखाई देता है कि बदलाव की कोई भी कोशिश गांव के पारंपरिक ढांचे को असहज करती है। इसीलिए आज भी सरकार की कई नीतियाँ सिर्फ़ काग़ज़ पर लागू होती हैं, ज़मीन पर नहीं ।
"राग दरबारी" केवल एक व्यंग्यात्मक उपन्यास नहीं है, यह भारत की प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक जड़ों की पड़ताल करता है। यदि आप सिस्टम को सही सही पहचानते हैं तो मेरी बात से तत्काल सहमत हो जाएंगे।

आज जब हम 'नए भारत' की बात करते हैं, तो यह जरूरी हो जाता है कि हम "राग दरबारी" जैसे साहित्य को फिर से पढ़ें, समझें और देखें कि बदलाव की राह में क्या अब भी वही अड़चनें हैं जो तब थीं। 
यह मेरी सर्वाधिक पसंदीदा किताबों में से है। जब भी उदास होता हूं, कोई भी पन्ना पढ़ने लगता हूं। मौका मिले तो जरूर पढ़िए...अगर गांव से ताल्लुक हो तो पढ़ने में ज्यादा मजा आएगा।

जय जय ...

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Friday, July 25, 2025

सामूहिकता और सशक्तिकरण के सच

अभी पिछले दिनों एक जनप्रतिनिधि से मुलाकात हुई, वे अब तक कई नेताओं और अधिकारियों के चक्कर लगा चुके थे। उनके क्षेत्र में कुछ विकास कार्य लंबित थे, जो पैसों की कमी से पूरे नहीं हो रहे थे। उनके पास कामों की जो सूची थी, उनमें अधिकांश काम ऐसे थे, जो सामूहिक भागीदारी से संभव थे। लेकिन उनका तर्क था, अब वो दौर नहीं जब लोग आगे आकर इन कामों में सहयोग करते थे। ये बहुत हद तक सही है, लेकिन इसका जिम्मेदार कौन? 
तेजी से भागते भागते हम समाज के रूप कमजोर हो रहे हैं। ये आरोप नहीं चिंता है, और यह अकारण भी नहीं। इस आत्मकेंद्रित समाज में अब कितने लोग है, जो सामाजिक सरोकार और लोगों के हित की बात कर रहे हैं? इसके मूल में वे योजनाकार हैं, जो विकास योजनाओं में समाज की भूमिका को या तो नगण्य मानते हैं या उनको इसपर भरोसा ही नहीं। हम अपने समाज को प्रतिपल दुत्कार रहे हैं और अब यह एक सर्वसम्मत परंपरा बन रही है। पर्यावरण, प्रदूषण, कानूनों का उल्लंघन, भ्रष्टाचार, अपराध, उच्छृंखलता जो हो इसके लिए हम छूटते ही समाज को जिम्मेदार ठहरा देते हैं।
दूसरे सामूहिकता के साथ सशक्तिकरण जुड़ा हुआ है। लेकिन सशक्तिकरण से आँखें चुराने वाले भी कम नहीं हैं। ऐसे समूह चाहिए जो पेड़ लगा दें, बाग की सफाई कर दें, जनजागरुकता में जुट जाएं। लेकिन अगर वे अधिकारों, सामाजिक मुद्दों की बात करेंगे तो सिस्टम असहज हो जाएगा।
हमारे यहां कुएं खोदने, तालाब बनाने, बाग, जंगल रोपने, पहाड़ हटाने, सफाई, आपदा, संकट सब में समुदाय की भागीदारी के हजारों उदाहरण हैं। लेकिन इनके बाद भी हमारा भरोसा कैसे कम हो रहा है। स्वसहायता के मॉडल को सफल नहीं मानने वालों की बड़ी संख्या हो सकती है, लेकिन एक बहुत बड़ी आबादी सफलता की गाथाओं से भरी है। ऐसे नेता भी हैं जिनके आह्वान पर लोग घर से बाहर न झाकें, लेकिन वो नेता हैं।
समाज के आगे आने की शुरुआत नेतृत्व से होती रही है। निरर्थक जल्दबाजी के दौर में जमीनी नेतृत्व का मूल्य, भरोसा और रसूख घट गया। अब इसका खामियाजा समूचे समाज को इस रूप में देखना है कि जो काम समाज के सहारे संभव हो सकते हैं, वे भी किसी की कृपादृष्टि की आस में सालों पड़े होते हैं। अब कोई मसीहा चमत्कारी, और भरोसेमंद छबि के साथ आए और इस भ्रम को तोड़े।
एक बार फिर समाज को खंगालने की जरूरत है, लाखों लोग हैं जो कुछ सकारात्मक करना चाहते हैं। उनको आगे लाकर भरोसा दिलाने वाला चाहिए। फिर चाहे वो कोई हो..

जय जय..
संजीव परसाई

#Sanjeev Persai