Wednesday, March 11, 2020

अब राजकुमारी घर में आई है तो- (सामाजिक व्यंग्य कथा)

(संजीव परसाई) एक कस्बे में किराने की दुकान थी। दुकानदार जैसे तैसे बड़े से  परिवार का भरण पोषण कर रहा था।  उनका बेटा योग्य और महत्त्वाकांक्षी था। सो अपना आसमान तलाशने निकल पड़ा। कई जगह धक्के भी खाए, सराहना  भी मिली लेकिन उसे आने लिए वो रास्ता मिल ही गया जिसपर चलकर वह अपने सपनों को पूरा कर सकता था। कई यार मिले, दोस्त बने, हँसी खुशी मिली, दोस्ती -दुश्मनी मिली।
इसी बीच उसको एकरूपवती, गुणवती और मेधावी  राजकुमारी मिली। दोस्ती बढ़ी और प्यार में बदल गयी। दोनों घंटों साथ घूमते, बातें, विचार एक दूसरे से बांटते। राजकुमारी लड़के की बेवकूफियों पर तालियां पीटती, लड़का राजकुमारी के सौंदर्य पर मर मिटता। खुशियां मनाते, पार्टी करते, दोनों बहुत खुश थे। प्यार परवान चढ़ा और दोनों ने शादी करने का निर्णय भी ले लिया।
आसमान से फूल बरसे, देवताओं ने आशीष दिया, जन जन ने शुभकामनाएं दीं। अब बात घंटों की नहीं थी, अब वे हमेशा के लिए साथ थे। मधुमास प्रेम पूर्वक गुजरने लगा, राजकुमारी की खालिस नफासत और लड़के का देसीपन एक शानदार ब्लेंड बना रहे थे। एक दुसरे को देख आसक्त होते, जो साथ था, मिला था उसको वैभव के रूप में स्वीकार करते। जो न था उसकी अपेक्षा भी नहीं करते। लड़का हल्की हरकतें करता राजकुमारी मुसकुरा देती, राजकुमारी की ओवर सॉफिस्टिकेटेड हरकतों पर लड़का बात बदल देता। राजकुमारी एक वाक्य में एक दो शब्द हिंदी के बोलती और पीछे से यू नो ....यू नो लगाती। लड़का ओके कहकर चुप हो जाता, वहीं लड़का अतिरिक्त स्नेह में आकर गलबहियाँ करता, इंफेक्शन की आशंका के बाबजूद भी राजकुमारी प्यार जता देती, और चुपचाप बैग से सेनिटाइजर निकाल कर लगा लेती। राजकुमारी गोल्फ की और लड़का चौपड़ का शौकीन। वो क्रिकेट की बात करे तो लड़का पतंग की। लड़की सिलिन डियोन को सुनती तो लड़का रिंकिया के पापा के नाम से सरैं भरता। इस सब के बाद भी से दोनों एक दूसरे से कोई शिकायत नहीं करते, सहज रहते।
राजकुमारी उम्मीद करती कि उसके आगमन पर कोई उसके नाम का हांका लगाएगा, अनुचर राजकुमारी की जयजयकार से आसमान गुंजा देंगे, दासियाँ पलक पाँवड़े बिछा देंगी। लेकिन ये न तो सुविधा में था न रिवाज में।
एक दिन राजकुमारी के मन में पंखुड़ी स्नान की उत्कंठा जागी। लड़के ने बुरा मुंह बनाकर बाइक निकाली और फूल मंडी से एक बोरा गुलाब की पंखुड़ियां खरीद लाया। अब दुकानदार के घर में वो टब तो था नहीं जिसमें इन पंखुड़ियों को डालकर हिलोरें ली जाती। राजकुमारी दुःखी हो गई, लेकिन कहा कुछ नहीं। अब गुस्सा राजकुमारी के चेहरे पर आने लगा। लड़का चिरौरी करने लगा। उसके ऊपर गुलाब की पंखुड़ियां बरसाने लगा, उसे गोद में उठाने की कोशिश करने लगा। इस सब से राजकुमारी भड़क गई।
लड़का दुखी रहने लगा, उसे अपने प्यार पर तरस आने लगा। अपने पिता की बात सोचने लगा। वे कहते थे- बेटा हीरा या तो शो रूम में अच्छा लगता है या राजाओं के मुकुट में, धूल में न हीरा बचेगा न उसकी चमक।
सोचने लगा इस नाजों पली राजकुमारी को मैं क्या दे पाऊंगा। शायद मेरे निर्णय में ही खोट है। इसके नखरे कितने और दिन तक उठा सकूंगा। दूसरे तरफ हफ्ते भर में राजकुमारी बैचेन होने लगी, सोचती कि तात्कालिक प्रेम के वसीभूत होकर बेमेल ब्याह कर तो लिया, पर भगवान जाने अब क्या होगा। उधर दुकानदार सोचता - अब मेरे पास राजकुमारी के लिए सिर्फ ये बचा है कि दुकान में एक बड़ी कुर्सी लगा कर बैठा दूँ, और हम दोनों बाप बेटे पंखा झलेंगे और चाकरी करेंगे।
बाकी समय के ऊपर छोड़ते हैं, अब राजकुमारी घर में आई है, कितना वो खुद को बदलेगी और कितना हम खुद को और अपने तौर तरीकों को।
दुकानदार सयाना था उसने कहा अभी तो सेवा सत्कार और जय जयकार कर लो, कुछ दिन बाद या तो हमें इसकी जय जय की आदत हो जाएगी या राजकुमारी के पास हमारे अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचेगा, तब ये भी हमारे जैसी ही हो जाएगी।

(विशुद्ध सामाजिक व्यंग्य कथा है, बेवजह इसे राजनीतिक न बनाएं)

Wednesday, June 19, 2019

चिढाने और तारने वाले राम


(संजीव परसाई)  प्रेम से बोलिए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की जय, मंदिर के पुजारी द्वारा के शब्द आज भी कानों में गूंजते हैं। इन शब्दों के सहारे श्रीराम हमारे कानों और फिर दिल में उतर कर स्थाई निवासी हो गए। दिन बदले, समय बदल गया, सो राजनीति और देश भी बदल गया। इसी धारा में आठ जन्म सुधारने वाले राम भरमाने, भटकाने, सत्ता पाने से लेकर लोगों को चिढ़ाने का माध्यम कब बन गए, पता ही नहीं चला। वाकई देश बदल रहा है, अब प्रेम से और शांत मन से मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की जय बोलने के बजाए आंखों में खून उतारकर, भवें तानकर, एक हाथ में तलवार लेकर, माथे पर लाल पट्टी बांधकर फुल वाल्यूम में जय जय श्री राम का जयघोष करने का समय आ गया है, बच्चों को भी अब यही देखना दिखाना है। 
एक ठाकुर साहब थे, ये वैसे तो साइकल का धंधा करते थे। पर उनकी पसंद में कद्दू शामिल था, ये बात पूरे मोहल्ले को पता थी।  मोहल्ले के छिछोरों ने एक-दो बार उनको उसके लिए ताना दिया, सो वे चिढ़ गए, स्वाभाविक था उनकी मर्जी है कि वो क्या खाते हैं। लेकिन इस तरह छिछोरों को एक काम मिल गया, और वे यहां वहां उनको कद्दू कहकर चिढ़ाने लगे। ठाकुर साहब चिढ़ते लेकिन धीरे धीरे ये व्याधि मोहल्ले में फैलते गई, और कालांतर में कद्दू खाने वालों को ठाकुर साहब, कद्दू को ठाकुर फल और उसके बाद कद्दू खाना मजाक और शर्म का विषय माना जाने लगा। ये एक काल्पनिक चित्रण है लेकिन इसका क्रम और प्रतिफल बिल्कुल उचित है। एक प्रदेश की मुख्यमंत्री को जय श्री राम का नारा लगा कर चिढ़ाया गया, सोशल मीडिया और समाचार चैनलों ने इसे खूब बघार लगाकर परोसा इस राजनीतिक शातिराना कार्यवाही को ये कहकर समर्थन किया गया कि वे राम का नाम सुनकर नाराज हुई। अब संसद में मुस्लिम सांसद को जय जय श्री राम चिल्लाकर चिढाया जा रहा है। हालांकि चिढाने वाले और चिढने वालो दोनों का रिकार्ड कोई खास नहीं है, पर हमारे राम तो टेंशन में हैं हर भक्त कि पुकार पर भागकर आने वाले राम इन नारों से कन्फ्यूज तो जरुर हो रहे होंगे कि जो बंदा बांग लगा रहा है वो वाकई कष्ट में है या वैसे ही किसी के मजे ले रहा है चैनलों पर  रामनाम का धंधा अब दोगुना हो चला है पहले सिर्फ बाबा पेड पैकेज लेकर धर्म बेचते थे, अब पत्रकार भी इस लाइन में लग गए हैं वो भी बाबाओं से एक कदम ज्यादा बाबा राम कथा का धंधा करते हैं और पत्रकार राम कि ख़बरों का कोई चैनल खबर के नाम पर राम के पैरों के निशान खोज रहा है, तो कोई श्रीलंका में जाकर राम-रावण युद्ध के निशान मीडिया राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के बजाए उग्र और शक्तिशाली भारत के प्रतीक के रुप में स्थापित करने को आमादा है, यूँ भी हमें बरास्ते शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, गरीबी हमें शक्तिशाली देश होने में सदियों लग जाएँगी, सो तत्काल धाक ज़माने के लिए ये आसान रास्ता है। वो दिन जल्द आएगा जब घरों में सहज, सौम्य, सरल राम दरबार के बजाय आग के बैकग्राउण्ड से निकलते, हाथ में खड़ग, और तीर  कमान, दमकते चेहरे पर आक्रामकता, और बलिष्ठ भुजाओं वाले राम के चित्र लगाए जाएंगे। बहरहाल अब जमाना 'राम जी भली करेंगे' से राम जी दो लट्ठ देंगे और 'मर्यादा पुरुषोत्तम' राम जी को दृढ़ दबंग  बनाकर दिखाने का है।
राम आदिकाल से जग का सहारा बनते आये हैं, लेकिन सहारा लेने वाले रामभक्त उनका सुविधानुसार उपयोग करने लगे हैं । रामभक्त, अपने असली राम मर्यादा पुरुषोत्तम को तलाश रहे हैं, दूसरी और राम भी असली रामभक्त को तलाश रहे हैं बाकी जो है सो तो है ही।


Saturday, June 8, 2019

चिड़ियों का आना-जाना

(संजीव परसाई) बात कुछ ऐसी है कि जब देश में राजनीति और मौसम दोनों की गर्मी चरम पर है, हम अपने घरों के बाहर सकोरों में चिड़ियों के लिए पानी और दाना रख रहे थे, तभी बहशियों ने एक और फूल मसल दिया। हालांकि ऐसा नहीं कि ये पहली बार हुआ है, ऐसा पहले से होता आया है। इसके बाद आता है कुछ और दिन का उबाल, फिर सब कुछ सरकारों और कोर्ट के निर्णय पर छोड़कर अपने मौज मजे में लगे... हम लोग।
वो निर्भया के कातिलों का क्या हुआ, वो कठुआ के आरोपियों का क्या हुआ, यहां वहां देशभर के दरिंदों का क्या हुआ, अब अलीगढ़ के शैतानों का क्या होगा। असल में ये सरकारों की नाकामी है, जो सीधा संदेश देने में असफल हैं। ऐसा नहीं कि उन्हें सीधा संदेश देना आता नहीं है, दरअसल वे देना ही नहीं चाहते हैं, अब तक के अनुभव बताते हैं कि वे अधिक सख्त होने से बचते हैं। अपने काम को न्यायपालिका के सिर पर डाल कर निश्चिंत होना इनके व्यवहार में शामिल हो गया है। जिस सख्ती, शिद्दत के साथ राजनीतिक संदेश दिए और क्रियान्वित किए जाते हैं, इस तरह के मामलों में वो सख्ती कहाँ हवा हो जाती है।
सोशल मीडिया पर आंखें तरेर रहे युवा और एक्टिविस्ट जरा सोचें कि क्या वे कभी उस अभियान में शामिल हुए है जिसमें महिलाओं के सशक्तिकरण की चर्चा होती हो, उनके अधिकारों की बात होती हो या उनकी निर्णायक भूमिका की बात होती हो। ये कैसा आक्रोश है जो बाहर निकलने के लिए अवसर की मांग करता है।
अब एक नई चर्चा हो रही है, वो जो कठुआ का मामला मुस्लिम बालिका के साथ था, तब एक वर्ग ने अधिक सवाल उठाए थे, आज जिस बालिका की बात हो रही है वो हिन्दू है इसीलिए कम सवाल हो रहे हैं। ये किस मानसिकता के लोग हैं कहने की जरूरत नहीं है, लेकिन अपनी बेटियों को पहले इसी सोच के लोगों से बचाइए। जो हत्या, दुष्कर्म और बलात्कार को धार्मिक नजरिये से तौलते देखते हैं। ऐसे लोग दोनों ओर हैं। जो अपराध पर तालियाँ बजाते हैं, क्योंकि पीड़ित किसी दूसरे धर्म का है। राजनीतिक दलों से कुछ खास उम्मीद मत कीजिये, नपुंसकता के चरम पर पहुंच चुकी जो राजनीतिक व्यवस्था अपने बीच से हत्यारों और बलात्कारियों को नहीं हटा सकी है, वो बच्चियों पर होते हमलों के लिए कितनी संवेदनशील होगी सोचा ही जा सकता है। सोशल मीडिया की जानकारी के आधार पर अपनी राय बनाने वाले ये जान लें कि ये भुगतान आधारित व्यवस्था है, जिसमें जिम्मेदारी शून्य है। सबसे बड़े न्यूज चैनल का दावा करने वाले एंकर खुद गलत जानकारियां ट्वीट करके लोगों को ठगने पर आमादा हैं।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका वैसे भी संदेहास्पद हो चुकी है, भरोसा खो चुका टीवी मीडिया अब सिवाय उछलकूद के और कुछ गंभीरता नहीं परोस रहा है। साफ है कि वो जनता के एजेंडे से हटकर किसी और एजेंडे पर शिफ्ट हो चुका है। ये सरकारों की नाकामी को ढंकने के लिए फालतू मुद्दों का टाट डालने का काम जिम्मेदारी से करते हैं।
अब समय आ गया है कि अपने मासूमों की रक्षा की जिम्मेदारी खुद ही लें। हर व्यक्ति पर नजर रखें, खासकर वंचित तबके के माता-पिता को खासा जिम्मेदार बनाने की जरूरत है। आदतन अपराधियों पर पुलिसिया नजर रखे जाने की जरूरत है, साथ ही एक नागरिक के रूप में भी उनकी संदिग्ध गतिविधियों की सूचना पुलिस को देना भी जरूरी है। बहरहाल जरूरत जागरूक होने और निरंतर नजर रखने की है। अपने और आसपास के सारे बच्चों पर नजर रखिए, हो सकता है कोई गुड़िया आपके सतर्क रहने से ही बच जाए।

Sunday, June 2, 2019

चुनावी हलुआ....

(संजीव परसाई)
व्यंग्यों का चुनाव और चुनाव के व्यंग्य पढ़िए और मुस्कुराइए....
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2019 के चुनावों में बम्पर जीत इस बात का प्रमाण है कि हर बड़ा काम पढ़े लिखों की सहमति और सहयोग से ही हो ये जरूरी नहीं है।

मोदी जी की जीत पर भक्तों ने लड्डू बांटे, हमने भी खाए। भगत पूछने लगे अब तो बता दो भैया किसके साथ हो, हो हमने कहा हम लड्डू के साथ हैं। लड्डू और पकौड़े के आपसी सहसंबंध के आधार पर हम प्रधानमंत्री के साथ हैं।

पुलवामा हमले से भले ही ये पता न चला हो कि सुरक्षा में चूक का जिम्मेदार कौन था, पर चुनाव खत्म होते ही ये जरूर पता चला कि हबड़ दबड़ में हमारी वायुसेना ने अपने ही एक चॉपर को मार गिराया था।

चुनाव के दौरान सत्ता पक्ष से रोजगार और जीडीपी पर पूछो तो हत्थे से उखड़ जाते थे। चुनाव के बाद अब खुद कह रहे हैं कि बड्डे अर्थव्यवस्था और रोजगार के काम लगे पड़े हैं। गनीमत है कि इसके लिए ये पिछली सरकार को दोषी नहीं ठहरा रहे।

चुनाव में देश की सुरक्षा के लिए वोट मांगा गया, और पब्लिक ने भर भर के वोट दिया। समझ में नहीं आता न तो पाकिस्तान ने कभी हमें हराया, न उसकी औकात है पर हमें पाकिस्तान से डर क्यों लगता है। बहरहाल पाकिस्तानी शेखी बघार रहे हैं कि देखो भारत में अपना कितना टैरर है।

राहुल को मुट्ठी भर सीट लाने पर भी कांग्रेस उन्हें ही अध्यक्ष रखना चाहती है। ये ऐसा है जैसे माखन की मटकी फोड़ने पर भी कान्हा को मां दुलार ही देती है।

लोग उस सर्जीकल स्ट्राइक पर खुश हैं, जिसकी सिर्फ कहानी ही सुनाई जा सकती है। लोगों ने वोट भी दे दिए जैसे कि पब्जी में जीतने वाले बच्चे को मम्मी ने खुश होकर पिज़्ज़ा बुला दिया हो।

पाजी के परिवार का पीने, पिलाने से गहरा नाता है। पाजी खुद कुत्तों का खून पीते थे, अम्मा पीने कब पानी की मशीन बेचती हैं और अम्मा के बराबर के सन्नी हैण्डपम्प उखाड़ते हैं। ये भी माँ-बेटे का बिजिनेस मॉडल है जिसमें बेटा हैण्डपम्प उखाड़ता और अम्मा पानी की मशीन बेचने पहुंच जाती है।

2019 की असली लड़ाई तो मोदी और ममता के बीच थी। एक अपनी सत्ता बचाने के लिए लड़ रही थी दूसरा अपनी सत्ता काबिज करने के लिए। मजे की बात तो ये है कि दोनों के आगे-पीछे कोई नहीं है।

चुनाव परिणामों के एक दिन पहले मायावती जिद करने लगीं कि मुझे प्रधानमंत्री बनना है। अब अखिलेश के साथ गर्मी की छुट्टी में प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री खेल रहीं हैं। इस खेल में अखिलेश सीढ़ी से नीचे जाते हैं और मायावती सांप काटने से ऊपर।

मोदी के खिलाफ राहुल के अलावा अगर कोई सक्रिय था तो वो चंद्रबाबू और केजरीवाल थे। इन दोनों के सिर्फ एक एक सांसद जीते हैं। इनका तो खर्चा भी नहीं निकला। इसीलिए जहाज में कहा जाता है, दूसरों की मदद करने के पहले अपना सुरक्षा मास्क जरूर पहन लें।

मायावती सोच रहीं है कि अब प्रधानमंत्री बनने का सपना तो तभी पूरा होगा जब कोई छोटा मोटा देश उनको, पार्टी और अखिलेश सहित गोद ले ले।

राजनीति के खेल में अखिलेश और माया में हुआ समझौता सुनके आप पेट पकड़कर हंसोगे । इस समझौते के अनुसार मायावती पीएम बनेंगी और अखिलेश सीएम। अब मायावती अखिलेश से कह रहीं हैं कि बैट मेरा, बॉल भी मेरी, अब मैं सीएम बनूँगी। तुम 2030 में पीएम बनना।

अरनव, अंजना, सुधीर जैसे तोते अब एक जैसा काम करते हुए उकता गए हैं । अब वो प्रोपर्टी, और स्टॉक मार्केट में इनवेस्ट करके, पत्रकारिता से पीछा छुड़ाकर समाज की सेवा सकते हैं।

कांग्रेसियों द्वारा राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की मुहिम इस बार फुस्स हो गई। कई निठल्ले नेताओं ने तो मंत्री बनाए जाने की आस में सूट भी सिल्वा लिए थे। उनको कांग्रेस के हारने से ज्यादा इस बात का दुख है कि उनके सूट बेकार चले गए।

भसड़, भ्रम, भूल और भोलेपन के दौर में सबसे अधिक नुकसान में संबित पात्रा और विवेक ओबेरॉय रहे। संबित ने नाक इतनी ऊंची कर ली कि हवा की रेंज से ही बाहर निकल गया।
दूसरा अपने कैरियर के बदतर दौर में अतिउत्साह में सलमान खान, बच्चन परिवार से पंगा ले बैठा।

द्वार पर खड़ी गऊ माता पूछ रही हैं, कि क्या इस बार भी सरकार चलाने में हमारी जरूरत है या हम पन्नी खाने जाएं।


Thursday, April 25, 2019

कुछ सवाल जो छूट गए थे...

(संजीव परसाई)

पर्दा उठता है,

राजा का शून्यकाल चल रहा था। सो राजा थककर चूर होने के बाद तनिक मन और तन दोनों को शून्य स्थिति में लाकर आराम दे रहे थे। जिससे आगे की राह के लिए ऊर्जा जमा हो सके।
दृश्य में अचानक एक मसखरे की एंट्री होती है
मसखरा अर्ज करने लगा - राजा साहेब, शून्य काल चल रहा है, कोई खास काम तो है नहीं, आओ बात करें, आप खुश हो जाओ तो जो आपको ठीक लगे मुझे इनाम दे दीजियेगा।
राजा ने पूछा-इसमें मेरा क्या फायदा???
मसखरे ने चकित होने का अभिनय किया , उसने कहा -ये सब तो मैं आपको खुश करने के लिए करना चाहता हूं, सरकार ।
राजा ने टका सा जवाब दे दिया - मैं तो वैसे ही खुश हूं। अब मसखरा रिरियाने लगा, अपने परिवार, काम धंधे की दुहाई देने लगा। रिरियाते हुए उसने पूछ लिया राजा जी, आपका भी कोई फायदा नुकसान होता है क्या?
मुझ गरीब का भी फायदा उठाओगे, इस राज्य में प्रजा, खजाना, सिस्टम, कोर्ट, सेना, पुलिस सब तो आपके ही हैं।
राजा ने कहा ये तो वो सब हैं, जो हमारा है ही, लेकिन जब तू मुझसे बात करेगा, सो फायदा तो तुझे भी होगा, मैं उस फायदे में से अपने फायदे की बात कर रहा हूँ।
मसखरा सन्नाटे में आ गया। कहने लगा - सरकार कुछ ऐसी बात करते हैं, जो आपकी, मेरी दोनों के फायदे की हो। हम सवाल सवाल खेलते हैं। मैं कुछ आसान से सवाल पूछूँगा, आप उनके आसान से जवाब दीजिए। बस इसे मीडिया में ठेल देंगे, लोगों को लगेगा कि हमारे राजा दूसरों से कितने अलग हैं।
आइडिया काम कर गया, मंत्री ने सवाल फाइनल कर दिए, मसखरे ने हिल हिलकर, हिनहिनाने का अभिनय करते हुए सवाल पूछे, राजा ने आत्ममुग्ध होकर जवाब भी दिए। सब खुश हुए, लोगों ने तालियाँ बजाई, मसखरा दरबार में जगह पाने में सफल रहा।
जनता ने इंटरव्यू देखकर पर माथा पीटने का अभिनय किया, जनता सोच रही थी कि राजा उनके सवालों पर बोलेंगे लेकिन मसखरे ने सब गड़बड़ कर दी। मीडिया ने जनता में हाहाकार मचने का अभिनय किया।
राजा ने मंत्री को बुलाया, कहने लगे - इस विदूषक ने तो समस्या खड़ी कर दी। अब जनता खीझ रही है, मंत्री ने पलेथन लगाया - सरजी वैसे सारे सवाल जनता के ही तो थे। जैसे आप आम कैसे खाते हैं, आप 10 साल की उम्र में कितने साल के थे, आप रोटियां अचार के साथ खाते थे या चटनी के साथ।
ये सब सवाल ही तो हमारी जनता के मन से निकले थे। कुछ लोग सवालों पर सवाल उठाकर उन सवालों पर सवालिया निशान लगा रहे हैं जो जनता के असली सवाल हैं। बाकी आप जो कहें वो हो जाएगा।
राजा ने कहा एक काम करो जनता से फिर से सवाल ले लो, पर देखना इस बार कोई गड़बड़ नहीं होना चाहिए। जी सरकार कहकर मंत्री पलटने ही वाला था कि राजा जी के मन में एक सवाल कौंधा, कि अगर जनता ने कोई आड़ा तिरछा सवाल पूछ लिया तो क्या होगा। मंत्री भी एक बारगी सोच में पड़ गया। कहने लगा - सरजी हमारी जनता दो क्लियर भाग में बंटी हैं। एक भाग की जनता कहती है कि राजा साहब से कोई सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए, दूसरे भाग की जनता मानती है कि सवाल पूछने से भी कुछ होना नहीं है। बाकी आप चिंता न करें, में सब संभाल लूंगा। राजा को थोड़ा संतोष हुआ। अब मंत्री जनता से उनके सवाल पूछने लगा।
दृश्य दो - हफ्ते भर बाद मंत्री सिर झुकाकर दरबार में आया- साहेब मुझे माफ़ कर दीजिए, जनता ने तो वाकई कठिन सवाल पूछ लिए। चिंतित होने का अभिनय करते हुए राजा ने सवाल पढ़ने का आदेश दिया -
पहला राजा पहले डेढ़ रोटी और दाल खाते थे, क्या अब भी खाते हैं? दूसरा था राजा ने दुनिया के बडे राजे रजवाड़ों के साथ सेल्फी ली है, कोई दूसरा राजा बचा है जिसके साथ सेल्फी अभी लेना बाकी है। तीसरा सवाल राजा पहले आप गरीब थे, तब आप सुबह सुबह दिशा मैदान के लिए जाते थे तब लोटा प्लास्टिक का पसंद करते थे या कांसे का?
चौथा सवाल अब तो आप राजा है, सो  महल में टॉयलेट बना ही होगा, सो देश की जनता जानना चाहती है कि आप सुबह देसी पर आसन जमाते हैं या विदेशी पर। पांचवा था कि आप नाखून महीने में कितनी बार काटते हैं, आप शैम्पू-साबुन कौन सा यूज करते हैं। आपके कपड़ों पर इलेक्टिक आयरन होता है या स्टीम आयरन। सबसे कठिन सवाल पढ़ते हुए मंत्री के हाथ कांपने लगे और जवान लड़खड़ाने लगे, सवाल था  - आपको सिंगर में रफी पसंद हैं या खंडवा वाले किशोर कुमार। सवाल पढ़ते पढ़ते मंत्री की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा, और वो मूर्छा गति को प्राप्त हो गया। राजा सोचने लगे- पड़ेंगा, कुछ तो करना ही पड़ेंगा..
पृष्ठभूमि में हवाओं की सन्न सन्न, ढोल नगाड़ों की आवाज और दूर से आतीं हल्की चीखों के साथ मधुर संगीत बजने लगे।

पर्दा गिरता है


Wednesday, March 20, 2019

रंगों का लोकतंत्र


(संजीव परसाई) भारत के लोकतंत्र को अनेकता में एकता का लोकतंत्र कहा जाता है। यहां अनेकता का अर्थ अनेक रंगों से है। सभी राजनीतिक दलों ने लोकतंत्र को अपने अपने रंग में रंग दिया है। दृश्य यह है कि देश का लोकतंत्र उघाडे़ बदन बीच सड़क में उकडू बैठा हुआ है और सारे दल अपने रंगों की बाल्टी लेकर उसपर हमला करने को तैयार हैं।
केसरिया, हरा, लाल, पीला, सफेद सबने अपनी अपनी सुविधा से इन रंगों को अपने लिए चुन लिया है। बाजार भी इन रंगों से अटा पड़ा है, होली हो या न हो ये रंग हमारे जीवन और लोकतांत्रिक संस्कृति में रमते जा रहे हैं। चुनावों में रंगों का प्रयोग भर भर कर होगा, जिससे वोटर अपने अपने पसंदीदा रंग को चुन सकें और अपने पसंद के रंग को अपने जीवन का हिस्सा बना लें। इस प्रकार मूलतः न तो यह सिद्धांतों का चुनाव है, न वादों के पूरा होने का, न कारगुजारियों पर चर्चा का। यह तो बस रंगों की मार्केटिंग का चुनाव है। नेता वोटर्स को अपने अपने रंग में रंगने को बेताब हैं। जो अपने रंग में ज्यादा लोगों को रंग सका वो जीता हुआ मान लिया जाएगा। उसे अगले पांच साल देश को अपने पसंदीदा रंग में रंगने का अधिकार संविधान से मिल जाएगा।
सारे नेता चिंतित हैं, कि इस होली कौन अपने रंग से वोटर्स को रंग सकेगा। सोशल मीडिया पर अपने रंग की बाल्टी लेकर प्यादों को खड़ा कर दिया गया है। ये प्यादे हर आने जाने वाले पर अपना रंग गुब्बारों में भर भर कर फेंक रहे हैं। जो विरोध दर्ज करे उसपर मल फेंक कर भाग रहे हैं। उसे हुरियारों की तर्ज पर गालियों की बौछार कर रहे हैं। बेचारा वोटर क्या करे, सो वो सोशल मीडिया की सड़क पर निस्पृह भाव से खड़ा होकर सभी दलों को अपने पर सारे रंगों को डालने की मौन व असहज सहमति दे देता है। वे निदृयता से उसके साथ होली खेल रहे हैं, उसे नोंच रहे हैं। अपने घर जाकर उन रंगों को घिस घिस कर निकाल रहा है। कुछ चालू वोटर भी हैं जो अपने घर से ही वैसलीन, क्रीम या तेल लगाकर निकल रहे हैं, कोई भी कोई रंग डाले उनपर चढ़ता ही नहीं है। वो सिर्फ रंगों की शिक्षा, रंगों के रोजगार, रंगों से स्वास्थ्य और गरीबी के रंगों के बारे में सोचते हैं। वे फालतू और घटिया रंगों को अपने पर चढ़ने देते हैं न ही किसी खास रंग की होली में शामिल होते हैं। हालांकि कुछ फुरसतिए जरूर हैं जो न सिर्फ रंगों की इस भचाभच में शामिल होते हैं बल्कि वे रंग में डूबकर नाचते हैं और इतराते हैं। कुछ समाचार चैनलों ने भी रंगों के लोकतंत्र की स्थापना में अपना योगदान देने का प्रण लिया है। हालांकि उनका योगदान उनको मिलने वाले गुलाबी रंग के नोटों तक ही सीमित है। वे अपनी सफलता को मिलने वाले नोट की ढेरी की उंचाई से आंकते हैं। उनका बिल्कुल सीधा फंडा है, जिसके पास गुलाबी रंग की ढे़री जितनी बड़ी होगी उसका चैनल उतना ही कलरफुल होगा, और उसकी होली उतनी ही शानदार। रंगों के प्रचार में घिसे-पिटे, हारे-थके अभिनेताओं की भी खासी भूमिका है। इन्हें भी सबसे अधिक गुलाबी रंग ही प्रभावित करता है। ये गुलाबी रंग लेकर किसी भी रंग का टवीट कर रहे हैं। जिनके आज नामलेवा नहीं बचे हैं उनके फैन क्लब सोशल मीडिया की वैतरणी में उतरा रहे हैं, और हल्के और घटिया रंग लेकर वे अपने तथाकथित फैन को रंगने के लिए बैठे हुए हैं। सारे दल इस होली पर अपने रंग को सबसे बढ़िया दिखा रहे हैं। नेताजी फागुनलाल कहते हैं कि हमारा रंग सबसे अच्छा और पक्का है, पिछले 60 सालों से आपने जो रंग लगा रखा था वो घटिया था। इसके जवाब में दूसरे कहते हैं कि हमारा रंग आसान है, जल्दी से चढ़ता है उतरने में कष्ट नहीं देता। फागुनलाल का रंग एक बार चढ़ गया तो चमड़ी लेकर ही निकलेगा। वोटर कह रहा है कि रंग भी डाल लेना कर्मजलो पहले एकाध गुझिया तो पेट में जाने दो। सारे उसपर चीख रहे हैं, अबे भुखमरे तुझे खाने की पड़ी है। अभी तो रंगों का ही मामला नहीं सुलझा है।
लोकतंत्र के इस बाजार में घटिया रंगों की भरमार है। जिनका एक बार शरीर पर लगना नासूर पालने जैसा है। नेताओं ने अपने रंगों को अच्छा दिखाने और वोटरों के अंग अंग रंगने के लिए वादों की पिचकारी भी साथ में ही देने का चलन बना लिया है। भूख और बेरोजगारी से हताश वोटर वादों की पिचकारी में रंग भरकर खुदपर ही डाले चला जा रहा है। इन रंगों में सराबोर होने से टीस कम होती है। उधर लोकतंत्र खुद के तीन रंग तलाश कर रहा है जिसमें रंगकर वो इस देश को एकाकार कर सकता था। पेड़ पर छिपकर बैठा संविधान काला रंग लेकर इन बदमाश हुरियारों को सबक सिखाने के लिए मौका देख रहा है।

(cartoon - Sabhaar Oneindia)

Sunday, March 10, 2019

स्वच्छ भोपाल - शर्मिंदगी की सर्जिकल स्ट्राइक

( संजीव परसाई) दृश्य 1 - लो जी, अपना भोपाल दो से उन्नीस नंबर पर आ गया। नगर निगम इसका जिम्मेदार है, कर्मचारी काम नहीं करते हैं, सरकार ने सुविधाएं नहीं दी, बजट कम पड़ गया था, अधिकारियों ने न तो मेहनत की न ही अपने पूरे प्रयास किये आदि आदि इत्यादि। अखबारों की हेडलाइनस उन्नीस नंबर पर फिसला भोपाल, नगर निगम की नाकामी आई सामने, बरसों से जमे अधिकारियों ने दिखाया भोपाल शहर को नीचा, करोड़ों खर्च करके भी हाथ से निकला नंबर 2 का ताज।
दृश्य 2 - सिटी में केबल स्टे ब्रिज के उद्घाटन के चार दिन बाद उस ब्रिज को पान की पीक से रंग दिया गया, दुःखी होकर महापौर ने खुद वो पान की पीके साफ कीं। शहर में सूखे और गीले कचरे के लिए जगह जगह अंदर ग्राउंड डस्ट बिन लगे हुए है, प्रयास है कि कचरा उनके अंदर ही रहे लेकिन हालत यह है कि लोग कचरा उसके बाहर ही फेंकते हैं, मजे की बात यह है कि ये उन इलाकों की बात है जहाँ तथाकथित पढ़ी लिखी आबादी रहती है।
दृश्य 3- शहर की कालोनियों में सभ्रान्त लोग रहते हैं, लेकिन अधिकांश टाउन शिप के आसपास कूड़े के ढेर लगे हुए है, अब आप सोच रहे होंगे कि ये कचरा कहाँ  से आया, इसका जवाब है उन्हीं पढ़े लिखे धनाढ्य लोगों के घरों से, जो अपने फ्लैट की बालकनी से कचरे की थैली सीधे निशाना लगाकर उछालते हैं, वाह क्या निशाना है। दूसरी बात ये मूर्ख धन्नासेठ अपने घरों में जानवर पालने के शौकीन हैं, स्टेटस सिंबल का सवाल भी तो है। सुबह शहर की सड़कों को खुली आवोहवा को कुत्तों का संडास बनाने में इनका बहुत बड़ा योगदान है। अब इनको कौन समझायेगा।
दृश्य 4 - क्या आप जानते हैं कि प्रदेश में अमानक प्लास्टिक पूरी तरह से बेन है, लेकिन जरा बाजारों में घूमकर आइए। शायद ही कोई ऐसी दुकान हो जहाँ पॉलिथीन न मिले। शायद ही कोई ऐसा ग्राहक हो जो अपने घरों से थैला लेकर चलता हो, और पॉलीथिन न मांगे। इसके साथ प्रदेश में खुले में शौच करने, कचरा फेंकने, नालियों में कचरा डालने, कचरा जलाने, जल स्रोतों को प्रदूषित करने आदि पर पाबंदी है। लेकिन कितना लोगों की समझ में आ रहा है, यह भी देखने की बात है।
दृश्य 5 - अब आप ये भी सोच रहे होंगे कि जब शहर में ये सब चल रहा है तो नगर सरकार क्या कर रही है। क्या ये सब उनकी जिम्मेदारी नहीं है। बिल्कुल है, उन्होंने विशेष अभियान चलाए, इंफ़्रा की व्यवस्था की, नियम कायदे बनाए, उनको लागू किया, अवहेलना करने वालों पर जुर्माना भी किया। नहीं किया तो बस इतना कि अपनी जिम्मेदारी न समझने वालों को डंडे नहीं मारे, उनपर आपराधिक केस न दर्ज करवाये, अमानक प्लास्टिक का उपयोग करने वालों को जेल न भिजवाया। अगर आप ये भी उम्मीद कर रहे थे तो वाकई नगर निगम जिम्मेदार है।
जिस शहर के नागरिक जिम्मेदार न हों, शहर की आत्मा से न जुड़े हों, अपने कर्तव्य को भूलकर सिर्फ अधिकारों और टीका टिप्पड़ी पर फोकस करते हों, उस शहर का 19 नंबर पर आना भी कोई चमत्कार से कम नहीं है। हालांकि भोपाल अब भी देश की स्वच्छ राजधानी है लेकिन नंबर 2 का ताज छिन जाने के लिए इस शहर के सभ्य, पढ़े लिखे शहरी भी उतने ही जिम्मेदार हैं, जिनके ऊपर शर्मिंदगी की सर्जिकल स्ट्राइक होना चाहिए।