Wednesday, July 9, 2008

विकासवाद के विरुद्ध

प्रणाम करने की मुद्रा में वे इतना झुके की
देखते ही देखतेगायब होने लगी
रीढ की हड्डीपार्श्व में उभरने लगी
एक दुमवक्त बेवक्त
मालिकों के आगे हिलाने के लिये
कान फैलकर लंबे हो गये
सिर्फ चुगली सुनने के लिये
नाखून पैने हो गये
हाथ पंजों में बदल गये
पर अजीब बात
की कटोरा फिर भी सलामत रहा
आत्मा नाम की चीज का पता नहीं क्या होता
अच्छा हुआ कि वह पहले से गायब थी
कण्ठ से वाणी छिन गयी
रह गयी सिर्फ कुकुआने की आवाज
हां साहब यस सरजी हुजूर
बोलिये माइ-बाप जुबान पर धार नहीं रही
लपलपाने लगी जीभ
सिर्फ मुफ्त के माल पर
हक की रोटी में भला स्वाद कहां से आता
जब बिना लडे सहज ही मिलने लगी
जूठन में बोटियां
फेंकी हुई हड्डियों के चंद टुकडों के लिये
अपनी ही बिरादरी पर गुर्राने वालो
तुम्हारी शक्लें तो मनुष्यों सी है
पर सच सच बताना
असल में तुम्हारी नस्ल क्या है
अल्लाहबाद से नीरज सहगल ने मेल किया है, कवि श्री दिनेश चौधरी।

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