(संजीव परसाई) एक कस्बे में किराने की दुकान थी। दुकानदार जैसे तैसे बड़े
से परिवार का भरण पोषण कर रहा था। उनका बेटा योग्य और महत्त्वाकांक्षी था। सो अपना
आसमान तलाशने निकल पड़ा। कई जगह धक्के भी खाए, सराहना भी मिली लेकिन उसे आने लिए वो रास्ता मिल ही गया
जिसपर चलकर वह अपने सपनों को पूरा कर सकता था। कई यार मिले, दोस्त बने, हँसी खुशी मिली,
दोस्ती -दुश्मनी मिली।
इसी बीच उसको एकरूपवती, गुणवती और मेधावी राजकुमारी मिली। दोस्ती बढ़ी और प्यार में बदल गयी।
दोनों घंटों साथ घूमते, बातें, विचार एक दूसरे से बांटते। राजकुमारी लड़के की बेवकूफियों
पर तालियां पीटती, लड़का राजकुमारी के सौंदर्य पर मर मिटता। खुशियां मनाते, पार्टी करते,
दोनों बहुत खुश थे। प्यार परवान चढ़ा और दोनों ने शादी करने का निर्णय भी ले लिया।
आसमान से फूल बरसे, देवताओं ने आशीष दिया, जन जन ने शुभकामनाएं
दीं। अब बात घंटों की नहीं थी, अब वे हमेशा के लिए साथ थे। मधुमास प्रेम पूर्वक गुजरने
लगा, राजकुमारी की खालिस नफासत और लड़के का देसीपन एक शानदार ब्लेंड बना रहे थे। एक
दुसरे को देख आसक्त होते, जो साथ था, मिला था उसको वैभव के रूप में स्वीकार करते। जो
न था उसकी अपेक्षा भी नहीं करते। लड़का हल्की हरकतें करता राजकुमारी मुसकुरा देती, राजकुमारी
की ओवर सॉफिस्टिकेटेड हरकतों पर लड़का बात बदल देता। राजकुमारी एक वाक्य में एक दो शब्द
हिंदी के बोलती और पीछे से यू नो ....यू नो लगाती। लड़का ओके कहकर चुप हो जाता, वहीं
लड़का अतिरिक्त स्नेह में आकर गलबहियाँ करता, इंफेक्शन की आशंका के बाबजूद भी राजकुमारी
प्यार जता देती, और चुपचाप बैग से सेनिटाइजर निकाल कर लगा लेती। राजकुमारी गोल्फ की
और लड़का चौपड़ का शौकीन। वो क्रिकेट की बात करे तो लड़का पतंग की। लड़की सिलिन डियोन को
सुनती तो लड़का रिंकिया के पापा के नाम से सरैं भरता। इस सब के बाद भी से दोनों एक दूसरे
से कोई शिकायत नहीं करते, सहज रहते।
राजकुमारी उम्मीद करती कि उसके आगमन पर कोई उसके नाम का हांका
लगाएगा, अनुचर राजकुमारी की जयजयकार से आसमान गुंजा देंगे, दासियाँ पलक पाँवड़े बिछा
देंगी। लेकिन ये न तो सुविधा में था न रिवाज में।
एक दिन राजकुमारी के मन में पंखुड़ी स्नान की उत्कंठा जागी।
लड़के ने बुरा मुंह बनाकर बाइक निकाली और फूल मंडी से एक बोरा गुलाब की पंखुड़ियां खरीद
लाया। अब दुकानदार के घर में वो टब तो था नहीं जिसमें इन पंखुड़ियों को डालकर हिलोरें
ली जाती। राजकुमारी दुःखी हो गई, लेकिन कहा कुछ नहीं। अब गुस्सा राजकुमारी के चेहरे
पर आने लगा। लड़का चिरौरी करने लगा। उसके ऊपर गुलाब की पंखुड़ियां बरसाने लगा, उसे गोद
में उठाने की कोशिश करने लगा। इस सब से राजकुमारी भड़क गई।
लड़का दुखी रहने लगा, उसे अपने प्यार पर तरस आने लगा। अपने
पिता की बात सोचने लगा। वे कहते थे- बेटा हीरा या तो शो रूम में अच्छा लगता है या राजाओं
के मुकुट में, धूल में न हीरा बचेगा न उसकी चमक।
सोचने लगा इस नाजों पली राजकुमारी को मैं क्या दे पाऊंगा।
शायद मेरे निर्णय में ही खोट है। इसके नखरे कितने और दिन तक उठा सकूंगा। दूसरे तरफ
हफ्ते भर में राजकुमारी बैचेन होने लगी, सोचती कि तात्कालिक प्रेम के वसीभूत होकर बेमेल
ब्याह कर तो लिया, पर भगवान जाने अब क्या होगा। उधर दुकानदार सोचता - अब मेरे पास राजकुमारी
के लिए सिर्फ ये बचा है कि दुकान में एक बड़ी कुर्सी लगा कर बैठा दूँ, और हम दोनों बाप
बेटे पंखा झलेंगे और चाकरी करेंगे।
बाकी समय के ऊपर छोड़ते हैं, अब राजकुमारी घर में आई है, कितना
वो खुद को बदलेगी और कितना हम खुद को और अपने तौर तरीकों को।
दुकानदार सयाना था उसने कहा अभी तो सेवा सत्कार और जय जयकार
कर लो, कुछ दिन बाद या तो हमें इसकी जय जय की आदत हो जाएगी या राजकुमारी के पास हमारे
अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचेगा, तब ये भी हमारे जैसी ही हो जाएगी।
(विशुद्ध सामाजिक व्यंग्य कथा है, बेवजह इसे राजनीतिक न बनाएं)