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Monday, August 4, 2025

राग दरबारी - उपन्यास से आगे

..रंगनाथ का चेहरा तमतमा गया। अपनी आवाज को ऊंचा उठाकर, जैसे उसी के साथ सच्चाई का झंडा भी उठा रहा हो, बोला "प्रिंसिपल साहब, आपकी बातचीत से मुझे नफरत हो रही है। इसे बंद कीजिए।"
प्रिंसिपल ने यह बात बड़े आश्चर्य से सुनी। फिर उदास होकर बोले,"बाबू रंगनाथ, तुम्हारे विचार बहुत ऊंचे हैं। पर कुल मिलाकर उससे यही साबित होता है कि तुम गधे हो।"
यह बात राग दरबारी के मुख्य पात्रों की आखिरी बातचीत है। कई बार ऐसा लगता है कि प्रिंसिपल साहब, ये रंगनाथ बाबू से नहीं मुझ से कह रहे हैं। कोई न कोई प्रिंसिपल, अपने आसपास के रंगनाथ को भलाई, सदाचार, मेहनत और समर्पण के कारण बुद्धू कह देता है, या मान लेता है। 
बहरहाल, राग दरबारी, साल 1968 में लिखी गई थी। अब तक मेरी जानकारी के अनुसार बयालीस संस्करण आ चुके हैं। लेकिन दूसरा भाग नहीं आया। साल 2011 में श्रीलाल शुक्ल जी ने इस शिवपाल गंज रूपी संसार को अलविदा कह दिया। लेकिन राग दरबारी हमारे बीच आज भी मौजूद है। ठीक उसी रूप में, जैसा कि लिखा गया है। उपन्यास भले ही 1968 में प्रकाशित हुआ हो, लेकिन इसके भीतर जो व्यंग्य, राजनीतिक विडंबना, नौकरशाही की चालबाजियाँ और सामाजिक ढांचे की पोल उजागर की गई है, वह आज भी उतनी ही सटीक बैठती है।

शिवपालगंज आज भी भारत में हर स्तर पर हैं जहाँ विकास योजनाएं तो आती हैं, लेकिन उसका लाभ किन्हें मिलता है यह अलग सवाल है। पंचायत राजनीति, जातिवाद, बाहुबल और सत्ता की मिलीभगत आज भी वैसी ही दिखाई देती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पुलिस और राजनीति तंत्र पर उपन्यास का व्यंग्य आज की नौकरशाही और राजनीति की विफलताओं को भी उजागर करता है। 'कॉलेज' और 'प्रिंसिपल वैद्यनाथ मिश्र' जैसे चरित्र आज भी सिस्टम के भीतर मौज़ूद अनेक ऐसे पात्रों के प्रतिनिधि हैं।
उपन्यास के पात्र (रंगा मास्टर, वैद्यनाथ मिश्र, लंगड़, बद्री पहलवान आदि) प्रतीक हैं उन लोगों के जो समाज को अपने फायदे के अनुसार चलाते हैं। ऐसे लोग आज भी हर गाँव, कस्बे, या छोटे शहर में मिल जाते हैं। यह किताब पढ़ने हुए अहसास होता है कि हम समाज, संसाधन और सुविधाओं के दुरुपयोग के लिए सीधे सक्षम वर्ग को दोषी ठहरा देते हैं। लेकिन सर्वहारा वर्ग भी कम नहीं है, जहां मौका मिलता है, चौका मार ही देता है।

शुक्ल जी की भाषा शैली, व्यंग्य और कटाक्ष आज के सोशल मीडिया के व्यंग्यात्मक कंटेंट की तरह ही प्रभावशाली है। आज जब मीम्स और सटायर आम हो गए हैं, तब 'राग दरबारी' का व्यंग्य उससे कहीं अधिक गहराई लिए होता है। असल में इस किताब में ‘विकास’ और ‘यथास्थिति वाद’ की टकराहट साफ दिखाई देती है। उपन्यास में साफ दिखाई देता है कि बदलाव की कोई भी कोशिश गांव के पारंपरिक ढांचे को असहज करती है। इसीलिए आज भी सरकार की कई नीतियाँ सिर्फ़ काग़ज़ पर लागू होती हैं, ज़मीन पर नहीं ।
"राग दरबारी" केवल एक व्यंग्यात्मक उपन्यास नहीं है, यह भारत की प्रशासनिक, सामाजिक और राजनीतिक जड़ों की पड़ताल करता है। यदि आप सिस्टम को सही सही पहचानते हैं तो मेरी बात से तत्काल सहमत हो जाएंगे।

आज जब हम 'नए भारत' की बात करते हैं, तो यह जरूरी हो जाता है कि हम "राग दरबारी" जैसे साहित्य को फिर से पढ़ें, समझें और देखें कि बदलाव की राह में क्या अब भी वही अड़चनें हैं जो तब थीं। 
यह मेरी सर्वाधिक पसंदीदा किताबों में से है। जब भी उदास होता हूं, कोई भी पन्ना पढ़ने लगता हूं। मौका मिले तो जरूर पढ़िए...अगर गांव से ताल्लुक हो तो पढ़ने में ज्यादा मजा आएगा।

जय जय ...

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Friday, July 25, 2025

सामूहिकता और सशक्तिकरण के सच

अभी पिछले दिनों एक जनप्रतिनिधि से मुलाकात हुई, वे अब तक कई नेताओं और अधिकारियों के चक्कर लगा चुके थे। उनके क्षेत्र में कुछ विकास कार्य लंबित थे, जो पैसों की कमी से पूरे नहीं हो रहे थे। उनके पास कामों की जो सूची थी, उनमें अधिकांश काम ऐसे थे, जो सामूहिक भागीदारी से संभव थे। लेकिन उनका तर्क था, अब वो दौर नहीं जब लोग आगे आकर इन कामों में सहयोग करते थे। ये बहुत हद तक सही है, लेकिन इसका जिम्मेदार कौन? 
तेजी से भागते भागते हम समाज के रूप कमजोर हो रहे हैं। ये आरोप नहीं चिंता है, और यह अकारण भी नहीं। इस आत्मकेंद्रित समाज में अब कितने लोग है, जो सामाजिक सरोकार और लोगों के हित की बात कर रहे हैं? इसके मूल में वे योजनाकार हैं, जो विकास योजनाओं में समाज की भूमिका को या तो नगण्य मानते हैं या उनको इसपर भरोसा ही नहीं। हम अपने समाज को प्रतिपल दुत्कार रहे हैं और अब यह एक सर्वसम्मत परंपरा बन रही है। पर्यावरण, प्रदूषण, कानूनों का उल्लंघन, भ्रष्टाचार, अपराध, उच्छृंखलता जो हो इसके लिए हम छूटते ही समाज को जिम्मेदार ठहरा देते हैं।
दूसरे सामूहिकता के साथ सशक्तिकरण जुड़ा हुआ है। लेकिन सशक्तिकरण से आँखें चुराने वाले भी कम नहीं हैं। ऐसे समूह चाहिए जो पेड़ लगा दें, बाग की सफाई कर दें, जनजागरुकता में जुट जाएं। लेकिन अगर वे अधिकारों, सामाजिक मुद्दों की बात करेंगे तो सिस्टम असहज हो जाएगा।
हमारे यहां कुएं खोदने, तालाब बनाने, बाग, जंगल रोपने, पहाड़ हटाने, सफाई, आपदा, संकट सब में समुदाय की भागीदारी के हजारों उदाहरण हैं। लेकिन इनके बाद भी हमारा भरोसा कैसे कम हो रहा है। स्वसहायता के मॉडल को सफल नहीं मानने वालों की बड़ी संख्या हो सकती है, लेकिन एक बहुत बड़ी आबादी सफलता की गाथाओं से भरी है। ऐसे नेता भी हैं जिनके आह्वान पर लोग घर से बाहर न झाकें, लेकिन वो नेता हैं।
समाज के आगे आने की शुरुआत नेतृत्व से होती रही है। निरर्थक जल्दबाजी के दौर में जमीनी नेतृत्व का मूल्य, भरोसा और रसूख घट गया। अब इसका खामियाजा समूचे समाज को इस रूप में देखना है कि जो काम समाज के सहारे संभव हो सकते हैं, वे भी किसी की कृपादृष्टि की आस में सालों पड़े होते हैं। अब कोई मसीहा चमत्कारी, और भरोसेमंद छबि के साथ आए और इस भ्रम को तोड़े।
एक बार फिर समाज को खंगालने की जरूरत है, लाखों लोग हैं जो कुछ सकारात्मक करना चाहते हैं। उनको आगे लाकर भरोसा दिलाने वाला चाहिए। फिर चाहे वो कोई हो..

जय जय..
संजीव परसाई

#Sanjeev Persai