Thursday, May 8, 2025

भारत माता की जय !!

पहलगाम की घटना से सुन्न पड़ा दिल दिमाग अब जाकर थोड़ा ठंडा हुआ। गमी को गमी इसीलिए बोलते हैं, क्योंकि वो इतने ग़म लाती है कि सालों कोई उबर नहीं सकता। मृत्यु परिवार, समाज को दुखी करती है। लेकिन हत्या उद्वेलित करती है। बहरहाल जो हुआ बेहतर हुआ, अभी दो चार झापड़ ही रसीद हुए हैं, लात और जूते बाकी रहे। 

हर घटना देश, समाज और सरकार को बहुत कुछ सबक देती है। बस जरूरत इस बात की है कि सब इस सबक को याद रखें। इस बार का सबसे बड़ा सबक रहा लोकतान्त्रिक आस्था। घटना की परिस्थितियां और पैटर्न ऐसा था कि पूरे देश में बवाल होना तय था। लेकिन जय हो इस देश के लोगों की, जिन्होंने अंदर से खून के आंसू रोते हुए भी वो न होने दिया, जिसकी उम्मीद दुश्मन ने की थी।
एक दूसरे का सिर फोड़ने पर उतारू राजनैतिक दलों ने साबित किया कि संकट के समय सब एक हैं। सबने सरकार को बिना शर्त समर्थन दिया, सरकार ने भी शानदार निर्णय लिए। इस दौरान किसी भी दल ने कोई नकारात्मक बातें नहीं की, अलबत्ता वे नागरिकों से धैर्य रखने और सरकार पर भरोसा करने की अपील करते रहे।

हालांकि सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने वही किया जिसके लिए वो जाना जाता है। लोगों के मन को शांत करने के बजाय, वे उन्हें उद्वेलित और बेचैन करने के प्रयास करते रहे। मनगढ़ंत खबरें, बेमतलब की बयानबाजी, निरर्थक आक्रोश पैदा करने वाले विषयों ने समाज और सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की। जबकि होना ये चाहिए था कि इस समय धैर्य रखते हुए सरकार को अपना निर्णय लेने का पूरा समय देते। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अब पेट्रोल और माचिस साथ लेकर घूमने में लज्जा आना भी बंद हो गया है।

आज मॉक ड्रिल हुई, यानी युद्ध के दौरान उपजने वाली स्थितियों से निपटने का पूर्वाभ्यास। भोपाल में यह शाम साढ़े सात से सात बयालीस तक तय थी। इस दौरान सबने जबरदस्त अनुशासन का परिचय दिया। हालांकि कोई देखने वाला नहीं था, लेकिन सबने स्वप्रेरणा से प्रोटोकॉल का पालन किया। एक बार फिर देश के लोगों ने साबित किया कि जब बात देश पर आ जाए, तो फिर किसी को कुछ कहने या सुनने की जरूरत नहीं है। शायद यही भावना स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान रही होगी, जब तिरंगे के झंडे तले लाखों लोग इकट्ठे हो जाते थे। देश के लोगों का यही भाव हमें दुनिया का महान लोकतंत्र बनाता है। 

आगे जो भी हो, सरकार, समाज और लोगों ने यह दिखा दिया है कि हमें कोई हिला भी नहीं सकता। 
हम एक थे, एक हैं और एक रहेंगे

जय हिंद, जय हिंद की सेना!!

Tuesday, May 6, 2025

मजाक मजाक की बात है

संजीव परसाई - 
एक कॉमेडियन ने नेताओं का मजाक बना दिया।  नेता के समर्थकों को गुस्सा आ गया। वे गए और स्टूडियो में तोड़ फोड़ कर दी। रिपोर्ट कर दी, बहुत बाबेला काटा। इसको देख एक पढ़ा हुआ पुराना किस्सा याद आता है, कोई शीत युद्ध के दिनों की बात है। निकिता खर्चेव सोवियत के बड़े नेता थे। एक बार वो संयुक्त राष्ट्रसंघ में भाषण देते देते भावनाओं में बह गए। बिना नाम लिए उन्होंने एक टिप्पणी कर दी। उस समय सदन में अमेरिकी राजदूत रिचर्ड निकसन (ये बाद में अमेरिका के राष्ट्रपति बने) भी थे। वे आग बबूला हो गए, और उन्होंने इसपर आपत्ति दर्ज कराई। कहा कि आप मेरे राष्ट्रपति का अपमान कर कर रहे हैं। 
खुरचेव ने कहा बदले में एक कहानी सुना दी। सोवियत में जार के समय एक आदमी ज़ार को गाली दे रहा था। पुलिसवाले ने पकड़ा तो, वो कहने लगा कि मैं तो जर्मन के ज़ार को गाली दे रहा हूं। पुलिसवाले ने कहा, मुझे घुमाओ मत, मैं भी जानता हूं, कि कौन सा ज़ार गाली खाने लायक है। तुमने हमारे ज़ार को ही गाली दी है। बाद में ये चुटकुला बन गया।
बदले दौर में ये उपमाएं स्थापित हो गई हैं। नेताओं ने इनको स्थापित करने में खासी मेहनत की है। पैसा भी लगाया है। खुद को महान और विरोधी को नीचा दिखाकर ही कोई राजनैतिक जीत तय कर सकता है। उनका नाराज होना स्वाभाविक है। उनकी मजाक कोई और क्यों उड़ाए। जबकि सबने एक दूसरे की मिट्टी पलीत करने का ठेका ले रखा हो। अब सटायर मारने के लिए किसी पॉलिटिकल पार्टी को ज्वाइन करना जरूरी है। आम लोग बस मुस्कुरा सकते हैं।
जल्दी से एक बिल लाया जाए, जिसमें किस जोक पर हंसना है, मुस्कुराना है, या बुक्का फाड़ के हंसना है। सब बताया जाए। हंसी पर टैक्स भी लगाया जाए। अब तो हाल ये है कि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भी अपने नेता की हरकतों, यानी जोक पर बुक्का फाड़कर हंसने को तैयार बैठे हैं। बस नियम न होने से हंस नहीं पा रहे हैं। सरकार को एक हंसी विभाग बनाना चाहिए, जो न सिर्फ हंसने के लिए सामग्री उपलब्ध कराए, बल्कि नजर भी रखे कौन किस बात पर और कितना हंस रहा है। 
पहले हम मजाक करते थे, मजाक सहते थे। अब तो रोज का हो गया है। हर रोज कोई न कोई मजाक कर रहा है। ऑफिस जाने के टाइम पर पुलिस मजाक करने ट्रैफिक रोक सड़क पर खड़ी होती है। अस्पताल में डॉक्टर मजाक कर रहे हैं। ट्रेन में टीसी, बस में कंडक्टर सब मजाक ही तो कर रहे हैं। स्कूल बच्चों के भविष्य से, अस्पतालों में स्वास्थ्य से मजाक ही तो चल रहा है। सरकार ने कुछ विभागों में, जहां वो खुद नहीं कर सकती, वहां ठेकेदारों को रखा है। वे पब्लिक के साथ ऐसा मजाक करते हैं, कि पब्लिक पेट पकड़ पकड़ के हंसती रहती है। सरकार ने ठेका देकर गरीबों के लिए घर बनाए। गरीब खुश हुए लेकिन हंसी न आई। जब घर में रहने पहुंचे तो सुबह शाम हंसी ही हंसी बस। बिजली का बटन दबाना, नल की टौंटी घुमाना, सीढ़ी से उतरना, दीवाल में कील ठोकना, पंखा चलाना, बिजली जलाना, बैठना, उठना जो भी करें, बस हंसी और हंसी।इन्हीं के बनाई सड़कों पर चलते हुए आदमी, कई बार लोट पोट हो जाता है। सरकारी स्कूल, कॉलेज बच्चों को हंसी हंसी में जीवन का सत्य दिखा रहे हैं।
टीवी देखने बैठो तो खबरिया चैनल इतना मजाक कर रहे हैं, कि उनके सामने कपिल शर्मा भी फेल है। इसके अलावा सरकार ने शेयर बाजार में हंसी खुशी का माहौल बना रखा है। सब्जी मंडी हो, किराने की दुकानें मॉल सामान खरीदते हुए आदमी हंसता ही रहता है। हर आदमी ऑफिस में बैठ या मजदूरी करते समय दिनभर हंसी में ही डूबा रहता है।
अब जब चारों ओर, रात दिन हंसी का माहौल बना हो। ऐसी स्थिति में और कितना मजाक चाहिए। क्योंकि मजाक मजाक में कुछ ज्यादा हो रहा है। अगर लोग इतना हंसेंगे तो कहीं उनके फेफड़े न फट जाएं। फिर सब सरकार को कोसेंगे।
जब हंसने का सामान सरकार खुद दे रही है तो इन कॉमेडियन की कोई जरूरत नहीं है। जनता की टिकट का पैसा बचेगा। सब खुश होंगे। सरकार कॉमेडी और जगहंसाई का अंतर करना सीख जाए, लोगों की जिंदगी नीरस हो जाएगी। 
व्यंग्यकारों के साथ कोई मजबूरी नहीं है, उनको डपट दो तो तो ये खेती-किसानी के जोक लिखने लगेंगे, या विपक्षी का मजाक बनाकर अपना काम चला लेंगे। इनका कोई स्टूडियो भी नहीं है, जिसको तोड़कर कोई गुस्सा निकाल सके।

Sanjeev Persai 

Monday, May 5, 2025

Sanjeev Persai - About me

Sanjeev Persai

Born: December 23, 1971
Nationality: Indian
Occupation: Social Communicator, Satirist, Author, Consultant
Notable Works: Hum Badi E Wale, Bhopal Talkies

Early Life and Education
Sanjeev Persai was born on December 23, 1971, in Pipariya, Hoshangabad district, Madhya Pradesh, India. His father Sh. Badri Prasad persai was a teacher and mother Mrs Sarla Devi was a homemaker.
He completed his primary education at Subhash Chandra Bose Vidyalay in Pipariya and pursued high school and higher secondary education at Ram Narayan Agrawal Higher Secondary School, Pipariya. He earned his bachelor's degree from Government PG College, Pipariya, affiliated with Sagar University, Madhya Pradesh, in 1989.
During his school and college years, sanjeev joined the Indian People's Theatre Association (IPTA), which nurtured his interest in literature and social issues. After graduation, he moved to Bhopal in search of employment and worked with several small firms and agencies on a freelance bases. 
During his struggle days he started to work with some NGOs in mp. This was actually a launch pad for him, to interact with the deprived population. He was closly worked with some community empowerment programs in rural areas. 

Realizing his inclination towards media and communication, he pursued a Master’s degree in Journalism and Mass Communication from Makhanlal Chaturvedi University of Journalism and Mass Communication, Bhopal. Following this, he worked with various local and national newspapers and television channels.

Career
Although he initially worked in journalism, Persai was not satisfied with the profession and shifted to the development sector. He began working with NGOs and government-supported projects, focusing on community empowerment, communication, and behavior change.

He is working with an international consulting firm called KPMG India, as a senior advisor/associate director. He has over 22 years of experience in community empowerment, he brought a wealth of expertise to the table, particularly in collaboration with governmental bodies and international organizations.His professional journey includes over 18 years of impactful work within the government sector, along with significant contributions to World Bank, DFID, IFAD, Care, and BBC Media through various community development programs.

He possess 8 years of specialized experience in government advisory roles, having partnered with esteemed organizations such as IPE Global, Grant Thornton, and KPMG. Currently, he serve as Team Leader for the Swachh Bharat Mission, urban in Madhya Pradesh with KPMG.

Tejaswini Rural Women Empowerment Project (2004-2007): Served as the State Manager for Communication and Knowledge Management, working on rural women’s empowerment through self-help groups.

Atal Bal Mission (2007-2008): Worked on malnutrition and vaccination programs in Bundelkhand with IPE Global.

CARE India & BBC Media Action (2008-2011): Served as an Interpersonal Communication Consultant for DFID’s Global Grant Project, supporting the sustainability of immunization and child healthcare in Madhya Pradesh.

Swachh Bharat Mission (2016-2020): Worked as an IEC and Behavior Change Communication Consultant for the Urban Administration and Development Department, Government of Madhya Pradesh.

Grant Thornton India (2020-2024): Served as a Senior Consultant for Social Inclusion in a World Bank-supported program in Madhya Pradesh.

KPMG India (2024-Present): Currently working as an Associate Director and Team Leader for Swachh Bharat Mission (Urban) in Madhya Pradesh.

Writing and Social Presence
Sanjeev Persai is an acclaimed writer known for his socio-political satires. He has written three books, with Hum Badi E Wale being one of the best-selling Hindi satire books. His other notable work, Bhopal Talkies, captures the essence of Bhopal’s history, love stories, and cultural narratives.

He is highly active on social media, where his sharp and thought-provoking content has earned him a loyal readership. His publisher, Lok Prakashan, describes him as a master of satire, using his writing to critique established traditions and social systems.

Personal Life
Sanjeev Persai has a son, her spouse Dr. Mona is also a writer and teacher by profession. He with his family resides in Bhopal, Madhya Pradesh.
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Book Review - Bhopal Talkies

महबूब शहर भोपाल की चुटीली दास्तां है- ‘भोपाल टॉकीज_शहर की किस्सागोई’ 

सत्तर के दशक की फिल्म ‘शोले’ का यह डायलॉग बहुत मशहूर हुआ था कि ‘हमारा नाम भी सूरमा भोपाली ऐसई नई है..,’ सोचिए, जब भोपाल से जुड़े एक संवाद ने देशभर में इतनी लोकप्रियता हासिल की थी तो अगर पूरे भोपाल के मिजाज़ को जानने का मौका मिल जाए तो वह कितना जबरदस्त होगा। वैसे भी, कहते हैं न कि सयाने लोग एक चावल से अंदाजा लगा लेते हैं कि बिरयानी कैसी पकी होगी।

जाने माने संचारकर्मी, लेखक और व्यंग्यकार संजीव परसाई की नई किताब ‘भोपाल टॉकीज: शहर की किस्सागोई’ भी भोपाली बिरयानी की तरह लज़ीज़ है। यह हमें इस महबूब शहर के हर जायके से रूबरू कराती है। जब भी भोपाल की बात चलती है तो इस शहर को न केवल अपनी खूबसूरती के लिए बल्कि यहां के लोगों की जिंदादिली और स्वभाव की सहजता के लिए जाना जाता है। 

संजीव ने इसी सरलता को केंद्र में रखकर करीने से तानाबाना बुना है। मूल भोपाली अपनी चटकारेदार भाषा,चुटीली शैली और हंसी मज़ाक में करारा व्यंग्य करने के लिए मशहूर हैं इसलिए जब आप ‘भोपाल टॉकीज: शहर की किस्सागोई’ किताब के पन्ने पलटना शुरू करते हैं तो धीरे-धीरे आप शहर की संस्कृति, किस्सागोई की परंपरा और शहर की आबोहवा में गोता लगाने लगते हैं।

यह किताब और इसके लेख शहद की मिठास और कालीमिर्च के पाउडर के मिश्रण की तरह हैं जो गले में मिठास के साथ होले से झटका देते हुए निकलते हैं और आप बिना वक्त गंवाए एक के बाद एक पन्ने पलटते जाते हैं। करीब 200 पन्नों की यह किताब मोटे तौर पर चार भागों में हमें भोपाल की गलियों, घरों, लोगों, इतिहास, परंपरा और संस्कार से जुड़ी कहानियों की सैर पर ले जाती है।

  ‘रानी कमलापति से बेगमों तक भोपाल के किस्से’ नामक चैप्टर में हमें रानी कमलापति के दौर, बेगम और उनके शासन, भोपाल रियासत का भारत में विलय और रानी कमलापति के साथ हुई गद्दारी से जुड़ी गंभीर बातें हल्के-फुल्के कहानी के अंदाज में पढ़ने को मिलती हैं। वहीं, ‘भोपाल बन बिगड़ रिया है खां’ चैप्टर में लज्जतदार भाषा में भोपाल के इतिहास से लेकर मौजूदा दौर तक की यात्रा पर जाने का मौका मिलता है। खास तौर पर जीप पर सवार सूअर, जर्दा पर्दा, नामर्दा और अब ना मुराद गैस, यह सूरमा भोपाली कौन है मियां, गुप्त रोगों की डिस्पेंसरी जैसे लेख बिना रुके पढ़ने के लिए मजबूर कर देते हैं। 

किताब का सबसे मजेदार हिस्सा ‘और सुनाओ और बताओ की जंग से निकले किस्से’ है। यहां हमें एक नहीं बल्कि दर्जनों सूरमा भोपालियों से मिलने, उनके डींगे हांकने के अनूठे अंदाज, चुटीले किस्सों और भोपाली लोगों के मूल स्वभाव से परिचित होने का मौका मिलता है। यहां संजीव परसाई भोपाली का ईगो, मोर पकड़ने की उस्तादी, गोबर के बतोले, मुजरा भोपाल का, मियां शेर अलर्ट पलट हो लिया जैसे मनमोहक शीर्षकों के जरिए भोपाल की नब्ज पकड़ने का प्रयास करते हैं। खास तौर पर ‘यह किताब और कल्लन’ अध्याय में वे सीधे तौर पर समाज को आज पुस्तकों के प्रकाशन, हिंदी के लेखकों की स्थिति और पाठकों की घटती संख्या जैसी स्थितियों को कल्लन मियां के व्यंग्य के जरिए आईना दिखाने का प्रयास करते हैं ।

किताब का आखिरी हिस्सा ‘आज भोपाल कैसा है मियां’ चैप्टर है। इसमें भोपाल का ताल, गैस कांड के बाद का भोपाल और पढ़ने लिखने वालों का भोपाल जैसे अध्यायों के माध्यम से संजीव बदलते-संवरते भोपाल को कलम के हुनर के जरिए विनोदी अंदाज़ में परोसते हैं। जैसा कि हम सब जानते हैं भोपाल नगर निगम भोपाल को ‘यूनेस्को सिटी आफ लिटरेचर’ का दर्जा दिलाने के लिए लगातार कोशिश कर रहा है, संजीव परसाई भी ‘पढ़ने लिखने वालों का भोपाल’ अध्याय में हमें शहर की इसी पहचान से जोड़ते हैं। वे हमें दुष्यंत कुमार से लेकर कैफ भोपाली तक और जावेद अख्तर से लेकर बशीर बद्र तक साहित्य के गलियारों में घुमाते हैं। वह मौजूदा दौर के सशक्त हस्ताक्षर राजेश जोशी की बात करते हैं तो गिरजा भैया (वरिष्ठ पत्रकार गिरिजा शंकर जी) के योगदान की चर्चा भी। वे रूमी जाफरी को भोपाल से जोड़ते हैं तो पद्मश्री से सम्मानित विजय दत्त श्रीधर के अवदान का भी पूरे सम्मान से स्मरण करते हैं। वे व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी, खोजी पत्रकार राजकुमार केसवानी और मध्य प्रदेश की राजनीति की गहरी समझ रखने वाले हमारे अपने दौर के दीपक तिवारी से भी अपने अंदाज में हमारी पहचान कराते हैं। 

संजीव परसाई ने इस किताब की भूमिका में खुद लिखा है कि यह भोपाल का इतिहास नहीं है बल्कि भोपाल का कर्ज चुकाने का एक प्रयास है। उन्हीं के शब्दों को दोहराएं तो वे वाकई भोपाल का कर्ज सूद समेत चुकाने में कामयाब रहे हैं । भोपाल को इतने अलग अंदाज में एक किताब के तौर पर देखने या पढ़ने का मौका मुझे तो अब तक नहीं मिला इसलिए यदि आप भोपाल से हैं या भोपाल को जानना चाहते हैं तो ‘भोपाल टॉकीज: शहर की किस्सागोई’ किताब जरूर पढ़िए। यह किताब आपको भोपाल के बड़े तालाब से लेकर नए शहर की साफ सुथरी चौड़ी सड़कों पर तफरी कराएगी तो पुराने शहर की भूल भुलैया जैसी गलियों में छिपे कोहिनूरों की चमक भी दिखाएगी। भोपाल पर एक अच्छी,मजेदार,पठनीय किताब के लिए लेखक संजीव परसाई को बधाई। 

यह किताब अपने बेहतरीन प्रकाशनों के विख्यात 'लोक प्रकाशन', भोपाल ने प्रकाशित की है । उम्दा छपाई, आकर्षक, साफ सुथरे फोंट और पढ़ने के अनुकूल अक्षरों वाली महज ₹300 की यह किताब पैसा वसूल है। ‘भोपाल टॉकीज: शहर की किस्सागोई’ किताब आपको चंद घंटों में भोपाल के 100 साल का सफर करा देती है और सबसे अच्छी बात यह है कि आप किताब पढ़ते हुए किसी सुपरहिट फिल्म के शो की तरह भरपूर मनोरंजन के साथ इससे बाहर निकलते हैं। सही मायने में यह सूरमा भोपाली का भोपाल है जिसे हम भोपाल टॉकीज के जरिए देख पा रहे हैं।

किताब: भोपाल टॉकीज: शहर की किस्सागोई
पृष्ठ: 194
कीमत: 300 रुपए 
प्रकाशक: लोक प्रकाशन, भोपाल

Sunday, May 4, 2025

Another Book by Sanjeev - Bhopal Talkies

Renowned writer Sanjeev Persai has released his latest book — “Bhopal Talkies” — a captivating collection of stories from the heart of Bhopal.

From the tales of Rani Kamlapati and the Begums' rule, to the freedom movement, urban transformation, and Bhopal’s rise as a nation’s pride — this book takes you on a nostalgic, inspiring, and often humorous ride through the city’s past and present.

Whether you're a Bhopali or a curious reader, these stories will make you smile, reflect, and maybe laugh at some classic Bhopali banter!

पुस्तक समीक्षा - भोपाल टॉकीज

भोपाली किस्सागोई से बाबस्ता "भोपाल टॉकीज 

"हमारा नाम सूरमा भोपाली ऐसेइ नइ है।" शोले फिल्म के इस डायलॉग ने भोपाली किस्सागोई की पहचान जो दुनिया भर में कराई है, उसी मिज़ाज से बाबस्ता है, भाई संजीव परसाई की नई किताब "भोपाल टॉकीज"

भोपाल एकमात्र ऐसा शहर है। जितना आप इसके अंदर घुसेंगे। उतना ही यह आपके अंदर घुसता चला जाएगा। फिर यह आपकी बोलचाल में ।आपके मिजाज में। आपके लिबास में और आपके हिसाब में दिखने लगेगा।

 इसीलिए संजीव भाई ने अपनी किताब में खुद ही लिख दिया है कि, आपके हाथ में जो किताब है। असल में यह भोपाल शहर का उधार है। हालांकि शहर ने कभी तकाजा नहीं किया । पर उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को निभाते हुए इस शहर का कर्ज शब्दों से उतारने का प्रयास किया है।

भोपाल को सबने अपने-अपने हिसाब से देखा है। राजा भोज का भोपाल अलग है। रानी कमलापति का भोपाल अलग है। केफ़ भोपाली का भोपाल अलग है। उद्धवदास मेहता का भोपाल अलग है। बशीर बद्र का भोपाल अलग है। डॉ शंकर दयाल शर्मा का भोपाल अलग है। एक शहर को देखने के कितने नजरिया हो सकते हैं, यह तो देखने वाले की नजर पर निर्भर करता है।

अगर चौक से देखा जाएगा तो भोपाल अलग दिखेगा। न्यू मार्केट से देखा जाएगा तो अलग दिखेगा। बैरागढ़ का भोपाल अलग है। तो भेल क्षेत्र का भोपाल अलग है। इतिहास का भोपाल अलग है, किस्सों का भोपाल अलग है, हकीकत तो यह है जो यहाँ रह रहा है, उसके हिस्से का भोपाल अलग है। 

पर संजीव भाई ने अपनी किताब में उन सब नजरियों को एक एंगल पर लाने का प्रयास किया है। इस किताब की शब्द यात्रा करके भोपाल के तमाम नजरियों को समझा जा सकता है। यह भोपाल नवाबों का नहीं ,कमलापति का शहर है। राजा भोज का शहर है। लेकिन इस शहर की निजामत कई सालो तक नवाबों और बेगमों ने भी की है, इस बात की तारीखी पैरवी इस किताब में है।

संजीव परसाई जी , संजीव शर्मा जी, मनोज अग्रवाल जी के साथ मेरा 30 साल पुराना संबंध है। इस दौरान हम सबने मिलकर भोपाल को खूब जिया हैं। नए शहर में आशियाना होने के बाद भी पुराने शहर की गलियों में, पटियों पर, सदर मंजिल के सीडियो पर , लक्ष्मी टॉकीज की गलियों में, ताजुल मस्जिदों की सीढ़िया पर बैठकर शहर के मिजाज को जानने का लगातार प्रयास किया।

हम शहर के होते चले गए और शहर हमारे अंदर बस्ता चला गया। धीरे-धीरे हमारी जुबान में भी वह शब्द जगह बनाने लगे, जो भोपाली किस्सागोई के खास जुमले थे। 

कहने को तो हर बात सामान्य है, पर बात करने का तरीका ही किस्सागोई का उस्ताद बनता है। संजीव भाई की इस किताब में इतिहास है, किस्से हैं, जानकारी है, राजनीति है, रणनीति है, भोपाली लफ़बाजी है। पर सबमें किस्सागोई का तरीका एक जैसा है। 

इसलिए ऐतिहासिक घटनाएं भी आपको पढ़ने में रुचिकर लगेगी। सामान्य घटना को रुचिकर बनाने का काम ही आपकी किस्सागोई पर निर्भर करता है। मशहूर शायर वसीम बरेलवी का शेर है। 

कौन सी बात, कब कैसे कही जाती है, 
यह तरीका हो तो, हर बात सुनी जाती है।

संजीव भाई ने अपनी किताब को चार हिस्सों में तक़सीम है। आजादी के पहले के ऐतिहासिक तारीखों को पहले भाग में सहेजने की कोशिश की है। वहीं दूसरे भाग में आजादी के बाद की घटनाओं प्रस्तुत किया गया है। तीसरे हिस्से में भोपाली बतोलेबाजी और चौथे हिस्से में भोपाल की वर्तमान स्थिति को बखूबी बयां किया है।

मैं तो में इतना ही कह सकता हूं, हर शहर के पास अपनी संस्कृति होती है। अपनी जुबान होती है। अपनी पहचान होती है । अगर उसकी इस पहचान से बाकी जानकारी को जोड़ दिया जाए, तो संजीव परसाई की यह किताब बनती है। जिस किसी को भोपाल को जानना है। समझना है। देखना है। अपने पास संदर्भ के लिए सुरक्षित रखना है । उनके लिए यह किताब एक बेहतर दस्तावेज है।

संजीव परसाई द्वारा लिखित किताब के कई वाक़िए हम दोनों के साथ ही गुजरे हैं। भोपाल की सड़कों पर न जाने कितने सूरमा भोपाली घूम रहे हैं । जिनके पास खुद की अपनी कई कहानियां है। कुछ तो इस किताब के माध्यम से आप तक पहुंच रही हैं। कुछ अभी भी शहर की फिजाओं में घूम रही है। उम्मीद है संजीव परसाई जल्दी ही उनको सहेज कर भी सबके सामने प्रस्तुत करेंगे। 

मुझे प्रसन्नता है कि संजीव परसाई में लीक से हटकर लेखन शैली को अपनाया है। यह पुस्तक ना होकर एक दस्तावेज बन गया है। पाठकों के लिए यह एक रूचिकर और संग्रहणीय पुस्तक होगी। मैं निजी तौर पर प्रसन्न हूं और श्री संजीव परसाई की दृष्टि एवं प्रयास की सराहना करता हूं ।
मेरी ओर से अशेष मंगलकामनाओं के साथ सभी से निवेदन है कि इस किताब के झरोखे से एक बार भोपाल को देखने की कोशिश जरूर करें।

संजय सक्सेना

#भोपाल_टॉकीज

भोपाल टॉकीज और कल्लन मियां

मेरी किताब #भोपाल_टॉकीज से एक चर्चित आलेख। जिसमें एक छपने और बिकने को बेचैन लेखक और कल्लन मियां

कल्लन मियाँ बहुत दिन बाद दिखे, मैंने ही पकड़ लिया , “कहाँ घूम रिये हो खाँ, न कोई खैर न खबर ऐसी क्या बेरुखी ?” 
मियाँ खी-खी करके हंस दिए, “अरे नहीं पंडित , वो थोड़ा काम में मशरुफ़ थे, फिर वालिदा का इलाज चल रिया है बंसल में, तो वहाँ आने जाने का रोज का काम है।”
मैं कुछ आगे जोड़ता, उसके पहले वो ही बोल पड़े, “मियाँ, तुम्हारे तीन हजार भी दे देंगे, खुदा कसम करोड़ों लेकर वापस कर दिये अपन ने, चिंता न करना तुमको साढ़े तीन हजार देंगे। ये एक भोपाली का वादा है।” 
कल्लन मियाँ ने साँस लेने के लिए जैसे ही विराम लिया मैंने अपनी बात फँसा दी, 
“मियाँ इतना टुच्चा समझ रखा है क्या तो पाँच सौ रुपए के लिए तुमको टोकूँ । अरे तीन हजार तो तुम दोगे ही पर पाँच सौ रुपए में दस बीस कम भी दोगे तो भी न टोकूँ । मियाँ भोपाल के पटियों पर एक पुस्तक लिख रहा हूँ, क्या कहते हो?”
“खुद छाप के खुद ही पढ़ लेना मियाँ , यहाँ तो आजकल खुदा पाक की नमाजें नहीं पढ़ रए हैं कमजर्फ, तुम्हारी पटिएबाजी कौन पड़ेगा। जिन कमीनों को कोर्स की बुक पढ़ने में कंटाला छुटता है वो दिनभर फेसबुक पढ़ते हैं। चलो फिर भी ये बताओ क्या किसी ने बोला है ये लिखने के लिए या अपने मन से ही मान लिया?” 
“मियाँ, ये छिछोरपन है, किताबें तो हमारे अब्बू ने लिखीं थीं हर महीने चार किताबें लिखते, वो छपवाते नहीं थे, तुम्हारी तरह कागज खराब नहीं करते थे।”
 मैंने कहा – “मियाँ कल्लन, थोड़े तो समझदारी की बात करो, किताब तो पढे लिखे लोगों के लिए होती है।”
“देखो मियाँ , अब पढ़ने लिखने कि बात तो हमसे करो मत, हमारे मामू ओक्स्फ़ोल्ड से पढ़के आए थे, जुमेराती की गली में बैठके लहँगे बेच रहे हैं। सारी समझदारी नाड़ों में अटकी पड़ी है।” 
“पर बेचोगे कैसे ? वैरायटी वालों के यहाँ तो हजारों किताबें पड़ी हैं, उनकी डस्ट झड़ाने के लिए उनने चार कर्मचारी रखे हैं।” 
कल्लन मियाँ बोले “मियाँ एक किताब मेरे पास भी रखी है, सेंट्रल लाइब्रेरी से चुरा के लाया था। आपको दूंगा, आपके काम आएगी ।” 
मैंने पूछ लिया ऐसा क्या है उस किताब में तो कहल्लगे “मियाँ किताब का नाम है 20 दिन में लेखक कैसे बने? पढ़ लेना अगर दो चार किताब लिख लो तो लेखक का तो पता नहीं, अच्छे कबाड़ी जरूर बन जाओगे।” 
कल्लन जैसे लोग आपके जीवन में होना जरूरी है, वो आपको आपकी हैसियत का अंदाजा लगातार कराते रहते हैं। बोले “वैसे तुम रेलवे वाले स्टाल पर रख देना, जो ट्रेन लेट से बोर होंगे वो पढ़ लेंगे। थोड़ी मोटी किताब बनाओ तो तकिये के नाम पर बिक जाएगी।” 
अब मेरे सब्र का आखिरी किनारा आ चुका था, “मियाँ तुम तो बहुत ही हताश करने वाली बातें कर रहे हो । पढ़ने लिखने की बात हो रही है थोड़ी अकल तो लगा लो।”
कल्लन मियाँ बोले – “देखो मियाँ लाग लपेट अपने को आती नहीं है, तुम्हारे भले के लिए बोल रहे हैं। फिर भी तुम्हें छपास इतनी ज़ोर से लगी है तो छपवा लो, फिर आ जाना । बिकवा देंगे तुम्हारी भी किताब । अभी चलते हैं। कहकर अपने स्कूटर पर किक मारने लगे” 
मैंने लपककर फिर हाथ पकड़ लिया । 
“कैसे बिकवाओगे बताकर जाओ ?” 
“अरे मियाँ , अपना जुम्मान आजकल पीरगेट पर सब्जी का ठेला लगता है उसके बाजू में धर देंगे, ढेरी लगा के, सब्जी के साथ किताब फ्री की स्कीम भी लगा देंगे।” 
अब मुझे बुरा लग चुका था, सो मैंने गुस्सा होकर कहा, “देख लिया कल्लन मियाँ आपको , मेरी किताब सब्जी के साथ बिकवाओगे?”
कल्लन मियाँ स्कूटर आगे बढ़ाते बढ़ाते बोले – “देखो मियाँ पीरगेट पे कबाड़ी फारेन राइटर की किताबें तुलवाकर बेच रहे हैं, भोपाल के लेखकों की इज्जत करते हैं, इसीलिए सब्जी की दुकान पे बिकवाने की बात कर रिये हैं। बाकी मियाँ , जैसी आपकी मर्जी आप तो ऑनलाइन बेचो और काम्प्लेमेंट्री कापी घर-घर जाकर बाँटो । वही आपके लिए सही रहेगा।”
जय जय!!
Sanjeev Persai