आजकल हर रविवार को भोपाल में पांच एक जगहों पर नैतिकता सम्मेलन हो ही जाते है। जिनमें नैतिकता का पारायण होता है और बताते हैं कि किस तरह नैतिकता की पालना करके हम देश और समाज को एक बेहतर दिशा दे सकते हैं।
हफ्ते दो हफ्ते में कोई मुझे भी बुला लेता है। सो मैं भी साहित्यकार को शोभा दे, ऐसी अचकन डाल पहुंच जाता हूं। वहां सब अपने अपने ढोल और उसे पीटने के लिए लकड़ी साथ लेकर आते हैं। मैं भी इस गुल गपाड़े में शामिल होकर, अपना राग भी बजाता हूं। कुत्ते को रोटी देने का महात्म्य, गरीब की मदद, दलित प्रेम, संगठित परिवार, सामाजिक सौहार्द जैसे घिसे पिटे विषयों पर अपने विचार ठेलता हूं। मेरे ही आसपास रोजाना गोलमाल करने वाले नैतिकता पर भाषण देते हैं। जो रात गले भर के पीते, वो नशाबंदी को जायज ठहराते हैं। चपरासी तक की तनख़ा में कमीशन मांगने वाले देश को आर्थिक महाशक्ति बनाने के गुर सिखाते हैं । मैं खुद को इनसे थोड़ी बेहतर स्थिति में पाता हूं। मेरा आत्मविश्वास जिसे वो अकड़ कहते हैं, देखकर वे झेंप जाते हैं।
दर्शक दीर्घा के लोग खुश ही हैं, वो अब किसी के विचार पर उंगली नहीं उठाते। ये सबको या तो चोर मानकर चलते हैं या कि ये मात्र बतोलेबाजी का दौर है, तो गंभीरता से क्यों लेना। ये बात आयोजक भी जानते हैं, सो उनका फोकस इस बात पर होता है, की नए लोग ही आएं ।
एक वो समय भी था जब नैतिकता का वरण करने वाले सीना तानकर घूमते। हल्की बात करने वालों को खड़का देते। हल्के काम करने वालों को घर में न घुसने देते। बेईमान को मुंह पर ही सुना देते। इसके आगे जो गड़बड़ टाइप के लोग थे, उनके नाम के आगे कोई ऐसा शब्द जोड़ देते जो उसके व्यक्तित्व और चरित्र की व्याख्या कर सके। ये वो दौर था, जब स्कूली पाठ्यक्रम में भी नैतिक शिक्षा का पाठ हुआ करता था। सब मिलकर रहते, बड़ों का सम्मान करते, छोटों को खूब प्यार करते, एक दूसरे के काम आना सीखते और सदाचार की शपथ लेते। कालांतर में यही सदाचार, सदा चार के मीम चुटकुले में बदल गई।
दौर बदला, जब नैतिकता जरूरतों पर भारी पड़ना शुरू हो गई। इस दौर में सबसे ज्यादा गड़बड़ हुई, दिमाग जरूरतें और दिल में नैतिकता पाली जाने लगीं। जाहिर है लोग दिमाग का ज्यादा प्रयोग करने लगे। शायद इसी दौर में कानों के बीच रास्ता बनाया गया होगा। जिससे नैतिकता एक कान से अगर अंदर आ जाए, तो दूसरे कान के सुरक्षित रास्ते से बाहर निकल भी सके। अब नैतिकता रंग बिरंगी क्रोटन हो गई, इसका मतलब कुछ नहीं, बस शोभा के लिए आंगन में रोप लेते हैं।
अब नैतिकता के लिहाज से सबसे बढ़िया दौर है। लोग नैतिकता की बात सुनकर हंस रहे हैं। इसका इससे अच्छा उपयोग और क्या हो सकता है भला। नैतिकता को प्रचार की दरकार हो गई। यह शब्द आचार, विचार संबंधी भाव या नीति से बना है। अब जब लूटकर खा जाने का विचार मन में छिपा बैठा हो, तो ऐसी स्थिति में नैतिकता सिर्फ बूढ़े व्याघ्र के पास सोने के कड़े सी है।
नैतिकता का पालक अगर आम आदमी है तो बड़ी बात नहीं कि वह अपमान का शिकार हो जाए। लेकिन अगर खास हो तो उसको महान साबित करने सब एक साथ कूद पड़ेंगे।
नैतिकता के प्रहसन का लाभ सबको चाहिए, लेकिन आसरा कोई न देगा। मैंने भी बची खुची नैतिकता के तागे सहेजने की गरज से एक मोटा कंबल बनवा लिया है। उसे बस ठंड में निकालता हूं। ओढ़ो तो चुभता बहुत है, सो सहृदयता की लिहाफ में लपेट ओढ़कर चबूतरे पर बैठ जाता हूं । आने जाने वाले सम्मान से देखते हैं, उचक्के हिकारत से। जल्द ही ये कंबल अब बदलना पड़ेगा। बदरंग और झीना हो चला है।
अब नैतिकता से आसपास के लोग खीझने, झल्लाने लगे हैं। जल्द ही वो समय भी चला आयेगा जब लोग नैतिकता के नाम पर थूंकने लगेंगे।
संजीव परसाई
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