अभी हम संविधान का दिन मना रहे थे, और पृष्ठभूमि में जातिवाद का लाउड म्यूजिक बज रहा था। जिसमें अजाक्स मध्यप्रदेश का नया अध्यक्ष गा रहा था कि उसे ब्राह्मण की बेटी को अपनी बहू बनाने की इच्छा है। साथ में सारे धड़ों के जातिवादी, अपना अपना साज बजा रहे थे। कुल मिलाकर मनभावन दृश्यावली है ।
सुबह सुबह राम सिंह आ गया, कहने लगा - भाई साहब, ये सब फालतू बातें हैं, अब जातिवाद है कहां?
मेरे मुंह से "लूज टॉक" निकल गया - अबे साले...
माफ करना मैं गुस्से में थोड़ा इधर उधर निकल जाता हूं...
जात के बिना आज तक कोई पैदा ही न हुआ। आदमी हो या जानवर सब इस बंधन से अनायास ही बांध दिए जाते हैं। खासकर जिस समाज का आधार ही जाति के बांस पर टिका हो, वहां यह कोई अनोखी बात नहीं।
क्या हम अभी अभी आजाद हुए हैं?
क्या हम संवैधानिक दायित्वों की अवहेलना करते हैं?
क्या हम मूलरूप से भेदभाव के पक्षधर हैं?
इन सबका जवाब - नहीं है।
लेकिन आज जातिवाद हमारे बीच कहीं दुबक कर बैठा है, हम हैं कि खुद को आधुनिक बताने पर तुले हैं। जाति अब बोलने से ज्यादा, महसूस करने की चीज हो गई है। हमने पिछले पचास सालों में यह सीख लिया है, की कब प्रगतिशीलता का लबादा ओढ़ना है और कब उसे फेंकना है। हाल ही में बिहार चुनाव खत्म हुए, इससे जातियों पर ज्ञानार्जन हुआ। ऐसी ऐसी जातियां, जो यूपीएससी के सिलेबस में भी न पढ़ीं थीं। चुनाव के दौरान जातिवाद का नग्न नर्तन हुआ। सबने इस मंजर का आनंद लिया। अब सब अपने काम में लग गए हैं।
हकीकत ये है कि अब मोबाइल में जातिवाद के लिए, पांच डंडी का फुल नेटवर्क सक्रिय है। आदमी अपना आधार कार्ड भूल जाए, चल जाएगा… पर अपनी जात भूल जाए तो समाज उसे माफ न करे। अगर सरनेम से जाति का अंदाज न लगे, तो आदमी आसपास के किसी न किसी से पूछ ही लेता है। हालांकि जाति ढोने और भोगने की जिम्मेदारी गरीब पर सबसे ज्यादा है। सक्षम वर्ग सिर्फ खुद को स्थापित करने में लगा है।
जात समाज के अपने गौरव तलाशे जा रहे हैं। जिन समाजों में कुरीतियों के पहाड़ खड़े हैं वो अपने गौरव पूज रहीं हैं। रामलाल का बेटा आईएएस लग गया। उसकी जात के लोगों को गर्व हुआ।
इसी समय दूसरी जात के लोग दुखी थे, कि उनकी समाज का कोई बेटा चपरासी भी नहीं लगा।
लड़का भी भूल गया कि उसे आईएएस देश के लिए चुना है।
हाई सोसाइटी के दृश्य और भी मज़ेदार है। अपर कास्ट के पढ़े-लिखे कहते हैं, "आई डोंट बिलीव इन कास्ट"। देखो हमारे बीच ये दो कलीग हैं, इनसे कभी किसी ने उनकी कास्ट पूछी है क्या? फिर यही लोग सोशल मीडिया पर समानता का भाषण देने के बाद व्हाट्सऐप ग्रुप में जातीय गौरव का पोस्ट डालते हैं और फिर कहते हैं—"अरे, यह तो बस जानकारी के लिए है।"
जात वह दीवार है, जिसे हमने खुद बनाया है और समय समय पर पुताई कर, रंग-बिरंगी लाइट लगाकर सजाते हैं। दीवार तोड़ने की बात करो तो लोग कहते हैं—तोड़ तो देंगे… पर अभी नहीं। पहले ये बताओ कि दीवार की नींव किसने रखी थी।" बहस शुरू हो जाती है परंपराओं की, और दीवार वहीं की वहीं खड़ी रहती है—थोड़ी और मजबूत होकर।
जात का सच यह है कि हम अपनी छोड़ना नहीं चाहते, और दूसरे की देख-देखकर जलते भी हैं। जात हमारे लिए वही है जैसे घर के बाहर रखा जूता—हम जानते हैं कि गंदा है, लेकिन बाहर से आते ही उसे साफ करके फिर पहन लेते हैं।
अगर सोच बदले बिना जातिवाद खत्म करने की कोशिश करेंगे, तो हालत वैसी ही होगी जैसे कोई लहसुन का भभका मारते हुए कोई कहे— मैं तो खुशबूदार सोशल रिफॉर्मर हूँ। हिंदू या मुसलमान धर्म बदल सकते हैं। लेकिन क्या अहिरवार जी चाहें तो वे गुप्ता जी हो सकते हैं?
अब कोई सीधे जात पर टीका नहीं लिखता। अब जातिवाद लाखों करोड़ों लोगों के पेट ही नहीं भर रहा, वो उनको गाड़ी, बंगले, रसूख भी दिलवा रहा है। कई नेता जातिवाद का स्टार्टअप चला रहे हैं। उनका मानना है कि इससे वे समाज का भला कर रहे हैं। हम भी उनको ही समाज मानते हैं। अब जातिवाद सिर्फ वह नहीं जिससे किसी का अपमान हो, अब जातिवाद बड़ी निर्लज्जता के साथ एक हथियार की तरह उपयोग किया जा रहा है। इस माध्यम से समाज को वर्ग संघर्ष की ओर धकियाने की कोशिश भी होती है।
ये देश कभी सांप्रदायिकता और जातिवाद की बीमारी से मुक्ति की कल्पना न कर सकेगा। ये वो वायरस है, जिसको दबाए रखना ही उपलब्धि है। जब जब ये सक्रिय होता है, चारों तरफ छींक, खांसी, खुजली और बेचैनी फैल जाती है। सो, सोशल इम्यूनिटी पर ध्यान दें, जिससे हम ऐसे या किसी दूसरे वायरस से सामना करने को तैयार रहे।
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संजीव परसाई
A 40 भेल संगम सोसाइटी
भोपाल मध्यप्रदेश
8878800027
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