Friday, September 21, 2018

सरकारी जमीन का टुकड़ा

(संजीव परसाई) वो चौराहे से लगा हुआ यूं ही पड़ा था। एकदम उपेक्षित सा, उसे अपने जीवन से कोई अपेक्षा नहीं थी। एक बार वहां से गुजरा तो फफक पड़ा- कहने लगा भैया जिस दौर में जमीनों और कमीनों के भाव आसमान छू रहे जॉन, उस दौर में मेरी ऐसी दुर्दशा होगी सोचा न था।
दस एक साल पहले पी.डब्लू.डी. से दो लोग आए थे, एक बोर्ड ठोंक कर चले गए। तब से आज तक पलटकर नहीं देखा। अब तो वो बोर्ड भी सड़ गया, उसके एंगल से कुछ दिन मोहल्ले के आवारा बच्चों ने झूला झूला और कुछ दिन बाद पाउडर के शौकीनों ने उसे काटकर बेच दिया। अब तो मेरा नाम भी खत्म हो गया। पहले उस सरकारी बोर्ड के सहारे ही इतरा लेता था। अब वो नहीं रहा, लेकिन उसके ऊपर बचे नुकीले एंगल अपने हिंसक स्वभाव से आते जाते वाहनों को मिटाने की फिराक में रहते हैं। कहते हैं टायर फटने की आवाज में उनको मजा आता है। लोग उनसे कानून व्यवस्था की तरह बचकर निकलते हैं, लेकिन उपेक्षा का शिकार में हो रहा हूँ। मैं उसे समझाता 'आदमी हो या प्लॉट, अगर कमर्शियल वेल्यू है तो सब पूछते हैं, कभी न कभी तुम्हारा भी कोई तारणहार जरूर आएगा।'
बस यूं ही दिन महीने साल गुजरने लगे, मैं उसे यूं ही पड़े देखता रहा, उसके दुख और मेरी जिंदगी दोनों में नीरसता स्थाई निवास करने का प्रयास करती रही , और हम दोनों उससे बचने का नाटक करते रहे। इस उपक्रम में हम भूल जाते हैं कि विधाता सब के लिए कोई न कोई भूमिका लिख रहा होता है। उसके पीछे वाले हिस्से में नुकीले एंगल के पास एक दिन एक भिखारी सा दिखाई देने वाले परिवार ने अपना डेरा डाल लिया, वो सुबह निकलते और शाम को भिक्षाटन करके लौटते। कभी आसपास के पर्यटन स्थलों पर निकल जाते, कभी मंदिरों के सामने जाकर भीख मांगते। शहर के मिजाज के हिसाब से मस्जिदों और गिरजों के सामने भी भीख मांगते। कुल मिलाकर उनकी ऊपरवाले की कृपा से कट रही थी। उसका एक 14-15 साल का लड़का एक बार कहीं से एक पुराना सा स्टोव उठा लाया और वहीं चाय बेचने लगा। स्टोव की भरभराहट प्लॉट पर संगीत की तरह गूंजने लगी। पार्षद के दरवाजे पर पहुंच गया, सो बीपीएल कोटे के राशनकार्ड पा गया। अब तो शकर, मिट्टी का तेल अनाज सब साथ बहने लगा।
धीरे धीरे उसने वहाँ दूसरे आवारा लड़कों को सब्जी, पानीपुरी, पान बीड़ी सिगरेट के  ठेले लगवा दिए और उनसे कमीशन लेने लगा। अब चौराहे ने आकार ले लिया था, वो दिन में गुलजार होने लगा था। मैं देखता वो अब पहले से खुश था
 लेकिन एक दिन वहाँ किसी की बुरी नजर पड़ गई। नगरनिगम का अतिक्रमण विरोधी दस्ता किसी मुगल हमलावर की तरह आया और सबकुछ उजाड़कर चला गया। लड़के अपने टूटे फूटे सपनों पर बैठकर बीड़ी पीने लगे। दोपहर के बाद वहां अक्सर साठ पार के रंगीले सियार टहलने आते थे, वैसे तो वो रोज निकलते थे, लेकिन रुकते नहीं थे। क्योंकि उनके वहां रुकने की कोई वजह नहीं थी। लेकिन मलबे के ढेर पर बैठे लड़के उनको अवसर की तरह चमकदार लगे। उनके घाव कुरेदने के बाद कहने लगे चिंता मत करो इस जगह पर इस साल अपन गणेशजी बिठाते हैं, भगवान गणेश की कृपा से सब ठीक जो जाएगा। तुम लोग इन बांस बल्लियों से मंडप बना लो, मोहल्ले के बीस पच्चीस घरों से चंदा ले लो। ये लो सबसे पहले मेरे इक्कावन। लड़के देखते रहे, उनको समझ में नहीं आ रहा था। लड़कों ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, और उससे चंदा झेल लिया। थोड़ी देर बाद पास की कलारी में जाकर उस पैसे से दारू पी ली और सबकुछ भूल गए।
लेकिन वो नहीं भुला था, वो सुबह फिर आ गया। आज घर से सब्बल फावड़ा लेकर आया था। उसने आते ही सबको काम पर लगा दिया। थोड़ी ही देर में मंडप ने आकार ले लिया, और शामतक छोटे से गणपति भी बिराज गए। स्थापना पूजा में पार्षद आया, अगले दिन एक प्रोजेक्ट स्वरूप में हटाई गई सारी गुमठियां लगने लगीं और उनकी संख्या दोगुनी होकर पूरे प्लाट पर फैल गयीं।
चंद दिनों में वहां सबकुछ गुलजार हो गया। पीछे के किसी निजी प्लॉट पर कब्जा करके सुबह देश और हिन्दू धर्म को दुश्मनों से बचाने पर चर्चा की क्लास लगने लगी। अब दुर्गा उत्सव, दशहरा, दीवाली, होली सब वहीं से संचालित होते हैं। चौराहे के नाम हिन्दू उत्सव चौराहा हो गया। वहाँ एक स्थायी मढिया है, उसके सामने गुमठियों की कतार है। रोज सुबह - शाम पूजा आरती होती है। साल भर भाँति भाँति के बहानों से चंदा इकट्ठा करने का उपक्रम चलता है। बड़े बड़े लोग आते-जाते हैं। अब वो बहुत खुश है, वो क्या अब तो सब खुश हैं। सारे लड़के चुनाव में भी काम करते हैं, और रैलियों के लिए भीड़ भी जुटाते हैं। अब चर्चा गणेश पूजा की सार्थकता पर है, जो कभी व्यर्थ नहीं जाती।

No comments: