Monday, June 11, 2018

पूंजीवादी जगमग और राग दरबारी

(संजीव परसाई) व्यंग्यकार वैसे तो कहीं ज्यादा आता जाता नहीं है, लेकिन प्रयासरत रहता है कि कम से कम लोग उसे बुलाएं तो। इस प्रकार उसका ईगो बना रहेगा और लोगों का भ्रम भी। भोपाल में राग-दरबारी के पचास साल पूरे होने पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा एक गरिमामय कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इसमें मशहूर व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी को बतौर मुख्य वक्ता बुलाया गया। मंच पर उन्हें दो हजार वॉट का लाईट के ठीक सामने बिठा दिया गया, ताकि उनका व्यक्तित्व जगमगाता रहे। ये मंच को  समाजवादी से पूंजीवादी में बदलने का सामाजिक प्रयास था। उनकी आँखें चौंधियाने लगीं, लगा कि शायद कोई शरारती उनके सरोकारी होने की परीक्षा ले रहा है। हालांकि मंच पर ही उनके आजू-बाजू में बैठे दूसरे साहित्यकार मजे से इस पूंजीवादी जगमग का आनंद ले रहे थे, शायद इसिलिए कि वो व्यंग्यकार नहीं थे। मेरे बगल में बैठा रामसिंग कहने लगा – भैया, देखो तो दाल-रोटी खाने वाले पंडत का चेहरा कैसे दमक रहा है। मैंने जोड़ा – न रे..ये उन मुस्कुराहटों और कहकहों की चमक है जो इन्होने लूटे है, रामसिंग भंवें सिकोड़ कर मेरा चेहरा देखने लगा। हेलोजन लाईट में चमचमाता ज्ञान जी का व्यक्तित्व इस आरोप को काट रहा था कि इण्डिया में बड़ा व्यंग्यकार होने के लिए धूप में बाल सफ़ेद करने पड़ते हैं।
ज्ञान जी के चेहरे पर आ-जा रहे भाव उनकी मनोदशा को व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने मंच पर अपना पूरा समय ये सोचने में गुजारा कि श्रीलाल शुक्ल जी ने ये किताब आखिर लिखी ही क्यों होगी, उनका गुस्सा राजकमल प्रकाशन पर भी होगा, जिन्होंने इस किताब को छापा। वे सोच रहे थे क्या शिवपाल गंज के किस्से में इस हैलोजन का जिक्र भी कहीं किया है या नहीं। जैसे की सत्य के अनेक पहलु होते हैं, उसी तरह वे हेलोजेन लाईट के भी अनेक पहलुओं के बारे में सोचने लगे। वे आयोजक को वैध जी और खुद को रुप्पन बाबु मानकर अपने आसपास बद्री अग्रवाल, रंगनाथ, प्रिंसिपल, खन्ना, जोगनाथ और सनीचर को महसूस कर रहे थे। सामने बैठा जन समुदाय उनको लंगड़ दिखाई दे रहा था। आने जाने वाले वक्ता उनके गंभीर चेहरे को देखकर और ज्यादा समय लेने के लिए बेताब थे, पर वे अन्दर ही अन्दर उनसे रहम की भीख मांग रहे थे। हिन्दी का लेखक न तो तेज रोशनी का आदी है न ही व अपनी रोशनी दिखा पाता है सो जल्दी असहज हो जाता है। वैसे तो व्यंग्यकार व्यवस्था से चुहल करने के लिए जाना जाता है, लेकिन यहां मसला आयोजन की व्यवस्था का था। टेंट वाले की बुद्धिमत्ता से एक समाजवादी व्यंग्यकार पूंजीवाद का स्वाद चख पाया, वरना ये सुख उनको कहां नसीब होना था। समय इन बड़े लाइटों का है, लाईट विहीन या कम लाईट के लोगों की कोई औकात ही नहीं रही।
ज्ञान जी ने मंच पर पासंग बिराजे पड़ौसी से इस बारे में जिक्र किया, लेकिन उनको लगा कि कहीं उनको ही स्टूल पर चढ़कर बदलना न पड़े, सो उन्होंने ज्ञान जी की आगामी किताब पर चर्चा शुरू कर दी। इस मुददे पर कितना ही बड़ा लेखक क्यों न हो लरज जाता है। सो उन्होंने इस समस्या को चूल्हे में डाल, चूल्हे जैसी गर्मी में बैठना स्वीकार कर लिया। उन्होंने अपने सामने रखा एक कागज उठाकर चेहरे पर लगा लिया, सो फोटोग्राफर चेहरा दिखाने की मनुहार करने लगा। अब व्यंग्यकार का जो फोटो खिचना शुरू हुआ तो बंद होने का नाम  ही नहीं ले रहा, फ्लैश की लाइटों ने उन्हें रूसी  क्रांति पर लिखे गए नाटकों और रूजवेल्ट द्वारा अदालतों का मटियामैट करने की कोशिशों पर लिखे आलेखों का मिक्स तैयार कर दिया। सामान्यतौर पर इस प्रकार के सीमित बजट के आयोजनों में एक आध बार लाइट चली जाती है या लाइट ही खराब हो जाता है, चूंकि व्यंग्यकार का मामला  था, सो लाइट भी नहीं गई। इस दौरान उन्हें सरकार पर किए कटाक्ष याद आए, शायद बिजली विभाग ने अपना  बदला  लिया है। उन्होंने अपने चेहरे को घुमाकर बैठने की कोशिश भी की लेकिन लाईट देश की हुकूमत की तरह था, जो हर तरफ से आपको दबोचने के लिए बेताब है। जब लेखक मुंह घुमाकर बैठने लगे तो तय समझो की उसकी राज्यसभा में भेजे जाने की बात हो गई है । सो वे सतर्क होकर सीधे बैठ गए। कालांतर में अपने हाथ को ही जगन्नाथ मानकर कभी दाएं कभी बाएं करते रहे। वे मन में सोचने लगे कि शायद व्यंग्यकार को भी इसी गर्मी में तपकर शीर्ष व्यंग्यकार का दर्जा प्राप्त होता हो, सो मन मारकर पॉजिटिव सोचने लगे। उधर सारे लंगड़ सोच रहे थे की इस प्रकार के आयोजन में चाय समोसे की बजाय पेस्ट्री, पेटिस और केक मिलना चाहिए। उधर ज्ञान जी के दमकते चेहरे से ये साफ नहीं हो पा रहा था कि ये उनके दिव्य व्यक्तित्व का प्रभाव था या उनके अंदर घुमड़ते बारामासी के संवादों का। आयोजक भले मानस थे, सो बस झेलना ही है। जैसे ही प्रोग्राम ख़तम हुआ सबसे पहले ज्ञान जी हॉल से निकलकर बाहर खड़े हो गए। उनके पीछे निकले सारे लंगड़ उन्हें घेरकर भीड़ की शक्ल में ऐसे खड़े हो गए जैसे चौराहे पर कोई एक्सीडेंट हो गया हो, वे अपने सफ़ेद रुमाल से पसीना पोंछते रहे।

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