(संजीव परसाई) बाबूजी होना
एक गौरवपूर्ण कृत्य है। जो लोग हिन्दी पत्रकारिता और अखबारों को नजदीक से देखते हैं
वे भलीभांति जानते हैं कि बाबूजी होना कितने गौरव की बात है। रमानाथ जी भी अपनी बिगड़ैल
औलादों से यह सपना पाल बैठे कि वे उन्हें जीते जी बाबूजी की पदवी से सुशोभित करेंगे।
एक दो बार महिलाओं से छेड़छाड़ करने और दो महिलाओं से विवाहेतर संबंध के आरोपों को अगर
छोड़ दिया जाए तो रमानाथ जी ठीकठाक आदमी हैं। कृषि विभाग में बाबू रहकर उन्होंने अपने
जीवन को हरा-भरा करने में कोई कसर नहीं रखी। रिटायरमेंट के बाद अब वे सत्ताधारी पार्टी
के साथ उठते बैठते थे। एक पार्टी ने उन्हें अपनी पार्टी के किसान मोर्चा के अध्यक्ष
बनाने का भी वादा कर रखा है।
एक बड़े नेता
उनके गिलास फैलो थे, पांच सात भरे
गिलासों के साथ वे दोनों आपस में किसानों के बेहतरी के लिए राय मशविरा किया करते। जब
भी अकाल पड़ता उन दोनों के खेतों से हर साल औसत से अधिक फसल निकलती। किसान मर मर कर
खेती करते लेकिन एक एकड़ में चार बोरे से अधिक गेहूं नहीं पैदा कर पाते, रमानाथ जी के खेतों के नीचे न जाने कौन सा कामधन्य बैठा था, बिना पानी, बिना खाद कभी
कभी तो बिना बीज के भी बीस-तीस बोरे अनाज कहीं नहीं जाते। कभी-कभी तो बिना बोनी किए
भी उनके खेत सोना उगलते। उनकी कृषि के प्रति लगाव और उत्तरोत्तर सफलता देखकर सरकार
उन्हें कृषि रत्न अवार्ड देने का भी विचार कर चुकी थी। पर वे मानते नहीं थे, हमेशा किसी न किसी बहाने मना कर देते। हां ये जरूर जोड़ देते
कि हमारे देश में और किसानों में बहुत दम है। बस बिजली, पानी, बीज, खाद मुफ्त
में दे दो तो वे पूरी दुनिया को अनाज सप्लाई कर देंगे। उनकी इस मुफ्त थ्यौरी की वजह
से कई किसान आंदोलनों ने दम तोड़ दिया।
सो रमानाथ
जी कस्बे के एक आयोजन में गए जहां उन्होंने देखा कि एक परिवार के चार लड़कों ने मिलकर
अपने मरहूम बाप की याद में एक धर्मशाला बना दी। एक पत्थर लगाया हमारे प्यारे बाबूजी
प्यारेलाल जी की याद में...। बस इसके बाद रमानाथ जी ने ठान लिया कि वो ये सुख जीते
जी लेंगे।
उन्होंने अपने
सलाहकारों को याद किया। एक आध चक्कर
भोपाल का भी लगा आए। भोपाल में एक पत्रकारिता के पहरूए ने उन्हें बताया कि बाबूजी होना
एक जन्मजात गुण है। बाबूजी होकर व्यक्ति न सिर्फ जीते जी सम्मान पाता है बल्कि मरकर
भी हमेशा के लिए अमर हो जाता है। अब हमारे पत्रकारिता फील्ड में देख लो, हमारे सारे हिंदी अखबारों में कमोवेश सभी के पास अपने अपने बाबूजी
हैं। जिनका इस लाइन में खासा दबदबा है। वे साल भी जो नहीं कर पाते हैं वे साल में एक दिन बाबूजी के
नाम पर कर देते हैं। बाबूजी के नाम पर भाषण श्रृंखला, बाबूजी का जन्मदिवस से निर्वाण दिवस तक सब एक ही छत्र के नीचे
समा जाता है। सो अखबारी दुनिया में बाबूजी के दबदबे से प्रभावित होकर उन्होंने अखबार
शुरू कर स्थायी बाबूजी बनने की ठान ली। तय रहा कि कृषि विभाग से रिटायर होकर वे किसान
नेता बनेंगे और अपना खेती का अखबार ही प्रारंभ करेंगे और बनेंगे खेती की दुनिया के
बाबूजी।
आए दिन किसानों
के आंदोलनों से जूझती सरकार ने उनको आगे कर दिया सोचा तो दुविधा में पड़ गए कि क्या
करें। पत्रकार जो
अब तक बाबूजी के साथ गिलास शेयर करते थे अब सवाल पूछने लगे सो वे बिफर गए विलाप करने
लगे इन अखबारों और टीवी चैनल वालों ने तमाशा बना रखा है। एक किसान मरा नहीं कि ये सब
विधवा विलाप करने लगते हैं। हम भी तो किसान हैं, लेकिन हमने तो कभी आत्महत्या
नहीं करी। हमें तो बहुत फायदा होता है। मंच पर चढ़कर रमानाथ किसानी के बारे में बताने
लगे। जैसे कि मानो आपने गेहूं का एक दाना बोया तो कम से कम 15 दाने तो उगेंगे ही। अब जे
बताओ कि अगर 10 दाने खर्चा में निकल गए तो भी कम से कम 5 गुना लाभ तो हो ही गया, भूसे का फायदा अलग से।
उधर उनका भाषण समाचार चैनल ने लाइव कर दिया तो नीति आयोग के मुखिया को चक्कर आने लगे।
रिटायर होने
के बाद न तो वे खेती में रिकार्ड मुनाफा कमा सकेंगे न ही उनकी औलाद उन्हें बाबूजी का
सम्मान देगी, वो तो बाबूजी
भी नहीं बोलते पप्पा बोलते हैं। तो फिलहाल तय रहा कि वे सोशल मीडिया कंपनी की सेवाएं
लेकर सोशल मीडिया के बाबूजी बनेंगे। एक सलाहकार ने कहा कि सोशल मीडिया पर बाबूजी थोड़ा अजीब सा लगेगा, सो अब वे बनेंगे सोशल मीडिया के पप्पा। सोशल मीडिया के हरकारों को हायर किया गया और
अब वे अपनी चिरपरिचित छबि को दफनाकर नया अवतार लेने की तैयारी में हैं।
जल्दी ही पप्पा की याद में कई नए कार्यक्रम घोषित किए
जाएंगे। पप्पा की याद में स्वच्छता अभियान, पप्पा की याद में धर्मशाला, चौराहे आदि रंगे जाएंगे और लोग पता पूछने वालों को कहेंगे
वो पप्पा चौराहे से दाएं ले लो।
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