Friday, April 14, 2017

हम बड़ी ई वाले लोग....

(संजीव परसाई)  राजनीति और व्यंग्य हमेशा पूरक रही है, लेकिन कुछ तथाकथित आधुनिक पुरोधाओं ने व्यंग्य को चुटकुला और राजनीति को जुगाड़ नीति के रूप में स्थापित कर दिया। जबकि दोनों ही अपने विशिष्ट स्वरुप में प्रासंगिक हैं। असल में इन दोनों को ही विशिष्ट होने की बीमारी है। राजनीति का ग्रसित व्यक्ति हैसियतदार दिखने और दिखाने के लिए लालायित रहता है। वो अलग बात है की आजकल अपनी हैसियत को कम दिखाने का रिवाज चला है। लाल बत्ती मिल जाती है लेकिन फिर भी बिना बत्ती की गाड़ी में घूमते हैं। व्यंग्य लेखन का शिकार व्यक्ति चाहता है कि लोग उसे बुद्धिजीवी मानें , सो वो बुद्धिजीवी की तरह (अर्धसेल्फी मुख मुद्रा) मुँह बनाए घूमता है, बोलता कम है, हुंकारा ज्यादा भरता है।
हम भी अपने आप को हमेशा से ही विशिष्ट मानते आए हैं, ज्यों ज्यों उम्र पकती जा रही है, हम विशिष्ट से अति विशिष्ट होते जा रहे हैं। ये बीमारी कैसे और कहाँ लगी इसका अवश्य ही कोई गहरा इतिहास रहा होगा। इतिहास इसीलिए कि लोग कहते हैं की ये बीमारी हमारे पूर्वजों को भी थी। हम अपने नाम परसाई, काम पंडिताई के प्रति सदियों से ही सतर्क रहे। यह सब कमाल हमारी बड़ी ई का है। देश गवाह है कि बड़ी ई धारक लोगों ने खासा नाम कमाया है फिर चाहे वो राजनीति हो या व्यंग्य। लोग कहते हैं कि मोदी जी मेहनत करके देश के प्रधानमंत्री बने हैं , लेकिन हमारा मानना है कि वो आज जो भी हैं अपनी बड़ी ई की वजह से हैं। यही बात इंदिरा जी , शास्त्री जी चौधरी जी, वाजपेयी जी आदि करीब 10 प्रधानमंत्री पर लागू होती है।  व्यंग्य में भी अगर जोशी और परसाई के पास बड़ी ई नहीं होती तो वे भी पांडुलिपियों में ही धरे रह जाते।

अभी पिछले शादी के सीजन में एक शादी का कार्ड आया उसने हमारे नाम में बड़ी की जगह छोटी इ की मात्र लगा दी थी, हमने खानदान सहित उस शादी का बहिष्कार किया। लोग कहने लगे अरे लिखने में गलती हो गयी होगी गुस्सा थूक दो। अब ये कोई छोटी गलती तो थी नहीं, आखिर हम बड़ी ई वाले लोग हैं। जब मिले तो मनुहार करने लगे। हमने कहा – अगर हम तुम्हारे में से बड़ा आ निकाल फेंकें तो तुम्हें कैसा लगेगा, वर्मा जी झेंप कर निकल गए।  हम अपनी बड़ी ई को बहुत संभाल कर रखते हैं और उसे समय आने पर ही निकालते हैं। पहले हम नाक कटाई और जग हंसाई से डरते थे लेकिन जबसे नकटा होना गौरव का और जग हंसाई प्रसिद्धि का विषय हुआ है, हमने तय कर लिया की हमारा फोकस बड़ी ई पर ही रहेगा।
आधुनिक दौर में लोग ताना देते - कब तक पंडिताई करके अपने रोजी रोटी चलाओगे। कुछ काम धाम क्यों नहीं कर लेते?? और हम मुंह ठेल देते कि हर कुछ कर लेंगे क्या भाई।।।कुछ लेवल का भी तो होना चाहिए।।।
वे ज्ञान झाड़ते अरे बेटा काम कोई छोटा बड़ा नहीं होता। हम बहस पर उतर आते और इस धारणा को सिरे से नकार देते। मोहल्ले के एक काका कहने लगे बेटा ज़माने के हाल समझो और कुछ काम शुरू करो। हमने कहा जरुर करेंगे। उन्होंने तत्काल अपने लड़के की कम्पनी में बाबू की नौकरी हमारे आगे धर दी। हम उनकी चाल समझ गए। वे नौकरी के नाम पर नौकर बनाकर हमारी बड़ी ई को काटना चाह रहे थे। हमने उनको टाइट कर दिया तो बुरा मान गए कहने लगे लड़का मुंहजोर है। हमने कहा काका मुंहजोर नहीं बदतमीज हैं, क्योंकि उसमें भी बड़ी ई है। अब वो दिन नहीं रहे, न ही हम वैसे रहे काका के लड़के की कम्पनी बंद हो गयी वे अब हमसे मदद मांगते हैं सो हम उनको कह देते हैं की कोई काम करने दो काका, काम कोई छोटा बड़ा थोड़ी होता है। और तुम्हारे साथ तो बड़ी ई वाली समस्या नहीं है। काका डबल बुरा मान गए। वे मिश्रा थे किसी के बहकावे में आकर अपना बाद आ गवां बैठे, अब छोटे अ से ही काम चलाते हैं, सो मिश्रा की बजाए मिश्र कहलाते हैं। हम तो अपनी कार के पीछे भी बड़ी ई छपवा लेते हैं ताकि सनद रहे।

अगर रिश्वत लेते पकड़ा जाएं, घोटाला कर मारें, बे टिकट पकड़ा जाएं, या चुनाव में जमानत जब्त करा लें तो बेखटके बड़ी ई को अपने साथ चिपका कर रखते हैं, ये बुरे समय में होंसला देती है। कोई ताना मारे तो साफ कह देते हैं कि हमसे पंगा न लेना हमारे वाले हर दल में ऊपर तक बैठे हुए हैं, भाजपाई, कांग्रेसी, माकपाई, सपाई, बसपाई, आपी आदि... । आजकल वैसे भी "ई" का ही जमाना है
बड़ी ई धारक लोग कम बचे तो दूसरे तरह से ई होने लगे हैं हमारी बिरादरी के बड़ी ई वाले प्रधानमंत्री बन गए हैं दूसरे भी फिराक में हैं तीसरे लड़-लड़ के हलाकान मचाये हुए हैं। बचे हम सो हम अभी जुगाड़ में हैं, लेकिन कहे देते हैं तब तक अपनी बड़ी ई को आंच भी न आने देंगे।

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