Saturday, January 28, 2017

ढोंगी हम और आहत होती भावनाएं

(संजीव परसाई) चार-छः मवालियों ने एक फिल्म निर्माता को कूट दिया। आरोप लगे कि वो जो फिल्म बना रहे हैं, उसमें ऐतिहासिक तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की गयी है। टीवी पर और सोशल मीडिया पर लोग सक्रिय हो गए। समर्थकों ने कहा, अच्छा कूटा, हमारी भावनाओं को आहत किया गया है। हमारे विश्वास के साथ मजाक हुआ है। कुछ लोगों को अपने धर्म पर हमला नजर आया। दरअसल हमारे देश में भावनाओं की दूकान लंबे समय से सफलता पूर्वक चल रही है। इस दौर में  सरकार, समाज और बाजार सब बदल गए, लेकिन इन दूकानों की सजावट बरकरार रही। ग्लोब्लाइजेशन के दौर में भी इन पर कोई असर नहीं हुआ। डिजिटलाइजेशन के दौर में चमक बढ़ गई।

हम भावनाओं से चलने-पलने वाले लोग हैं, हमारे पास हर समस्या का भावनात्मक इलाज है। कभी देश, कभी धर्म या संस्कृति के नाम पर हम भावनाओं में बह जाते हैं। लेकिन ये सुविधाओं की भावनात्मकता है। हमारी भावनाएं सुविधाजनक मामला होने पर ही आहत होती है । बेरोजगारी, लचर न्याय व्यवस्था हो, गरीबी हो, घटिया स्वास्थ्य सुविधाएँ हों या कमजोर प्रशासन, हम सभी को आँखें मूंदकर सहन कर लेते हैं। देश में लाखों बच्चे कुपोषण से मर रहे हैं, लेकिन किसी की भावनाएं आहत नहीं होतीं। मूल समस्याओं के चलते किसी को जिम्मेदार बताकर कोई भी कूटने को उद्यत नहीं होता। हम और हमारा समाज मूलतः और सिद्धांततः ढोंगी प्रकृति का है। असल बात तो यह है कि हमारे धर्म, विश्वास और भावनाऐं इस दौर में कमजोर हो गईं हैं, जो मात्र अफवाहों के संक्रमण से आहत हो रहीं हैं। इनके स्वास्थ्य की चिंता करने की जरूरत है।

प्रायः जिनको वर्तमान के तथ्य नहीं समझ आते वो ऐतिहासिक तथ्यों के लिए बलवा कर रहे होते हैं। अभी तक लगता थस कि फिल्म निर्माण एक गोपनीय प्रक्रिया है, जिसमें यूनिट के लोगों को ही कहानी का अंदाज़ नहीं होता है। यह पहला मामला है जिसमें फिल्म निर्माता अपनी स्टोरी और स्क्रीनप्ले को लेकर चौपाल पर बैठा था, और हर ऐरे-गैरे को स्टोरी लाइन पता थी। यहाँ तक कि फिल्म में कौन से सीन फिल्माए जा रहे हैं यह भी सबको मालूम है।

मुझे तो लगता है ये बलवाई फिल्म सेंसर बोर्ड की लोकल फ्रेंचाइजी है, जिन्हें बोर्ड ने खुद को जगहँसाई से बचाने अपनी जिम्मेदारी दी है। न हों तो भी हो सके तो इन लोगों को सेंसर डंडा बोर्ड का दर्जा दे ही दिया जाना चाहिए, जो हर क्रिएटिव के घर में घुसकर ये देखें कि कौन क्या लिख या रच रहा है। फिर फिल्म सेंसर बोर्ड को बार बार अपनी कैंची में धार कराने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

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