Friday, January 27, 2017

सेवालाल और विधायिकी का टिकट

(संजीव परसाई) विधान सभा चुनावों की अधिसूचना जारी होते ही पार्टियों में टिकटों को लेकर सिर फुटव्वल भी शुरू हो गई। सबको चुनाव लड़ना है, किसी भी हालत में। समाजसेवा दूसरे क्षेत्रों में भी होती होगी लेकिन कहीं सुना है, कि सेवा करने के लिए लोग मार-काट पर उतर आये।
सेवालाल भी राजनीति का मेवा पाने के लिए कई सालों से लालायित था। उसे अब तक सिवाय कुछ टुकडों के कुछ न मिला था। मेवे के अभाव में उसका राजनीतिक समर्पण कुपोषित हो चला था। अब उसे लगता था कि ये चुनाव उसके लिए अच्छा अवसर हैं, शायद अंतिम। वो विधायिकी के टिकट को जनता के सीने पर सवार होकर सेवा करने का लाइसेंस मानता है।
एक दिन देखा कि उसके घर के सामने एक टवेरा खड़ी थी, जिसके आस-पास कुछ कार्यकर्ता पप्पू आदि खड़े हुए थे। मैं समझ गया कि लगता है, भाईसाब का बुलावा आया है। भाईसाब इसके सबकुछ हैं। इन्होंने ही इसके अंदर राजनीति का कीड़ा घुसाया और यह वोटर से कार्यकर्त्ता में बदल गया। ये कई सालों से भाईसाब के नगरागमन के पोस्टर चढाने-उतारने से लेकर मुर्दाबाद-जिंदाबाद तक करते रहे।

मैं आगे निकलने लगा तो पीछे से पप्पू लपककर आया और कहने लगा - सर आपको सेवा भैया याद कर रहे हैं। अंदर सेवालाल अपने दो दोस्तों के साथ मंत्रणा कर रहे थे। मुझे देख उनको चलता कर बोले- क्यों गुरु कहाँ निकल रहे हो सुबह-सुबह। वो तो मेरी नजर पड़ गई...हैं जी।
मैं कुछ बोलता उसके पहले उसने सवाल दाग दिया - जे बताओ मिलेगी कि नहीं?
मैं इस सवाल का जवाब तो नहीं जानता था लेकिन इतना जरूर समझता हूँ कि - "राजनीति में अगर किसी पद को चाहो तो दूसरे सारे  कार्यकर्त्ता मिलकर आपसे दोगुनी कोशिश करेंगे कि वो आपको न मिले", पर उसका मन रखने के लिए कह दिया - मिल जाएगी। वह लपककर मेरे गले लग गया, सही बताऊँ गुरु भाईसाब का फोन आया था, बोले तुम्हारा नाम जुड़वा दिया है। बुलाया भी है बस अभी निकलना है...बाहर आते-आते बोला शाम को मिलता हूँ, मिठाई के साथ।
सेवालाल के आगे बैठते ही शागिर्द पप्पू ने ड्राइविंग सीट संभाली और छः समर्थकों के साथ रवाना हो गए। मुझे अंदाज हो गया कि इसका कुछ नहीं होने वाला, क्योंकि आज दल समर्पित के बजाय क्षमतावान कार्यकर्त्ता चाहते हैं।
अगले दिन मोहल्ले में सन्नाटा देख मेरी उत्सुकता बढ़ गई सो पहुच गया। कहने लगा- गुरु, चोट हो गई, टिकट पप्पू का हुआ है। इस पार्टी और भाईसाब के लिए क्या क्या नहीं किया, लेकिन सब भूल गए। कल पार्टी में आए दलबदलू को टिकट दे दिया। देखता हूँ मेरे पास भी दूसरी पार्टियों के ऑफर हैं। मैं सोचने लगा आज के दौर में दलबदलुओं की ही पौ बारह है। दलों के दल-दल में जिताऊ प्रत्याशी का जोर है, न कि विचारधारा का। अब सेवालाल ने विचारधारा से किनारा कर लिया है, इसका भी कुछ न कुछ हो ही जायेगा।

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