Monday, August 24, 2015

चिंता साहित्यकार होने की ...

- संजीव परसाई

जिस दौर में जीने के लिये इतनी मशक्कत करनी पड़ती हों उस दौर में कौन साहित्यकार होने, लेखक होकर कौन अपना जीवन नष्ट करना चाहेगा। एक विचारक राबर्ट बांस्टन ने कहा था कि साहित्य मूर्खों की मूर्खों के द्वारा मूर्खों के लिये रची गई विधा है। हालांकि इस विचार से सहमति जरुरी नहीं है, पर समझ में नहीं आता कि साहित्यकार होने से बुद्धि चली जाती है या कि लोग बुद्धि चली जाने की वजह से साहित्यकार हो जाते हैं। 
यूँ तो अपने आप को साहित्यकार या लेखक कहने में गर्व होता है। लेकिन साहित्यिक संजीदगी का बोझ उठाने में तेल निकल जाता है। उदारीकरण के दौर में सबसे अधिक अगर नुकसान हुआ है तो इसी क्षेत्र का हुआ है। साहित्य क्षेत्र के लोग बिना किसी स्वार्थ के अपनी धुन में पगलाये से जुटे हुये थे। लेकिन समाज और समाज के प्रगतिशील वर्ग ने उन्हें बुझाया कि क्या बेबकूफी कर रहे हो, मौका है कुछ ऐसा करो कि जिससे नाम भी मिले और दाम भी। अब लिखने का काम आर्थिक रूप से संपन्न लोगों ने ठेके पर ले रखा है। आजकल जमीनों के सौदों में रूचि  रखने वाले भी साहित्य रचते हैं, उनका साहित्य जमीनी साहित्य की श्रेणी में आता है। यहाँ वे भी खासे सक्रिय हैं जिनका काम पूर्वजों की जमापूंजी और पेंशन से चल जाता है। बहुत सारे साहित्यकार भाभी जी की शासकीय सेवा के सहारे साहित्य की सेवा में लीन हैं, भाभीजी अक्सर सरकारी कालेजों में अपनी सेवायें देती हैं।  साहित्यकारों में एक बड़ा वर्ग उनका भी सक्रिय है जो सेवानिवृत्ति के बाद पहचान के संकट से जूझ रहा था। खांटी साहित्यकारों के अकाल के चलते हुए और भी कई संकल्पनाएं हो सकती हैं। जो छूट गए हों बुरा न मानें, उन्हें आगे समेट लूँगा।
तो साहब मसला यह है कि इस दौर में कौन मां-बाप अपनी औलाद के लिये लेखक बनने का सपना पाल सकते हैं। एक साहित्यकार से कहा कि - आपकी पुत्री में साहित्य के प्रति रूझान अभी से ही दिखाई देता है, थोड़ा मार्गदर्शन करेंगे तो आपका नाम रोशन करेगी। वे उत्तेजित हो गये, साहित्यिक सौम्यता को ताख में रखकर बोले कि साहित्य के क्षेत्र में आने से बेहतर है कि वह किसी कुँए में कूद जाये।
साहित्यकार उम्दा विचारक तो होता है लेकिन उम्दा प्रचारक नहीं होता। अगर साहित्यकार बनने की हिम्मत जुटाना है तो आपमें दोनों गुण होना चाहिये। प्रायः देखने में आता है कि साहित्यकार एक घटिया विचारक होकर उम्दा प्रचारक होने में अधिक सुविधाजनक महसूस करता है। साहित्यकार अपने लिये नये नये रास्तों के सृजन में लग जाता है। इस प्रक्रिया में धीरे-धीरे उसका ध्यान साहित्य सृजन से इतर गतिविधियों पर केन्द्रित हो जाता है, जिनमें खुद की मार्केटिंग, व्यवहार सृजन, आर्थिक उपार्जन साधनों का सरलीकरण व उनमें वृद्धि के उपाय आदि हैं। दूसरी ओर वह अपनी सीमित बौद्धिकता और विशाल कल्पनाशीलता के सहारे साहित्य को समाज का दर्पण बनाने में लगा हुआ है। लेखक यथार्थवादी होकर छायावादी व्यवहार करता है, जो साहित्य में आदर्शवाद को बदलता है। साहित्य में प्रगतिवाद ने समाजवाद को बरबाद किया, प्रयोगवाद ने अस्तित्ववाद को और नवप्रयोगवाद ने फ्रायडवाद को विकृत किया। ये चलता ही चला जा रहा है, आज इस लड़ाई में पूंजीवाद भी शामिल है। 
एक वरिष्ठ साहित्यकार से मैंने यूं ही पूछ लिया कि सर नए पीढ़ी में कोई साहित्यकार कैसे बन सकता है? कहने लगे जो अगरबत्तियां बेच सकता है वो साहित्यकार भी बन सकता है। मैंने जब भी उनसे नए साहित्यकारों के उदय और उनकी रचनाशीलता के बारे में चर्चा करने की कोशिश की, अक्सर मुंह की खाई। पहले तो उन्होंने उसे साहित्य मानने से ही इंकार कर दिया। फिर लौंडे-लपाड़ों का साहित्य कहकर दरकिनार कर दिया। वे दुःखी इस बात से हैं कि आजकल के लेखक लड़के कभी किताब देकर आशीर्वाद लेने भी नहीं आते। सीधे नेट पर धड़ाधड़ बेचने लग जाते हैं।
साहित्यकार होने और बनने में अंतर है। होने का क्या है आप होने को तो कुछ भी हो सकते हैं। आप अपनी फेसबुक प्रोफाइल में गर्व से साहित्यकार लिखिए। लेकिन यही बात वरिष्ठ लेखकों को, प्रकाशक को, अख़बारों-पत्रिकाओं के संपादकों को, बीबी को, और पड़ौसियों को समझाने में आपको पसीने आ जायेंगे। जहां हर वक्त नकारे जाने का भय सताता है, सिर्फ होने से काम नहीं चलता। दूसरी ओर साहित्यकार वह लिखता है जो उसे सही लगता है, और दुनिया से उम्मीद करता है कि वो भी उसे सही माने। इस ठसक में अक्सर वह मतिभ्रम का शिकार हो जाता है।

इन हालातों से निपटने के लिये आपको बेचने और बिक जाने का गुर तो आना ही चाहिये। साहित्य रचने का सोचते समय दो लक्ष्यों पर ही फोकस करना चाहिए। एक तो बाजार दूसरा कृपानिधान। बाजार तो सबके लिये एक जैसा होता है लेकिन सबके अपने अपने कृपानिधान होते हैं। साहित्यकार होना तब तक सार्थक नहीं है जब तक कि दो चार सरकारी पुरस्कार प्राप्त न हों। सनद रहे सत्ता पक्ष से नजदीकी सोने पर सुहागा होती है।  

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