(संजीव परसाई)
...तो साहब नए नवेले, दबंग और सख्त प्रशासक की छबि वाले आदरणीय नरेन्द्र भाई मोदी अब से हमारे प्रधानमंत्री होंगे. उन्होंने अपने कामों से साबित किया है कि वे समझौतावादी नहीं हैं, शायद देश जिस दौर से गुजर रहा है हमें एक ऐसे ही नेतृत्व की जरुरत थी. ये तो उनके धुर विरोधी और कांग्रेस के समर्थक भी मानते हैं की कांग्रेस की कार्यशैली ने देश को मुश्किल में डाला और जनता ने मोदी को हल मानकर देश की कमान उन्हें दे दी. सो बधाई दिल से और शुभकामनायें.
...तो साहब नए नवेले, दबंग और सख्त प्रशासक की छबि वाले आदरणीय नरेन्द्र भाई मोदी अब से हमारे प्रधानमंत्री होंगे. उन्होंने अपने कामों से साबित किया है कि वे समझौतावादी नहीं हैं, शायद देश जिस दौर से गुजर रहा है हमें एक ऐसे ही नेतृत्व की जरुरत थी. ये तो उनके धुर विरोधी और कांग्रेस के समर्थक भी मानते हैं की कांग्रेस की कार्यशैली ने देश को मुश्किल में डाला और जनता ने मोदी को हल मानकर देश की कमान उन्हें दे दी. सो बधाई दिल से और शुभकामनायें.
यह चुनाव अब एक विश्लेषण और शोध का विषय
हो गये हैं, पर बात सीखने और समझने की है. सत्ता पर काबिज होने की मंशा रखने
वालों, सत्ता के माध्यम से फलने फूलने वालों, लोकतंत्र में सीमित सहभागी युवाओं, देश
और सरकार से ढेर सारी अपेक्षाएं रखने वाले अविचारी लोगों और संसाधनों तक पहुँच या
जानकारी के अभाव में मरने वालों सभी के लिए यह सोचने और समझने का एक मौका है. सोचना
यह है की इन लोकसभा चुनावों में किसकी जीत हुई और किसकी हार हुई. यक़ीनन मोदी विजेता
हैं और अन्य विपक्ष हारा है. लेकिन इस दौरान देश में एक हवा और चल रही थी जिसमें
विचारों की खुशबु थी. कहीं न कहीं उस हवा ने कांग्रेस को पीछे धकेलने का काम किया.
स्वतंत्रता के बाद के चुनावों में 14 वीं लोकसभा का चुनाव विचारमूलक कहा जा सकता
है. चाहे फिर वो सबका साथ –सबका विकास, हर हाथ शक्ति – हर हाथ तरक्की या फिर भ्रष्टाचार
- वंशवाद के खिलाफ जंग आदि. महीनों पहले देश अच्छे और बुरे में अंतर करने लगा था,
बहस इस बात पर हो रही थी की आज के दौर में देश के लिए कौन सा विचार सही होगा. दरअसल
चौदहवीं लोकसभा का चुनाव विचारों में श्रेष्ठता की लड़ाई का था जिसमें विचार टकराए,
जहाँ तक सहभागिता का सवाल है इन चुनावों में पार्टियों के साथ देश के वोटर और
मीडिया ने भी हिस्सा लिया. वोटरों का एक छोटा सा हिस्सा ही था जो तटस्थ था. चुनावों
के दौरान गली नुक्कड़ो, चाय-पान के ठेलों, घरों आफ़िसों और मीडिया-सोशल मीडिया पर हर
कोई किसी न किसी विचार के समर्थन में या विरोध में था. समर्थन और विरोध का आलम ये
था की तटस्थ कहे जाने वाले लोग भी किसी के समर्थन/विरोध में गरमागरम बहसों में
सहभागी हुए. सबसे यादगार लम्हा वो बना जब खांटी पत्रकार भी बयार के वसीभूत होकर किसी
के पक्ष में या किसी के विरोध में नजर आये. अंतिम दौर में मुद्दों से भटकाव की
पुरजोर कोशिशें हुई लेकिन जनता ने एक सक्षम एंकर की भूमिका का निर्वाह करते हुए
बात विकास और चाक-चौबंद प्रशासन पर ही फोकस कर दी.
सो साहब, विचारों की लड़ाई में परिणाम विचार
से सहमति या असहमति होता है. विचार आत्मा की तरह है जो न जीतता है न हारता है, न
जीता है न मरता है. सहमति होने पर या असहमति होने पर भी विचारों को कसौटी पर रखा
जाता है जिससे वे परिपक्व हो सकें. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने दुनिया को यह
दिखाया है की विचार पर सहमति की मुहर, राजनैतिक दलों के लिए साबित करने का एक अवसर
मात्र है लेकिन पाबन्दी के साथ कि असफलता या लेतलाली के लिए कोई जगह नहीं है. नई
सरकार ढेरों आशाओं को पूरा करेगी विश्वास है, लेकिन हम सब भी अपना 100 प्रतिशत
देने को तैयार रहें, असहमति के लिए स्थान रहे और तटस्थ आलोचना के लिए मीडिया तैयार
रहे.
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