संजीव परसाई -
एक कॉमेडियन ने नेताओं का मजाक बना दिया। नेता के समर्थकों को गुस्सा आ गया। वे गए और स्टूडियो में तोड़ फोड़ कर दी। रिपोर्ट कर दी, बहुत बाबेला काटा। इसको देख एक पढ़ा हुआ पुराना किस्सा याद आता है, कोई शीत युद्ध के दिनों की बात है। निकिता खर्चेव सोवियत के बड़े नेता थे। एक बार वो संयुक्त राष्ट्रसंघ में भाषण देते देते भावनाओं में बह गए। बिना नाम लिए उन्होंने एक टिप्पणी कर दी। उस समय सदन में अमेरिकी राजदूत रिचर्ड निकसन (ये बाद में अमेरिका के राष्ट्रपति बने) भी थे। वे आग बबूला हो गए, और उन्होंने इसपर आपत्ति दर्ज कराई। कहा कि आप मेरे राष्ट्रपति का अपमान कर कर रहे हैं।
खुरचेव ने कहा बदले में एक कहानी सुना दी। सोवियत में जार के समय एक आदमी ज़ार को गाली दे रहा था। पुलिसवाले ने पकड़ा तो, वो कहने लगा कि मैं तो जर्मन के ज़ार को गाली दे रहा हूं। पुलिसवाले ने कहा, मुझे घुमाओ मत, मैं भी जानता हूं, कि कौन सा ज़ार गाली खाने लायक है। तुमने हमारे ज़ार को ही गाली दी है। बाद में ये चुटकुला बन गया।
बदले दौर में ये उपमाएं स्थापित हो गई हैं। नेताओं ने इनको स्थापित करने में खासी मेहनत की है। पैसा भी लगाया है। खुद को महान और विरोधी को नीचा दिखाकर ही कोई राजनैतिक जीत तय कर सकता है। उनका नाराज होना स्वाभाविक है। उनकी मजाक कोई और क्यों उड़ाए। जबकि सबने एक दूसरे की मिट्टी पलीत करने का ठेका ले रखा हो। अब सटायर मारने के लिए किसी पॉलिटिकल पार्टी को ज्वाइन करना जरूरी है। आम लोग बस मुस्कुरा सकते हैं।
जल्दी से एक बिल लाया जाए, जिसमें किस जोक पर हंसना है, मुस्कुराना है, या बुक्का फाड़ के हंसना है। सब बताया जाए। हंसी पर टैक्स भी लगाया जाए। अब तो हाल ये है कि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भी अपने नेता की हरकतों, यानी जोक पर बुक्का फाड़कर हंसने को तैयार बैठे हैं। बस नियम न होने से हंस नहीं पा रहे हैं। सरकार को एक हंसी विभाग बनाना चाहिए, जो न सिर्फ हंसने के लिए सामग्री उपलब्ध कराए, बल्कि नजर भी रखे कौन किस बात पर और कितना हंस रहा है।
पहले हम मजाक करते थे, मजाक सहते थे। अब तो रोज का हो गया है। हर रोज कोई न कोई मजाक कर रहा है। ऑफिस जाने के टाइम पर पुलिस मजाक करने ट्रैफिक रोक सड़क पर खड़ी होती है। अस्पताल में डॉक्टर मजाक कर रहे हैं। ट्रेन में टीसी, बस में कंडक्टर सब मजाक ही तो कर रहे हैं। स्कूल बच्चों के भविष्य से, अस्पतालों में स्वास्थ्य से मजाक ही तो चल रहा है। सरकार ने कुछ विभागों में, जहां वो खुद नहीं कर सकती, वहां ठेकेदारों को रखा है। वे पब्लिक के साथ ऐसा मजाक करते हैं, कि पब्लिक पेट पकड़ पकड़ के हंसती रहती है। सरकार ने ठेका देकर गरीबों के लिए घर बनाए। गरीब खुश हुए लेकिन हंसी न आई। जब घर में रहने पहुंचे तो सुबह शाम हंसी ही हंसी बस। बिजली का बटन दबाना, नल की टौंटी घुमाना, सीढ़ी से उतरना, दीवाल में कील ठोकना, पंखा चलाना, बिजली जलाना, बैठना, उठना जो भी करें, बस हंसी और हंसी।इन्हीं के बनाई सड़कों पर चलते हुए आदमी, कई बार लोट पोट हो जाता है। सरकारी स्कूल, कॉलेज बच्चों को हंसी हंसी में जीवन का सत्य दिखा रहे हैं।
टीवी देखने बैठो तो खबरिया चैनल इतना मजाक कर रहे हैं, कि उनके सामने कपिल शर्मा भी फेल है। इसके अलावा सरकार ने शेयर बाजार में हंसी खुशी का माहौल बना रखा है। सब्जी मंडी हो, किराने की दुकानें मॉल सामान खरीदते हुए आदमी हंसता ही रहता है। हर आदमी ऑफिस में बैठ या मजदूरी करते समय दिनभर हंसी में ही डूबा रहता है।
अब जब चारों ओर, रात दिन हंसी का माहौल बना हो। ऐसी स्थिति में और कितना मजाक चाहिए। क्योंकि मजाक मजाक में कुछ ज्यादा हो रहा है। अगर लोग इतना हंसेंगे तो कहीं उनके फेफड़े न फट जाएं। फिर सब सरकार को कोसेंगे।
जब हंसने का सामान सरकार खुद दे रही है तो इन कॉमेडियन की कोई जरूरत नहीं है। जनता की टिकट का पैसा बचेगा। सब खुश होंगे। सरकार कॉमेडी और जगहंसाई का अंतर करना सीख जाए, लोगों की जिंदगी नीरस हो जाएगी।
व्यंग्यकारों के साथ कोई मजबूरी नहीं है, उनको डपट दो तो तो ये खेती-किसानी के जोक लिखने लगेंगे, या विपक्षी का मजाक बनाकर अपना काम चला लेंगे। इनका कोई स्टूडियो भी नहीं है, जिसको तोड़कर कोई गुस्सा निकाल सके।
Sanjeev Persai
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