Friday, September 6, 2013

जगाने के लिये पहले खुद तो जागें...

सूचना क्रांति ने भारत में पिछले कुछ सालों से घमासान मचा रखा है। इस दौरान जो सबसे अधिक तेजी से बदला है वह है कहने का तरीका। विज्ञापन की दुनिया के धुरंधर इसे एक स्वाभाविक प्रक्रिया मानते हैं, जो समाज में आ रहे बदलाव से ही संचालित होती है। यह कितना स्वाभाविक है यह स्पष्ट किया जाना अभी बाकी है।
पिछले दिनों परिवार कल्याण पर आधारित एक विज्ञापन टीवी पर लोकप्रिय हुआ। जिसकी टैग लाइन थी एक-तीन-दो, जिसमें  एक जोड़े को दो बच्चों के जन्म में कम से कम तीन साल का अंतर रखने के बारे में बात करते दिखाया गया है। साथ ही दो बच्चों में अंतर रखने के फायदों में आर्थिक उन्नति (फायदे का मंतर) को प्रमुखता से जोड़ा गया है। इस विज्ञापन ने हर स्तर पर लोगों को अपनी ओर खींचा है। इसे रचने वाली बीबीसी मीडिया एक्शन की क्रियेटिव हैड राधारानी मित्रा कहती हैं कि - इस विज्ञापन को लोगों से जोड़ने के लिये हमने दो बच्चों में कम से कम तीन साल का अंतर को परिवार में आर्थिक संसाधनों से जोड़ा गया जो इसकी सफलता का एक कारण है।
मुददा यह है कि पिछली कई सालों से सरकारें गाढ़ी कमाई को विज्ञापनों में लगाती हैं लेकिन इन विज्ञापनों के प्रभावों का अनुमान स्वयं उनके पास भी नहीं होता है। 66 सालों के बाद भी जनजागृति के विज्ञापनों से अधिक रूचि उपलब्धियों के प्रचार प्रसार में है। आज देश का एक बड़ा वर्ग टीवी से जुड़ा है, जाहिर है यह स्वास्थ्य और परिवार कल्याण से जुड़े संदेशों को लोगों तक पहुंचाने का एक ताकतवर माध्यम हो सकता है। लेकिन क्या लोग परंपरागत तरीके से सुनेंगे या उनके स्वास्थ्य व्यवहारों में बदलाव आयेगा, एक बड़ा सवाल है।
आर्थिक उदारीकरण से कुछ बदला हो या नहीं, लोगों के विचार जरूर बदले हैं। लोगों के पास संसाधन भले ही सीमित हों या नहीं भी हो लेकिन विष्लेषण करने और निर्णय लेने की क्षमता बढ़ी है। इसके साथ ही आम आदमी अब प्रतिक्रिया देने लगा है। लोगों की रूचियां और प्राथमिकतायें बदलने के कारण अब संदेश के परंपरागत माध्यम और तरीके फीके पड़ने लगे हैं। दूसरा तथ्य है असीमित विकल्पों का, आज हर एक व्यक्ति या परिवार के पास सूचनाएँ, सन्देश या जानकारी प्राप्त करने के एक से अधिक स्त्रोत मौजूद हैं। जाहिर है उनमें से बेहतर चुनना दर्शक के हाथ है।

आज बदले हुये सामाजिक ताने-बाने में संदेश देने में विकल्पों या तरीकों को नये तरीके से परिभाषित किये जाने की जरूरत है। निजी और कारपोरेट जगत में इसके लिये कई प्रयोग किये जा रहे हैं लेकिन सरकारी या सामाजिक क्षेत्र अभी भी दिये जाने वाले संदेशों की सफलता के लिये संघर्ष कर रहा है। वे रचनात्मकता के नाम पर किसी सेलीब्रिटी को विज्ञापन में लाने तक ही सोचते हैं। भारत में महिला और बच्चों के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण के क्षेत्र में चुनौतियां पहले ही हैं लेकिन जीवनशैली में बदलाव आने के कारण चुनौतियां बढ़ सकती हैं। आज संदेशों के प्रभाव को सुनिश्चित करने की जरूरत है, क्योंकि अब जीवन में संघर्ष के मायने भी बदल रहे हैं। आशय यह है कि हम तेल, साबुन, मोबाईल आदि बेचने के लिये नये-नये तरीकों से सोचते हैं. लेकिन बच्चों के स्वास्थ्य, महिलाओं की जिंदगी या परिवार कल्याण के बारे में चर्चा करते समय अपने तयशुदा दायरे से बाहर नहीं आ पाते. हम इन अपेक्षाकृत संवेदनशील मुददों के प्रति लोगों को जागरूक करने के बजाय उन्हें कभी कभी बोर कर रहे होते हैं। समझ रहे हैं न....

संजीव परसाई, भोपाल 

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