Sunday, May 30, 2010

एक अधूरा चिंतन - पत्रकारिता पर

मेरे एक मित्र हैं जो बड़े भाई की तरह है जो पत्रकारिता में ही आज तक मरे और जिए हैं, उन्होंने ही आज याद दिलाया की ३० मई को पत्रकारिता दिवस है उन्होंने अपने ब्लॉग पर पत्रकारिता के बारे में अपने विचार रखें हैं. मैं नहीं जानता कि इस दिवस को मनाने का क्या उद्देश्य है लेकिन मौका है और दस्तूर है तो इस विषय में भी सोचा जाए. एक घटना से अपनी बात शुरू करूँगा-
एक पुराने पत्रकार है(नाम नहीं लिखूंगा) भोपाल में ही अपने आप को जिन्दा रखे हुए हैं...अपनी स्कूटर, (यहाँ पर स्कूटर का नाम लिखना जरूरी है जिससे उनके वर्तमान हालातों का अंदाजा आपको लगेगा, वो है “बजाज कब”, ) पर जा रहे थे ट्रेफिक पोलिस के जवान ने उनको रोककर गाडी के कागज़ मांगे, जो उनके पास शायद नहीं थे, सो उन्होंने अपने वरिष्ठ पत्रकार होने का हवाला देकर गुजारिश की कि उन्हें जाने दिया जाए, जवान ने उन्हें पास में ही खड़े एक डीएसपी स्तर के अधिकारी कि ओर मुखातिब होते हुए कहा कि साहब से बात कर लीजिए, अधिकारी ने बात जानने के बाद नियमों का हवाला देकर कहा कि यदि हम नियमों का पालन नहीं करते हैं तो आप लोग ही दोषी ठहराते हो, चालान तो कटेगा,
पत्रकार महोदय बोले – नियम तो ये भी है कि कोई भी सरकारी अधिकारी अपनी आय से अधिक संपत्ति नहीं रख सकता है लेकिन कौन मानता है जहां तक मेरी जानकारी है आप भी नहीं मानते हैं, आप चालान काटिए अभी मेरे पास पैसे नहीं हैं मैं अपना वाहन और ड्राइविंग लाइसेंस आपके पास छोड़ कर जाऊंगा, पैसे जमा करके वापस प्राप्त करूँगा.
जाहिर है इस संवाद के बाद उनका चालान कट ही नहीं सकता था, जब ये घटना सुनी तो कई सवाल एक साथ जेहन में उठे, क्या हाल है इन पुराने पत्रकारों का, ये उस जमाने के पत्रकार हैं जब पत्रकारिता एक मिशन हुआ करती थी, जिनके लिए न तो उनके संस्थानं ने कुछ सोचा न ही सरकार या किसी ओर ने, आप सभी कि नजर में ऐसे कुछ एक पत्रकार होंगे जो इन गंभीर आर्थिक तंगी के शिकार होंगे, हम सभी उनकी मदद के लिए प्रयास करते भी होंगे लेकिन उनकी समस्याओं के स्थाई हल पर कभी कोई चर्चा ही नहीं हुई,
मैं आज के दिन ये सिर्फ मुद्दा उठाना चाहता हूँ, जो हिंदी पत्रकारिता जगत मैं नीव के पत्थर हैं इनके हालातों का जायजा कोई कभी भी लेगा क्या, स्थानीय और क्षेत्रीय पत्रकारों का हाल बहुत ही बुरा है, क्षेत्रीय पत्रकारों कि स्थिति तो और भी बदतर है, लोग और सरकार भूल ही गए है कि पत्रकारिता राजधानी से हटकर भी कुछ है, उनका क्या जो गाँव के गरीबों कि समस्याओं को उठाते हैं. अखबारों और चैनलों में भी इनकी भूमिका बहुत ही सीमित है, क्योंकि टीआरपी और रीडरशिप शहरों कि अमानत है.
मुद्दे बहुत हैं बातें भी बहुत है मेरा उद्देश्य सिर्फ इस मुद्दे को उठाना है जिसमें पत्रकारिता को उसके वृहद स्वरुप में देखा जाये, सवाल पत्रकार और पत्रकारिता दोनों का ही है. मैं नहीं जानता इस अधूरे चिंतन से क्या होगा लेकिन फिर भी सभी को इस दिन कि शुभकामनाएं.....

2 comments:

संजीव शर्मा/Sanjeev Sharma said...

अपने मौलिक विचारों से इसी तरह अवगत करवाते रहे....और पुंगी बजाते रहें क्यूंकि पुंगी की आवाज़ कम होना आपकी सुस्तता का संकेत होगा

sushil said...

badhai achha likha hai.