शायद घर का काम ही उसकी जिन्दगी थी। सुबह पाँच बजे से चौका बासन करने में लग जाती थी। हमारे उठने के पहले तो घर के आधे काम ख़तम करके खाने की तैयारी में लगना आदत थी उसकी। बाबूजी सारे कामों में मदद किया करते थे, सुबह से ही पूछते कोई काम हो तो बताओ। पीछे से माँ चिल्लाती -कोई काम नही है जी, तुम तो चुपचाप पेपर पढ़ो, पर बाबूजी को तो इस जवाब की आदत ही पड़ चुकी थी, वे अपने से ही उठते और चौका बासन करती माँ के नहाने के लिए पानी निकाल कर रख देते। बार बार पूछते कि - 'आज सब्जी कौन सी बनेगी, बताओ भाई काट ही देते हैं', हारकर माँ बोलती - '' वो टोकनी में आलू और टमाटर रखे हैं, वे ही काट दो '', और बाबूजी थाली, चाकू, और सब्जियाँ लेकर, एक पुराना अखबार बिछाकर सब्जी काटने बैठ जाते। जब भी हम अपने दादा के यहाँ जाते तो इनका अलग ही रूप देखने को मिलता, परम्पराओ में बंधा होना और सहज अभिव्यक्ति की सीमायें साफ़ नजर आती थी उनके चेहरों पर।
एक बार बाबूजी को किसी सरकारी काम से 15-20 दिनों के लिए भोपाल जाना था तो परम्परा निभाते हम सभी अपने दादा के यहाँ चले गए। पन्द्रह दिनों बाद बाबूजी लौटे तो माँ चौके में रोटियाँ बना रही थी, पिताजी के आने की ख़बर सुनकर बाहर देखने को तो नही उठी पर बैठे ही बैठे रोती रही ......। वहां जब दादाजी, चाचाजी और बाबूजी खाना खाने बैठे तो बाबूजी चुपचाप आंखों में आंसू भरे हुए खाना खाते रहे और हमेशा की तरह अपने हिस्से की सब्जी न खाकर थाली में ही छोड़ दी क्योंकि वो तो उनकी जूठी हो गयी थी, जो की पत्नी के हिस्से में आना था, परम्परा के मुताबिक।
बाबूजी अक्सर यही किया करते थे, अपने हिस्से कि सब्जी थाली में ही छोड़ कर माँ की ओर बढ़ाकर कहा करते थे, ये तुम खा लेना मुझसे नहीं खिला रही है। वे परम्परा को भी जानते थे और माँ को भी.......
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3 comments:
भावनाओं से भरी बेहतरीन रचना
अम्मा बाबूजी के प्रेम का सटीक चित्रण
bahut achhi rachna
अच्छी बात...
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